समझें तो रंगों के बोल
पर्व हमारी उत्सवधर्मिता ही नहीं, प्रकृति में हमारी गहरी पहुंच का भी पता देते हैं। होली का त्योहार आता ही ऐसे समय है जब प्रकृति रंगों से सराबोर होती है और हर रंग एक
पर्व हमारी उत्सवधर्मिता ही नहीं, प्रकृति में हमारी गहरी पहुंच का भी पता देते हैं। होली का त्योहार आता ही ऐसे समय है जब प्रकृति रंगों से सराबोर होती है और हर रंग एक ख्ाास सुगंध भी बिखेर रहा होता है। त्योहार शायद हमें यही बताने आता है कि इसे महसूस करो, समझो और दुनिया की विविधता को वैसे ही स्वीकार करके विराट बन जाओ, जैसे प्रकृति ने सभी रंगों को स्वीकार कर दिव्यता ग्रहण कर ली है।
सर्वत्र व्याप्त शून्यता से सिरजनहार अकुला उठे। अकुलाहट कौतूहल में तब्दील हो गई। कल्पना ने पहली बार अंगडाई ली। आडी-तिरछी रेखाएं उभर आईं। आकृति का अवतरण हुआ। रूप था, पर श्रीहीन। उत्कंठा कुलबुलाने लगी - ऐसा कैसे चलेगा? आसपास माटी के अलावा कुछ भी न था, सो वे उसे ही चुटकी में लेकर भरने लगे। रूप रंग का साथ पाकर विहंस उठा और सिरजनहार उमंग से। रंग एवं उमंग के योग से पर्वत, पौधे, पशु-पक्षी और अनगिनत कृतियों का संयोग हुआ। प्रसन्न रंगों से जीवन का राग उमगने लगा। रंग सृष्टि से बतियाने लगे। सृष्टि रंगों में गुनगुना उठी। एकरसता के घटाटोप से संसार मुक्त हो उठा। स्रष्टा के रंग-संधान पर कविता भौंचक्की रह गई -
केशव कहि न जाय का कहिए
देखत तव रचना विचित्र अति
समुझि मनहि मन रहिए
रंग सत्य है। रंग आनंद है। रंग ही सौंदर्य है। रंग-विमुखता अंधकार है, सो आदिदेव भोले शंकर ने अपनी देह को श्मशान-धूलि से रंग लिया। परित्यक्त रंग त्रिपुंड बन गया। विष्णु को प्रजा की अनंत कामनाओं के संरक्षण का भावबोध था। ऐसे में उन्हें अनंत का नीला रंग ही रूपानुकूल लगा। ब्रह्मा सबसे सयाने थे। सयानों को सयाना रूप-रंग ही शोभा देता है।
जीव-अजीव, जितने रूप उतने रंग। रंग नाम बन गया, पहचान बन गया। हरे रंग से आच्छादित पृथ्वी को 'हरि कहा गया। हरिताभ के कारण दूर्वा का 'हरिद्रा नाम पडा। नीलता से नीम 'नीलिका हुई, पीतता से सोनजूही 'पीतिका हो गई। कपोत, सारस, चकोर जैसे पक्षियों को रक्तिमवर्णी आंखों के लिए 'रक्ताक्ष की संज्ञा मिली।
दरअसल रंग ही पदार्थ की अस्मिता है। रंगहीन स्वरूप की कैसी प्रतिष्ठा, उसकी कल्पना भी किस तरह की जा सकती है?
रंग-रूप का शृंगार है और रूप रंग का आधार। रंग का अर्थ प्रभाव भी है। चित्त के आकर्षण, विकर्षण और तटस्थ वृत्ति का निमित्त रूप लावण्य है और रूप-लावण्य में रंग की भागीदारी सर्वोपरि है। स्वप्नों में रंग ही उन्मीलित होते हैं। ये रंग हमें दूसरे लोकों के संसार से घुमा लाते हैं। ये रंग भविष्य का दूत बनकर हमें इशारा करते हैं - हम स्वयं अपने प्रयत्नों से जीवन का लक्ष्य प्राप्त करें। उत्कर्ष के संघर्ष में जीवन को गतिमान बनाएं। रंग जीवन है! जीवन में राग है - रंजयति इति राग:। रंगानुभूति की यात्रा रसानुभूति तक पहुंचाती है। दृश्य भी श्रव्य के चरम तक पहुंचाता है। अपने मौलिक भाव में राग दृश्य है, रंग है। संगीतशास्त्र के विद्वानों ने कहा है - रागों में रंग की उपस्थिति है। राग बेला के अनुशासन में बांधे गए हैं। हर बेला का पता दृश्यों, रंगों से ही चलता है।
रंगों के बिना किसी का कारज नहीं बनता। हर प्रसंग की परिणति मन के लिए उच्चाटन सिद्ध होती है। गोपियां व्याकुल होकर गोकुल के रंगनाथ कन्हाई को ढूंढती फिरती हैं। उद्धव के ज्ञान से भी समाधान नहीं मिलता। रंग जीवन का स्वभाव जो है। बगैर रंग के कोई रह कहां सकता है! जैसे वह प्राण हो। आकाश जाने कब से अपनी रिक्तता की क्षतिपूर्ति सुबह-शाम सुनहले रंग से करता आ रहा है। शाम ढलते ही रंग-बिरंगे सितारे लाइट शो से उसका मनोरंजन करने चले आते हैं। बहुरंगी मेघ कलाबाजी दिखाकर धरतीपुत्रों को कभी चौंकाते हैं, कभी हंसाते हैं। रंग भोर होते ही चहचहा उठते हैं। उडद-मूंग आंगन में सुखाने फैलाया नहीं कि कुछ रंग फिर चले आते हैं और अपने हिस्से का दाना रंगीन चोंच में दबाकर फुर्र से उड जाते हैं।
कवियों की मान्यता है- फूल नहीं, रंग बोलते हैं। बगिये से जो हो आए हैं, वे जानते हैं कि फूलों की बहुरंगी बोली में कितनी सरसता है। बगिया प्रकारांतर से रंगों की बस्ती है, जहां हर रंग अपनी धुन में मगन है। सब कुछ संयोजित है। इसी रंग संयोजना से अंत:प्रेरित होकर मधुमक्खियां खिंची चली आती हैं। संयोजन के समर्थक अतिथियों को ये फूल मकरंद की सौगात देना कैसे भूल जाएं। वही सौगात छत्तों में शहद बन जाती है।
रंग कहां नहीं हैं? रंग रसोईघर के मसालों में भरे हैं। फलों और साग-भाजियों में उनकी गहरी पैठ है। परिधानों से तो जैसे वे लिपट ही गए हैं। रंगमुक्त केवल दो चीजें हैं- हवा और पानी। इनका रंग बदलना विपदा का संकेत है। कदाचित प्रकृति ने इन्हें मानव-जीवन की सरलता के लिए रंग-मोह से विलग रखा है। अब प्राकृतिक की जगह रासायनिक रंग ले लें, तो इसमें भला प्रकृति का क्या दोष?
रंगों का जन्म आंखों में होता है। यह दृष्टि और द्युति का खेल है। द्युति की अनुपस्थिति में रंग-सिद्धि नहीं होती। दृष्टि-दोष से रंग बेमतलब हो जाता है। प्रकाशन ही रंग का प्रमाण है। सूर्योपनिषद में कहा गया है- सूर्य ही हमारे नेत्र हैं। सूर्य आंखों के अधिष्ठातृ देवता हैं। सूर्य विश्व के समस्त रूपों के केंद्र हैं। रंग और आकृतियां सूर्य से उत्पन्न और प्रकाशित होती हैं। एक सूर्य ही हैं, जो समस्त विश्व के प्राणरूप हैं। इसके समान अन्य कोई भी जीवनी-शक्ति नहीं है -
विश्वरूपं हरिणं जातवेदसं
परायणं ज्योतिरेकं तपंतम्।
सहस्र रश्मि: शतधार वत्तमान
प्रजानामुदयत्येष सूर्य:। (प्रश्नोपनिषद)
आंख भी सूर्य की उदारता से रूप की प्रकाशक ज्योति है। इसलिए ज्योति की उपासना में नेत्र और सूर्य को 'स्व: स्वरूप समझना चाहिए। स्व: यानी परमेश्वर के विराट स्वरूप का प्रदर्शन करने वाली सत्ता। तैत्तरीयोपनिषद के पंचम अनुवाक में वर्णित है - सुवेरित्यसौ लोक: अर्थात स्व: ही स्वर्ग लोक है। सूर्य-प्रकाश जहां-जहां फैलता है, वहां-वहां नई स्फूर्ति, नई चेतना का भाव जागता है। उत्थापन प्राण का प्रमुख गुण है। इसलिए सूर्य ही प्राण हैं। प्राण के पांच रूपों की बात ग्रंथों में मानी जाती है और सभी अलग-अलग रंगों की भी चर्चा है। प्राणों में रंग हैं। सूर्योपासना में प्राणों की अभ्यर्थना स्वयं निहित है। क्योंकि प्राण ही सत-असत एवं उससे भी श्रेष्ठ अमृतमय परमात्मा है।
ओल्ड टेस्टामेंट में लाल, नीले, बैंगनी और सफेद रंगों को क्रमश: अग्नि, वायु, जल व पृथ्वी तथा इन सब रंगों के समूह को ईश्वर का प्रतीक निरूपित किया गया है। रंगों की शुद्धता में भावों की सूचना मिलती है। प्रत्येक रंग का एक विशिष्ट भाव होता है, जो मानसिक भावनाओं के उद्वेलन का कारण भी है। पीला अनुराग, उत्तेजना, काम, क्रोध, संकट का रंग है। नीले रंग से धैर्य, असीम विस्तार एवं प्रशांति का बोध होता है। काले रंग को अंधकार, निद्रा, अज्ञान, विरोध, भय का प्रेरक माना गया है। हरा रंग प्रकृति एवं हरियाली का प्रतीक है। बैंगनी शान, महत्ता, सत्यान्वेष, उच्चतम मर्यादा को दृढ बनाता है। नारंगी रंग पीले और लाल रंग का योग है। फलत: यह दोनों रंगों के गुणों का भी योग है। सफेद रंग एकता, सत्यता, शुद्धता एवं उज्ज्वलता का रंग है। गुलाबी रंग कोमलता और सुंदरता का इशारा करता है।
रंगों का मिलन रंगोत्सव बन जाता है। चाहे-अनचाहे, जाने-अनजाने हर कोई रंगों से भींज उठता है। चेहरे ऐसे रंगारंग हो जाते हैं कि वय, वर्ग, वर्ण, संप्रदाय और धर्म की सारी पहचान गुम हो जाती है। यह अवस्था केवल छोटी-छोटी सीमित पहचानों के गुम होने ही नहीं, सभी रंगों के प्रति गहन स्वीकार भाव भी है। सभी रंगों के स्वीकार में ही जीवन और सृष्टि के प्रति स्वीकार का भाव है। यह गहन स्वीकार भाव ही किसी को विराट का अनुभव कराता है और तब सीमित पहचानों का खो जाना स्वाभाविक है। यह वह अवस्था है जिसमें विषाद जल कर भस्मीभूत हो जाता है। अध्यात्म में यही अवस्था आप्तकाम की है।
जयप्रकाश मानस