सूपा
शादी के बाद लड़कियों के लिए ससुराल ही सब कुछ होता है। किसी कारण लड़की मायके लौट आए तो इसे अच्छा नहीं समझा जाता। वह ऐसी ज़्िाम्मेदारी होती है, जिसे दुनियादारी के लिए भले ही निभाया जाए, मगर मन से नहीं निभाया जा पाता।
शादी के बाद लडकियों के लिए ससुराल ही सब कुछ होता है। किसी कारण लडकी मायके लौट आए तो इसे अच्छा नहीं समझा जाता। वह ऐसी ज्िाम्मेदारी होती है, जिसे दुनियादारी के लिए भले ही निभाया जाए, मगर मन से नहीं निभाया जा पाता।
सूपा बिलख-बिलख कर रो रही है। टूट गई हैै। लगता है, कभी संभल न सकेगी, संभले भी कैसे? संभालने वाली मां ही जो नहीं रही। आज मां की अर्थी उठी है। उसके लिए सबसे भयावह दिन है। पच्चीस साल की उम्र में पचासों दुख झेले हैं उसने, लेकिन यह तो अति है। वज्रपात भी इससे कम होता होगा।
इसी मां के सहारे वह पति की प्रताडऩा की भी परवाह नहीं करती थी। घर से निकाल देने पर मां के पास चली आती थी। मां के आंचल से बढ कर भला किस वृक्ष की छांव हो सकती है! यही आंचल तो उसे चिंतामुक्त किए रहता था। अब तो निपट अकेली तपते रेगिस्तान में खडी वह किस ओर जाए, यही कठिन प्रश्न है।
सूपा को पिता का सुख नहीं मिल सका। जन्म के कुछ दिन बाद ही वह परलोक सिधार गए थे। मां की वह तीसरी जीवित संतान थी। जीवित इसलिए कि उसकी दो बहनें जन्म लेते ही भगवान को प्यारी हो गई थीं। किसी अनुभवी स्त्री ने उसकी मां को बताया कि बच्चे को पैदा होते ही सूप में लिटाने से उसकी आयु बढ जाती है। सूप में लेटने से सूपा का जीवन तो बचा ही, मां को नाम खोजने की झंझट से भी मुक्ति मिल गई। सरल सा नाम था 'सूपा!
सबसे छोटी होने की वजह से सूपा मां की लाडली थी। अलमस्त, बिंदास, दिन भर चहकती रहती। सूपा का शांत और उदास चेहरा किसी ने देखा ही नहीं था। उसके दोनों भाइयों की शादी हो गई थी। शादी तो सूपा की भी हो गई थी, लेकिन न होने जैसी ही थी। भाई उसे ससुराल पहुंचाते। हफ्ते भर रहती, फिर वापस मां के पास पहुंच जाती। हर क्षण स्वतंत्र विचरण करने वाली हिरणी को बंधन रास न आता। न वहां कोई मां की तरह खाने-पीने की मनुहार करता और न गांव में घूमने-फिरने की छूट होती। पति भी गाली देकर बात करता। सास-ननद दिन भर काम में झोंके रहतीं। जरा-सी ग्ालती पर बातें सुनने को मिलतीं। यहां तो मां का प्यार उसके रोम-रोम को पुलकित करता रहता है। खाने की थाली आगे आने पर भी अगर सूपा कह दे कि दाल नहीं खाऊंगी, आलू की सब्ज्ाी खानी है तो मां बना देती।
ससुराल से लौटने पर मां ऊपर से क्रोध दिखाती, 'आ गई फिर? ससुराल में दिल ही नहीं लगता। जब देखो, मुंह उठाए आ जाती है। ये भी नहीं सोचती कि लोग क्या कहेंगे।
'गांव-देश कुछ भी कहे मां, पर तुम्हारे बिना मन नहीं लगता। अब मैं वहां नहीं जाऊंगी। मां सूपा को कलेजे से लगा कर कहती, 'अब मैं खुद ही नहीं भेजूंगी वहां, हफ्ते भर में ही सूखकर कांटा हो गई मेरी बेटी। कैसे दरिद्र हैं, बहू को रखना भी नहीं जानते।
हफ्ते भर का वियोग आंसू बनकर बह जाता, तब मां उठती और ससुराल से आई बेटी के लिए रसोई तैयार करती, मनुहार कर उसे खिलाती। मन में सैकडों बार प्रतिज्ञा करती कि अब नहीं भेजूंगी, दरवाज्ो पर आकर नाक रगडेंगे, तो भी नहीं भेजूंगी। लेकिन कुछ दिन बाद ही बेटे-बहू समझाने लगते, 'मां शादी के बाद सूपा को ससुराल में ही रहना चाहिए। कब तक यहां रहेगी? मां के मन में आता कि पूछे, 'तुम्हारी बहुओं ने मेरी कितनी सुनी? िकस्मत की धनी हैं कि तुम्हारे जैसे पति मिले। मेरी सूपा की िकस्मत ख्ाराब है, तभी तो पति भी सताने वाला मिला। फिर तैयारी शुरू होती सूपा को ससुराल भेजने की। भाई पहुंचा कर आ जाते थे। ससुराल वालों का तो साफ कहना होता कि आना है तो आ जाओ, कायदे-कानून से रहो। न रह सको तो चलती बनो। ससुराल वालों का क्या जाता है। सूपा के न रहने से क्या पति को कोई कमी है? सूपा अंतिम तो है नहीं। एक छोड हज्ाार ब्याह कर लेगा। सोचना तो सूपा को है, जो लडकी है।
ब्याहता का दूसरा ब्याह इतना आसान नहीं! चारों तरफ हंसी होगी। अंधेर... घोर अंधेर! लडकी का एक से मन नहीं भरा। क्या खाकर जन्म दिया था इसकी मां ने! मान-अपमान दरकिनार कर भी दें तो कौन राजी होगा ब्याह को? कुंवारा तो कभी मिलेगा नहीं। कोई मिला भी तो क्या भरोसा कि वहां भी सूपा रह पाए। क्या पता, कब सूपा के पांव पति के आंगन में ख्ाुद टिक जाएं या ससुराल वालों की मति सुधर जाए और वे उसे प्यार से रोक लें!
इस तरह साल में दो-तीन बार हफ्ते-दस दिन ससुराल में रहने वाली बिटिया बडे आदर के साथ मां के पास रहती थी। शादी के कई वर्षों बाद तक सूपा की गोद हरी न हुई तो मां को चिंता होने लगी। अगली बार सूपा ससुराल से लौटकर आई तो खाना खाते समय उसका जी मिचलाता था, उल्टियां शुरू हो जाती थीं। अनुभवी मां जान गई कि सूपा के पैर भारी हैं। उसी दिन से सूपा की आवभगत बढ गई। मां चुन-चुनकर उसकी पसंद का खाना बनातीं।
ईष्र्यालु भाभियों को दाल में कुछ काला लगा। बोलीं, 'लडकी के लक्षण ही ख्ाराब थे। अरे, अब तक बच्चा न हो सका तो अब कैसे होगा! कौन जाने घर की इज्ज्ात पर ही बट्टा लगा आई हो। सूपा की मां से न सुना गया। बहुओं को ऐसी घुडकी लगाई कि फिर दोनों सामने ऐसी बातें करने की हिम्मत न कर सकीं। दबी ज्ाुबान से पूरे गांव को सूपा के कारनामों के िकस्से तो सुना ही आईं।
नौ महीने बाद सूपा ने अंग्रेज जैसे गोरे बेटे को जन्म दिया। भाभियों की बातों को बल मिला। माता-पिता सांवले हैं तो बेटा गोरा कैसे हो गया? अब क्या प्रमाण चाहिए?
सूपा की मां ने कहा, 'मैंने सूपा को नौ महीने कच्चा नारियल खिलाया। सौंफ और मिसरी खिलाई, धनिये का पानी पिलाया, तब कहीं जाकर ऐसा नाती मिला है। मां बडे यत्न से सूपा पर लगे कलंक को धोने का प्रयास करती, मगर सबकी नज्ारों में सूपा कुलटा साबित हो चुकी थी। बच्चे का नाक-नक्श गांव के किस लडके से मिल रहा है, इसकी खोजबीन शुरू हो गई।
उम्र की मार कहें या बेटी पर लगी तोहमतें, सूपा की मां धीरे-धीरे बीमारी की तरफ बढ रही थीं। सूपा भी पहले जैसी चहकती नज्ार नहीं आती थी। उसकी बुराई करने वालों में उसकी सहेलियां भी थीं। सरल हृदय की सूपा की समझ में यह बात नहीं आती थी कि कैसे सामने मीठी-मीठी बातें करके लोग पेट का हाल उगलवा लेते हैं और फिर उसमें नमक-मिर्च लगा कर दूसरों को चाव से परोसते हैं। लोगों का दिल कितना नीच हो सकता है, उसे नहीं पता था। मस्त रहने वाली सूपा पहली बार दुनियादारी जान पाई थी। मां मालिश करते वक्त बच्चे को गोद में लेकर कहती, 'क्या मेरे लाल, तूने सूपा को कहीं का नहीं छोडा। जन्मते ही इतनी बातें सुनवा रहा है। फिर उदास और दुखी सूपा से कहतीं, 'चिंता मत करना बेटी, सबके मुंह बंद हो जाएंगे। किसी के कहने से कुछ नहीं होता। जब अपना तन-मन साफ है तो काहे का डर। मैं हूं न दुनिया से निपटने के लिए। तुम पर आंच न आने दूंगी। मन ही मन वह भगवान से प्रार्थना करतीं। कुछ ही समय बाद बूढी मां अपनी बेटी को अकेला छोड स्वर्ग सिधार गई। क्रिया-कर्म के बाद गांव के बडे-बूढों के कहने पर सूपा की ज्िाम्मेदारी दोनों भाइयों ने अपने कंधे पर ली। तय हुआ कि सूपा पंद्रह दिन बडे भाई और पंद्रह दिन छोटे भाई के यहां रहेगी।
बडी भाभी गर्म मिज्ााज की थी। सूपा पहले भी उन्हें फूटी आंखों नहीं सुहाती थी। लोक-लाज के डर से वह पंद्रह दिन सूपा को घर में रखती ज्ारूर थी, लेकिन नौकरानी की हैसियत से। घर की साफ-सफाई का सारा काम उन्हीं दिनों में निकाला जाता, जब सूपा वहां होती। बडी भाभी के यहां उसे पेट भर खाना भी नहीं मिलता था। तीन-चार महीने का बच्चा दिन भर बिस्तर पर पडा दूध और मां की गोद के लिए बिलखता रहता, सूपा को फुर्सत न मिलती। रोते बच्चे को उठा कर छाती से लगाने की कोशिश करती तो भाभी की कर्कश आवाज्ा डरा देती, 'ख्ाबरदार जो काम बीच में छोडकर उठी तो! न जाने किसका पाप ढो रही है..., मरता भी नहीं ये। सुनकर सूपा का कलेजा फट जाता, लेकिन चुपचाप बच्चे को लिटाकर काम शुरू कर देती और मन ही मन बेटे को लंबी उम्र के लिए इतना आशीष देती कि भाभी की बद्दुआ फीकी पड जाए। छोटी भाभी खाना तो पेट भर देती थीं, लेकिन काम लेने और बोलने में वो भी कम न थीं।
एक दिन सूपा घर के पास ही आम के पेड के नीचे बेटे को लेकर उदास बैठी थी। गांव के प्रधान की मां उधर से जा रही थी। सूपा को बैठे देख वह भी थोडी देर पास बैठ गईं और प्यार से उसका हाल-चाल पूछने लगीं। सूपा कई दिनों बाद अपनत्व पा रही थी। फफक-फफक कर रो पडी और भाभियों के बर्ताव के बारे में प्रधान की मां को बता दिया। अब तक सूपा को चरित्रहीन समझने वाली प्रधान की मां का दिल पसीज गया। मन ही मन उन्होंने सूपा की मदद करने की ठान ली। आख्िार लडकी है गांव की, माना कि कुछ ऊंच-नीच हुई भी हो तो क्या? हमें कुछ तो मदद करनी होगी, भाभियां तो भरपेट खाना भी नहीं खिला पातीं इसे। अपने प्रधान बेटे से कहकर उन्होंने सूपा की समस्या के लिए पंचायत बुलवा ली। सूपा हैरान थी। वह नहीं चाहती थी कि भाइयों का अपमान हो, लेकिन बात हाथ से निकल चुकी थी। पंचायत ने निर्णय सुनाया कि सूपा को एक महीने बडा भाई राशन-पानी दे और दूसरे महीने छोटा भाई। साथ ही एक कोठरी भी मिले, जहां वह बना-खा सके। पंचायत के निर्णय को उसके दोनों भाइयों ने मान तो लिया, लेकिन सूपा से चिढऩे लगे। भाभियों को खुलकर भडास निकालने का मौका मिल गया। बडी भाभी हाथ मटका-मटकाकर भाई से कह रही थी, 'इतना किया-धरा, फिर भी पूरे गांव में हमारी हंसी करवा रही है। जिस पत्तल में खाया, उसी में छेद कर दिया! छोटी भाभी ने भी सुर मिलाया, 'इसने तो घर को बदनाम करने की ठान ही ली है। इतनी ख्ाुराक है तो पेट भरने के लिए अपने घर में ही रहती न! क्यों आई छाती पर मूंग दलने?
सूपा सब सुन रही थी। उसे दुख यह था कि उसके दोनों भाई पत्नी की हां में हां मिला रहे हैं। पंचायत की व्यवस्था के अनुरूप सूपा को दोनों भाइयों से महीने भर का राशन मिलने लगा, लेकिन वह अकसर कम पडता। आगे यह इतना कम होने लगा कि पंद्रह दिन पर सिमट गया। फिर भी सूपा संतुष्ट थी। उसे भरोसा था कि मेहनत से कमा-खा लेगी। समस्या दूसरी थी। उसकी भाभियां अब उसके बारे में रोज्ा नई-नई कहानी गढऩे लगीं। जैसे आज रात सूपा की कोठरी में कोई आया था, औरत-आदमी के बतियाने की आवाज्ा आ रही थी, कोठरी से किसी की हंसी सुनाई दे रही थी...।
सूपा गांव वालों को सफाई दे-देकर थक जाती। वह जानना चाहती थी कि जब कोठरी से आवाज्ा आती है तो भाभियां उसी समय क्यों नहीं दरवाज्ाा खुलवातीं? दलील में दम था, लेकिन कोई सुनने को तैयार नहीं था।
....एक दिन सुबह सूपा की कोठरी के आगे भीड लगी थी। सूपा बेटे को लेकर भाग गई थी। बडी भाभी चिल्ला-चिल्लाकर कह रही थी, 'ऐसी कुलटा थी, बिरादरी में मुंह दिखाने लायक नहीं छोडा। भाग गई प्रेमी के साथ। 'अरे, इसीलिए तो पंचायत बुलाई गई। पूरा ध्यान रखा गया कि उसे तकलीफ न हो, पर उसने किसी के बारे में न सोचा।
जितने लोग उतनी बातें....। स्थितियां जानते हुए भी लोग अनजान थे। सोच-विचार पर स्वयं को ही दोषी पाते, इसलिए सारा दोष सूपा के माथे जडऩा ही ठीक था।
पता नहीं, सूपा कहां और किसके साथ गई। अगर सचमुच अपने प्रेमी के साथ गई हो तो ईश्वर करे, उसका प्रेमी गांव वालों और भाई-भाभी जैसा न निकले...।
डॉ.आशा पांडे