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काशी: दो मंदिरों के सबक

आस्था व प्रतिरोध, उदारता व शुद्धतावाद और सहज सनातनी संस्कृति से अलग धर्म की अपनी व्याख्या का ही यह परिणाम है कि एक मंदिर में भक्तों की कतारें हैं जबकि दूसरे में नहीं। एक है काशी विश्वनाथ मंदिर और दूसरा है श्री काशी विश्वनाथ (व्यक्तिगत) मंदिर, मीरघाट। पहला बना काशी

By Preeti jhaEdited By: Published: Thu, 30 Jul 2015 03:41 PM (IST)Updated: Thu, 30 Jul 2015 03:43 PM (IST)

वाराणसी। आस्था व प्रतिरोध, उदारता व शुद्धतावाद और सहज सनातनी संस्कृति से अलग धर्म की अपनी व्याख्या का ही यह परिणाम है कि एक मंदिर में भक्तों की कतारें हैं जबकि दूसरे में नहीं। एक है काशी विश्वनाथ मंदिर और दूसरा है श्री काशी विश्वनाथ (व्यक्तिगत) मंदिर, मीरघाट। पहला बना काशी के एक विद्वान नारायण भट्ट की प्रेरणा से और दूसरा प्रकांड पंडित और धर्माचार्य स्वामी हरिहरानंद सरस्वती करपात्री जी महाराज ने बनवाया।

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सावन बीतने को है। सोमवार शाम सात बजे तक, पिछले वषरें की तुलना में जब कम आए तो भी करीब 18 घंटे में डेढ़ लाख भक्त काशी विश्वनाथ के दर्शन कर चुके थे। इसके विपरीत नए विश्वनाथ मंदिर में पूरे सावन यह संख्या बहुत कम रही। प्रश्न किसी मंदिर में भक्तों के कम-अधिक होने का नहीं बल्कि उस 'क्यों' का है जिसमें जितना संदेश धर्म की जटिलताओं को बेहतर मानने वालों के लिए है उतना ही उन दलित चिंतकों के लिए भी जिन्हें यह समझना चाहिए कि उनके समर्थन में सवर्ण हिंदुओं का बहुत बड़ा वर्ग बहुत पहले ही खड़ा हो चुका था। करपात्री जी के बनवाए मंदिर का प्रवेश द्वार चौड़ा है, सामने का बरामदा बड़ा है, शिवलिंग के दर्शन आसानी से होते हैं, पुजारी मिलनसार हैं लेकिन बस नहीं है तो भक्तों का कलरव नहीं। उधर काशी विश्वनाथ मंदिर में दर्शन तपस्या से कम नहीं। मैं दोनों जगह जाता हूं, घूमता हूं और समझ पाता हूं तो यह कि भारतीय समाज में स्थान केवल सहिष्णुता और सबको साथ लेकर चलने की प्रवृति को ही मिलेगा।

श्री काशी विश्वनाथ (व्यक्तिगत) मंदिर, मीरघाट के व्यवस्थापक कपिलदेव नारायण सिंह के अनुसार हमारे यहां गर्भगृह में केवल मनोनीत पुजारी जाते हैं और भक्तों को शिवलिंग छूने को नहीं मिलता इसलिए भीड़ नहीं होती। हम भक्तों की संख्या पर नहीं, अनुष्ठानों की शुद्धता पर ध्यान देते हैं। नया विश्वनाथ मंदिर क्यों' नामक पुस्तक आप पढ़ेंगे तो समझ जाएंगे।

विवाद क्या-

सितंबर 1953 में दलितों को काशी विश्वनाथ मंदिर में प्रवेश दिलाने की मुहिम बाबा राघव दास ने शुरू की। 14 फरवरी 1953 को दलितों का पहला जत्था मंदिर जाता है जिसका विरोध करने पर करपात्री जी और उनके सहयोगियों पर जुर्माना लगता है। नौ मार्च 1954 को करपात्री जी के समर्थक दलितों के मंदिर प्रवेश पर अदालत से स्टे लेते हैं लेकिन वह 11 दिसंबर 1957 को खारिज हो जाता है और उसी दिन से विश्वनाथ दरबार में दलितों का प्रवेश होने लगता है। करपात्री जी यह कहकर विश्वनाथ मंदिर को भ्रष्ट घोषित कर देते हैं कि दलितों के प्रवेश से मंदिर और विग्रह अशुद्ध हो गए। इसी विरोध में वह नया विश्वनाथ मंदिर बनवाते हैं लेकिन धर्मप्राण काशी उसी मंदिर पर प्राण देती आ रही है जिसे करपात्री जी ने भ्रष्ट कहा था।


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