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एक कतरा आसमान

सामाजिक-आर्थिक जीवन का फर्क विवाहित जीवन में भी दूरी पैदा कर सकता है। खूबसूरत, बुद्धिमान, लेकिन साधारण परिवार की लड़की शादी के बाद बड़ी बिजनेस फेमिली में जाती है तो उसका वजूद किस तरह बिखरता है, इसी का बयान करती है यह कहानी।

By Edited By: Published: Mon, 03 Mar 2014 03:15 PM (IST)Updated: Mon, 03 Mar 2014 03:15 PM (IST)
एक कतरा आसमान

आज का ये सो कॉल्ड खास दिन.., महक को वहशत सी हो रही है सोचकर, अंतस की परतों में जमा लावा कुछ इस तरह पिघलने लगा है, जैसे बर्फ के टुकडे डीफ्रॉस्ट किए जाते हों- माइक्रोवेव में रख कर सधे हुए तापमान में, जैसे हिम का विगलन छद्म माहौल में, मन की जकडन भी उसी भांति टूटती है। हृदय की तरंगें खुल कर उमग नहीं पातीं। जोर-जोर से गाना, नाचना, जोश में चीखना, कूदना, फांदना उनके आभिजात्य पर कलंक जैसा है। सब कुछ एक कुशल अभिनय के तहत घटता है। उसे बस अभिनय करना है अच्छी पत्नी, अच्छी हाउस कीपर होने का।

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आज के दिन बच्चों को ऊटी बोर्डिग से कोयंबटूर बुला लिया जाता है-उनके पास। पति उस पर प्यार जताने का एहसान करते हैं। कभी-कभी मायके के रिश्तेदारों को इंप्रेस करने के लिए या एनिवर्सरी जैसे मौके पर प्यार दिखाना जरूरी जो होता है। एक थोपी गई औरत कुछ लमहों के लिए सिंड्रेला बन जाती है। खुशी के चंद पल भीख की तरह उसकी झोली में फेंक दिए जाते हैं। पैबंदों से भरा अस्तित्व मेकओवर के लिए विवश होता है। ब्यूटिशियन का अपॉइंटमेंट, डिजाइनर ड्रेसेज, सौंदर्य प्रसाधनों का ढेर.., ऐसे मौकों पर प्रेजेंटेबल होना कितना जरूरी है। मन रह-रह कर अतीत की तरफ भाग रहा है। वो खुशनुमा समय.., हिरनी की तरह कुलांचे भरने वाली लडकी संसार की हर माया से परे। कोई दुख, संताप, उलझन नहीं। साधारण मध्यवर्गीय परिवार में रहने वाली लडकी के सरल सपने, साधारण आकांक्षाएं.., मगर इनके बीच उसका असाधारण रंग-रूप भला छिपाए कहां छिपता! जो बिरादरी या समाज उसकी पहचान के साथ जुडे थे, वहां शालीनता का दायरा बडा सुस्पष्ट-सुपरिभाषित था। स्त्री के लिए अपने पंख पसारना या ऊंचाइयों के ख्वाब देखना मानो पाप ही है! पर उसने हिमाकत की! कॉलेज के कल्चरल फेस्ट में अपना नाम लिखाकर और कार्यक्रम की सूत्रधार बनकर। एक नई दुनिया का दरवाजा उसके लिए खुला। साथ-साथ हंसते-कूदते लडके-लडकियां, गीत-संगीत और ढेर सारी खिलखिलाहटें! हंसी उसे उकसाती थी- ओढी हुई उदासीनता को उखाड फेंकने के लिए, दिल की गांठें खोल कर कहकहे लगाने के लिए। एक तरफ खूंटी से बंधी उम्मीदें तो दूसरी ओर नए दिलकश मंजर..।

उसने फिर हिमाकत की! इस बार ब्यूटी कॉन्टेस्ट में हिस्सा लिया। क्या खबर थी कि जिंदगी ही पलट जाएगी यहां। उसकी सहेली ऋतिका ने उसे कैटवॉक करना सिखाया। कुछ नपे-तुले अंग्रेजी के जुमले नफासत के साथ परोसना भी उसी ने सिखाया। फिर वह निर्णायक दिन आया! कॉलेज के ट्रस्टी का बेटा उसे एक बार देख कर देखता ही रह गया। महक को कॉलेज क्वीन का ताज मिला तो उस सिरफिरे ट्रस्टी के बेटे देवेश की छुट्टी ही हो गई! आनन-फानन विवाह का प्रस्ताव घर पहुंच गया।

इतने बडे घर से रिश्ता आया। पिता और भाई तो फूले नहीं समाए, मगर मां को खटका सा हुआ। क्या उनकी सरल-सीधी बेटी निभा पाएगी उस भिन्न परिवेश में? कारोबार की बारीकियां, उखाड-पछाड और दांव-पेंच! लेकिन उनकी बात कोई सुनने को तैयार न था। खुद उनकी बेटी पर उस लडके ने जादू जो कर दिया था।

भाग्य और उसका विधान..! धान के बिरवे को मूल से उखाड कर अनजान धरती पर रोपा जाता है। पुन: अपनी जडों को पसारना नई माटी में पैठ बनाना उसके लिए सहज नहीं था। महक सूडो-कल्चर के भंवर में उलझती चली गई। जेठानियां-देवरानियां ऊंचे घरानों से ताल्लुक रखती थीं। नई साडियां, गहने, शॉपिंग और पार्लर.., उनके जीने का फलसफा इन्हीं पर अटका था। उनके लिए वह हिकारत का विषय थी। जीना और भी दूभर हो गया। जब कुनबा अपना व्यापार समेटकर बंगलुरू से कोयंबटूर ले आया, मां-बाप, भाई-बहन, सब बंगलुरू छूट गए।

वैसे भी उनकी साम‌र्थ्य कहां थी महंगे उपहार लेकर बेटी के ससुराल जाने की। बेटी ही कभी-कभार मायके आती और महंगे गिफ्ट्स भी लाती ससुराल वालों की नजर बचा कर। पर अब वह भी बंद हो गया। कोयंबटूर में उनकी नई कपडा-मिल, नए असाइनमेंट्स और बिजनेस मीटिंग्स के बीच उसका देवेश कहीं गुम हो गया था। नामी होटल्स की बिजनेस डील्स, पार्टियां.., शराब के साथ शबाब का भी साथ.., धीरे-धीरे देवेश उससे दूर हो रहा था। पैसे में शायद कुछ ऐसा ही नशा होता है।

होश आया तो बहुत देर हो चुकी थी। महक की गोद में जुडवां बेटे डाल कर देवेश जा चुका था। उसने हर जिम्मेदारी से पल्ला झाड लिया। वह तो पहले ही अकेली थी। अब और भी अकेली हो गई। बच्चों का मुंह देखकर जीती थी। उनकी मुस्कान में अपना सुख तलाशने की कोशिश करती, लेकिन फिर एक दिन यह सुख भी छिन गया। बेटों को बोर्डिग भेज दिया गया।

..अतीत से बाहर निकली तो ठंडी सांस ली महक ने। तभी देवेश की आवाज सुनाई दी, सॉरी डियर, बच्चे तो नहीं आ सकेंगे, स्कूल में कोई बडा इवेंट हो रहा है शायद, प्रिंसिपल ने अनुमति नहीं दी..। सुन कर पहले तो चौंकी, फिर सपाट नजरों से उसे देखती रही। देवेश कुछ असहज सा हो गया था। संभलकर बोला, एक और बुरी ख्ाबर है। एक इंपॉर्टेट क्लाइंट के साथ मीटिंग रखनी पडी..। यह सब अचानक ही हुआ.. आगे वह नहीं बोला। पति को उसके असमंजस से उबारते हुए महक ने कहा, इट्स ओके.. नो प्रॉब्लम देवेश मन ही मन उछल गया, जैसे किसी बवाल से पिंड छूटा हो! पर प्रकट में कहा, बट यू कैरी ऑन, मैं भाभियों से कहकर शाम की पार्टी फिक्स करवा दूंगा..।

इसकी कोई जरूरत नहीं है., महक के स्वर में ग्ाजब की दृढता थी। कहीं न कहीं एक अवहेलना भी थी! इतनी ऐंठ! कोई और दिन होता तो वह दिखा देता..। लेकिन आज महक का जन्मदिन था। बहरहाल वह उदार बनते हुए बोला, तो जाओ, घूमो, शॉपिंग करो, मौज करो.., कहते हुए उसने नोटों की मोटी गड्डी निकाली और सामने रखकर चला गया। महक का मन किया कि गड्डी को पटक दे उसके मुंह पर, लेकिन कुछ सोचते हुए उसने पैसे पर्स में रख लिए। जिसके एहसास तक गिरवी रख लिए गए हों, कुछ तो मुआवजे में मिले उसे!

उसने एक हल्के रंग की साडी पहनी और मोगरे का गजरा वेणी में उलझा लिया। नैचरल शेड की लिपस्टिक लगा कर आईने के सामने खडी हुई तो खुद को भी पहचान न सकी। शीशे में झलक रहा अक्स यादों को छेड गया। उन दिनों में ले गया उसे, जब सादगी भी गजब ढाती थी! महक ने ठंडी सांस ली और ड्राइवर को बुला भेजा। कुछ ही पलों में उसकी चमचमाती मर्सडीज हवा से बातें कर रही थी। ड्राइवर, पेरूर मंदिर ले लो उसने कहा और भागती हुई राहों को तकने लगी। सहसा कानफोडू हॉर्न के साथ मंदिर का भव्य स्तूप दिखाई दिया। पेरूर मंदिर का अप्रतिम शिल्प उसे सदा ही लुभाता रहा। ईश-प्रतिमाओं से तादात्म्य बनाकर वह वहां चित्रलिखित सी खडी थी। मानो देव-प्रांगण की नृत्यांगना मृदंग पर चोट पडने की प्रतीक्षा में हो। हवा में गहराती हुई सुगंधियां, अंतस को भेदने लगी थीं।

महक..! अपने नाम का संबोधन सुनकर चौंकी। सिर को झटका। यह कैसा भ्रम था! किंतु वह संबोधन, स्वर-लहरियों में तैरकर फिर कानों से टकराया..। नहीं ये कोई भ्रम नहीं था! मुडकर देखा तो ऋतिका को मुस्कराते हुए वहां खडा पाया। उत्तेजना में उसकी चीख ही निकल पडती, पर किसी तरह खुद को संभाला। नि:शब्द हाथ में हाथ लिए दोनों सखियों ने मंदिर की परिक्रमा की। भगवान के दर्शन पहले ही कर लिए थे, सो सीधे बाहर निकल आई।

ऋतु महक ने चुप्पी तोडते हुए पूछा, तू यहां घूमने आई है? सुनते ही ऋतिका हंस पडी, तुझे क्या लगता है मोनी? महक चुप रही। बरसों बाद किसी ने उसे मोनी पुकारा था। भला लग रहा था उसे यह संबोधन। यू डफर! पराए शहर में कोई औरत अकेले घूमने आएगी? वह फिर हंसी और अपनी विस्मित सखी से बोली, मेरे हज्बैंड का यहीं ट्रांस्फर हो गया है..आर्मी में हैं न! आज हमारी एनिवर्सरी थी। ये ऑफिस टूर पर बाहर गए हैं। मैंने सोचा, अकेले सेलिब्रेशन तो हो नहीं सकता। क्यों न मंदिर जाकर हाथ जोड आऊं। ओह, महक ने अस्फुट स्वर में कहा, हैपी एनिवर्सरी! बदले में ऋतु ने उसे प्यार से थपथपाया। तभी अचानक ऋतिका को कुछ याद आया। रोमांच के उद्वेग में वह पूछ बैठी, अरे आज तो तेरा भी बर्थडे है न? महक ने मुस्कराकर हामी भरी। न जाने क्यों ऋतु को लगा कि उस मुस्कान में नामालूम सी कोई तडप थी! उसने सहज होने का प्रयत्न किया, चलो मिल कर जन्मदिन मनाते हैं।

पर कहां चलें?

चलो, पहले कार में तो बैठें।

शानदार कार की सीट पर बैठते हुए ऋतु को हीनता-बोध ने जकड लिया। महक का विवाह क्या हुआ, उनके सारे संपर्क सूत्र दरक गए। ससुराल वाले बहुत रसूखदार हैं, ऐसा सभी दोस्तों ने सुना था। फिर तो मोनी से कभी बात तक न हुई। मोनी उसे इस तरह मिलेगी, सोचा भी नहीं था। गाडी दौड रही थी अनजान दिशाओं में। ऋतिका का मन कहीं और भाग रहा था। ऐसे में संवाद भी बौने पड जाते हैं, कोई सेतु बनाती हैं तो बस स्मृतियां। नितांत भिन्न परिवेश में जीने वाली दो स्त्रियां कब तक साथ चल सकेंगी? न जाने महक ने ड्राइवर को क्या निर्देश दिया था.., न जाने उन्हें वह कहां लिए जा रहा था..!

तभी झटका खाकर कार रुकी और विचारों का रेला टूट गया। यह एक पॉश रोडसाइड ढाबा था। ऋतिका कुछ कहती, उससे पहले ही महक ने कहा, यहां पानी-पूरी और चाट के स्टॉल को अकसर आते-जाते देखती थी, लेकिन हमेशा साथ में देवेश की भाभी या बहनें होतीं थीं, सो हिम्मत नहीं पडती थी..। चाट-पकौडी के तीखे चटकारे, उन्हें स्टूडेंट-लाइफ की याद दिला गए। मिर्च से आंख-नाक बहने लगे थे। एक-दूसरे को देख कर, बेसाख्ता हंसी फूट पडी। हंसते-हंसते आंसू निकल आए। एक अरसे के बाद महक इतनी हंसी थी। ऋतिका चहक उठी, दैट वाज ग्रेट मोनी! तुम्हारी ये ट्रीट मैं जिंदगी भर नहीं भूलूंगी.. अब एक ट्रीट मेरी तरफ से भी..। तुम्हें मेरे घर चलना होगा। वहां हमारी बिटिया ने अपने नन्हे हाथों से केक और मफिंस बना कर रखे होंगे। ऋतु का प्यार भरा आग्रह महक ठुकरा न सकी। गाडी फिर चल पडी। लेकिन इस बार गाडी के साथ-साथ मानो मन को भी गियर लग गए थे। ऋतिका की सुंदर-सलोनी बेटी घर के दरवाजे पर ही मिली। ये है मेरी हंसा। और हंसा ये महक आंटी.. तुम्हें बताया था न! कहने की देर थी कि हंसा ने लपक कर उसके पैर छू लिए। वह गदगद हो उठी। कितने सुंदर संस्कार दिए हैं ऋतिका ने बच्ची को!

काश! अपने बच्चों को मैं भी ऐसे संस्कार दे पाती.. आभासी दुनिया के बनावटी पंजों से छुडाकर उन्हें अपने पास बुला पाती! सलीके के नाम पर छुरी-कांटे से खाना, अभिवादन में हाय एंड बाय, डाइनिंग टेबल की वह प्रेयर ओ माय गॉड, ब्लेस माय फूड.. आई ईट.. ब्लेस मी.., लेकिन उनकी जडें कहां हैं? वो परंपरा, जिसके तहत पूरा परिवार रसोई में नीचे बैठ कर खाता था। सुबह-शाम की आरती, कर्पूर की सुवास, मंत्रों की गूंज।

अरे यार, किस सोच में पड गई? ऋतु के प्रश्न ने उसकी तंद्रा को भंग कर दिया। नहीं कुछ नहीं.. महक ने सामान्य होते हुए कहा, तेरा घर और तेरी बेटी भी तेरे जैसे सुंदर हैं.. मैं तो खो सी गई इस संसार में..।

चल किसी और को बना, ऋतु ने उसे धौल जमाया। अपने भाव छिपाने को मोनी खिडकी के पास सट गई, इतनी निस्पंद कि धडकन तक सुनाई न दे। उसे अन्यमनस्क पाकर ऋतिका ने बात बदल दी, हंसा बेटा जल्दी से आंटी को स्वीट्स खिलाओ। वह खुद भी अंदर चली गई। जब तक हंसा चाय और स्नैक्स लेकर आई, महक खुद पर काबू पा चुकी थी, अरे वाह! क्या बढिया चीजें बनाई हैं! कहते हुए उसने बच्ची को समेट लिया, अब तो बार-बार आना पडेगा यहां।

यू आर मोस्ट वेलकम आंटी, हंसा के चेहरे पर ढेरों गुलाब खिल उठे.., यू नो आंटी.. ममा अपनी फ्रेंड्स के साथ हॉबी कोर्सेज चलाती हैं। आप भी उन्हें जॉइन कर लो..।

जरूर बिटिया, महक ने प्रेम से उसका हाथ दबाया। घडी की सुइयां आगे सरक गई थीं, सो वहां से निकलना पडा। दृष्टिपथ से ओझल होने तक दोनों मां-बेटी हाथ हिला कर उसे विदा कर रही थीं। घर में देवेश इंतजार में था हीरों का हार सहेजे। महक के चेहरे का गांभीर्य देखकर अचकचाया, नेक्स्ट टाइम से कोशिश रहेगी कि कोई एन्गेजमेंट न हो..।

पत्नी की आंखों को पढ न सका वह, जो कह रही थीं, थैंक्स देवेश, अकेला छोडने के लिए, थैंक्स कि आज कोई नकाब ओढना नहीं पडा.. भीड में अकेलापन ढोना नहीं पडा। नहीं बटोरी झूठी वाहवाही, दिखावटी मुबारकबाद! थैंक्स कि कम से कम आज के दिन एक कतरा आसमान मेरी मुट्ठी में था।

विनीता शुक्ला


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