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अपना समय

स्त्री का अपना कोई समय नहीं होता। वह बंटा होता है कई हिस्सों में। एक हिस्से में उसका पति और बच्चे होते हैं, दूसरे में रिश्तेदार व समाज और ढेरों जिम्मेदारियां। एक तीसरा हिस्सा भी होता है, जो उसका हो सकता है, पर तभी, जब वह चाहे। चाहना उसे खुद

By Edited By: Published: Mon, 29 Feb 2016 03:45 PM (IST)Updated: Mon, 29 Feb 2016 03:45 PM (IST)
अपना समय

स्त्री का अपना कोई समय नहीं होता। वह बंटा होता है कई हिस्सों में। एक हिस्से में उसका पति और बच्चे होते हैं, दूसरे में रिश्तेदार व समाज और ढेरों जिम्मेदारियां। एक तीसरा हिस्सा भी होता है, जो उसका हो सकता है, पर तभी, जब वह चाहे। चाहना उसे खुद ही होगा।

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नव वर्ष का पहला दिन भी उसके लिए अन्य दिनों से अलग नहीं था। पति और बच्चों से रस्म अदायगी के तौर पर हैप्पी न्यू ईयर कहा था और बस...। पति दोस्तों को मेसेज करने में जुट गए और बच्चे दोस्तों को फोन करके बधाइयां देने लगे थे।

लंच के बाद वह बाहर निकली और धूप में बैठ गई। धूप सीधी चेहरे पर न लगे, इसलिए शॉल को मुंह पर ढांप लिया था उसने...। अचानक गेट खुलने की आवाज से चैतन्य हुई। देखा तो अजिता और भारती जी थीं। दोनों महाविद्यालय में व्याख्याता के पद पर कार्यरत थीं। वह खुशी से चिहुंक गई, 'अरे, आप...!'

'देखिए... नए वर्ष में हमने आपको याद किया... आज का दिन आपके नाम....,' अजिता ने हंसकर कहा था।

'चलिए... आप लोगों ने मेरा दिन खास कर दिया...,' वह भी उत्साह से बोली थी। यह तो अच्छा हुआ कि उसने शाम के नाश्ते में मुंगौडिय़ों के लिए दाल पीसकर रख दी थी। सिर्फ उन्हें तलना बाकी था। कॉफी के साथ मुंंगौडिय़ों का नाश्ता इनके लिए ठीक रहेगा...।

दोनों कॉलेज से ही लौट रही थीं। क्रिसमस और नए वर्ष की वजह से कॉलेज में छुट्टियों जैसा ही माहौल था। छात्राओं की उपस्थिति न के बराबर थी। भारती और अजिता से अपनी दोस्ती लालिमा को अकसर अचंभित करती थी। वे दोनों थीं कॉलेज में प्रोफेसर और वह सामान्य गृहिणी। भारती तो पति के दोस्त की पत्नी थी, लेकिन अजिता से परिचय भारती के माध्यम से ही हुआ।

भारती हमेशा कहती थीं, 'आपसे बातें करके मन हलका हो जाता है... आप जैसी समझ वाली स्त्रियां मुझे आसपास नहीं दिखतीं...., इसीलिए तो चली आती हूं आपके पास, यह सुनकर लालिमा खुशी से चमक जाती।

दोनों देर तक बैठी गप्पें मारती रहीं। जब गईं तो एक सूनी सी कचोट छोड गईं लालिमा के मन में। बातों ही बातों में अजिता ने कह दिया कि इतना पढ-लिख कर भी आपने घर में बैठ कर ठीक नहीं किया।

यही तो दुखती रग थी लालिमा की। डबल एमए, बीएड और लॉ की डिग्री होल्डर है वह और घर पर बैठी है। कुछ वर्ष पहले यह बात इतनी नहीं सालती थी या शायद इस पर ध्यान नहीं जाता था। ससुराल में संयुक्त परिवार और सबसे छोटी बहू होने की जिम्मेदारियां निभाईं। फिर दो बच्चों का पालन-पोषण और पढाई-लिखाई में व्यस्त रही। हालांकि लॉ की डिग्री उसने शादी के बाद ही हासिल की थी। मगर इसके लिए उसे अपने सात महीने के बच्चे यीशु को मां के पास छोडऩा पडा था। लखनऊ विश्वविद्यालय से लॉ की परीक्षाएं दी थीं। ससुराल के इतने भरे-पूरे घर में भी कोई नहीं था, जो उससे कहता कि एग्जैम्स के लिए बच्चे को मायके में छोडऩे की क्या जरूरत है। उसके रुटीन के कार्य भी बने रहे, परीक्षाओं के लिए कोई अतिरिक्त सहूलियत उसे नहीं मिल सकी।

यीशु और स्नेहा के बडे होने के बाद उसने एक प्रतिष्ठित स्कूल के नए ब्रांच में अर्जी डाल दी थी। उसकी नियुक्ति भी हो गई। कितना अच्छा लगता था। सुबह सात से डेढ बजे का समय कब बीत जाता, पता भी नहीं चलता। सुबह जल्दी उठने की उसे आदत थी। अपने बच्चों के साथ बडे भैया के बच्चों के लंच बॉक्स भी तैयार करती। मां-बाबूजी को सुबह की चाय देकर स्कूल जाती, इसके बावजूद सबके मुंह बिगडे रहते। सास रूठी रहतीं तो जिठानियां किसी न किसी बात पर तानें कस देतीं, 'कमी किस बात की है, जो चंद पैसों की खातिर ये पढाने चली जाती हैं। अरे ये सब चोचले हैं घर की जिम्मेदारियों से भागने के...। पति कहते तो कुछ नहीं, मगर भाव-भंगिमा उनकी भी कुछ ऐसी रहती मानो मेरा पढाना उन्हें पसंद न आ रहा हो। कोई परेशानी शेयर करती तो सुनने को मिलता, 'और करो नौकरी? यही सब होगा....। मानो घर में रहने वाली स्त्रियों के साथ कोई परेशानी ही नहीं आती हो।

रोज-रोज की किचकिच उससे बर्दाश्त नहीं हुई। एक दिन चुपचाप इस्तीफा दिया और घर आ गई। प्रधानाचार्य और फादर ने समझाया भी कि अच्छी तरह सोच-समझ लो, अभी घर की जिम्मेदारियां नजर आ रही हैं और इन्हीं का दबाव पीछे हटने को मजबूर कर रहा है। कल हो सकता है, अपने फैसले पर पछताना पडे। आज नौकरी छोडे 15 साल हो गए। उस वक्त दी गई स्कूल प्रशासन की सलाह उसे आज याद आ रही है। घर में किसी को कोई फर्क नहीं पडा था। किसी ने नहीं पूछा कि आखिर अच्छी-भली नौकरी उसने क्यों छोडी। वह एक बार फिर अपनी घरेलू जिंदगी में मसरूफ होती गई। सुबह उठती तो कब घर के कामों में रात हो जाती, उसे पता ही नहीं चल पाता।

अब तो बच्चे बडे हो गए। पति ने भी अलग घर बनवा लिया। पूरा एक वर्ष अपने नए घर को मनपसंद ढंग से सजाने में ही व्यस्त रही। इसके अलावा इतने बडे परिवार में कभी किसी की सगाई, शादी, मुंडन, कर्ण-छेदन, बर्थ डे पार्टी जैसे कार्यक्रम चलते ही रहते। कभी शॉपिंग तो कभी आयोजनों में व्यस्त रहती। कभी कोई उसके घर आमंत्रित होता तो कभी वह किसी के घर जाती। अपने बारे में सोचने की भी फुर्सत कहां थी। दिन सरपट यूं ही दौडे जा रहे थे....।

एक दौर था, जब बिना किताबों के उसे नींद ही नहीं आती थी। हर वर्ष शहर में पुस्तक मेला लगता था और वह मनपसंद लेखकों की पुस्तकेें खरीदती रहती। एक अच्छी सी पर्सनल लाइब्रेरी बनाने की इच्छा थी, मगर यह संभव ही नहीं हो पाया। अब पिछले तीन वर्ष से पुस्तक मेले में भी नहीं जा पाती। जब भी कहीं फंसती है, हर बार संकल्प लेती है, ड्राइविंग सीखेगी, मगर यह काम भी टलता चला जाता है। अब बच्चे बाहर हैं, उनके कामों से मुक्त है, मगर फिर भी समय नहीं मिलता। पति का अपना बिजनेस है। घर के ही ग्राउंड फ्लोर पर उनका ऑफिस है। दिन भर कोई न कोई मिलने आता रहता है और चूल्हे पर चाय की केतली चढी रहती है। लखनऊ में उसकी कितनी पुरानी दोस्त हैं। सबके फोन नंबर्स भी हैं, लेकिन कभी फोन नहीं कर पाती दोस्तों को। कुल मिला कर वही संबंध आज तक बने हुए हैं, जो ससुराल पक्ष की तरफ से बने हैं।

एक दिन बेटा साथ लेकर गया तो उसे पता चला कि उसके घर से कुछ ही दूर पर एक बडा सा बुक स्टोर है। वहां यूं ही किताबें पलटने लगी तो एक किताब पर नजर पडी। नाम जाना-पहचाना सा लगा तो पन्ने पलटे। सचमुच वह उसकी सहपाठी सुरभि ही थी। उसने झट से पुस्तक खरीद ली थी। साधारण सी सुरभि फोटो में बेहद प्यारी लग रही थी। परिचय पढा तो पता चला कि उसके दो कथा संग्रह आ चुके थे, जिन्हें पाठकों और समीक्षकों की सराहना मिली है। कतिपय पुरस्कार भी प्राप्त हुए हैं। युवा लेखिकाओं में उसका सम्मानजनक स्थान है।

खुशी, अवसाद, ईष्र्या के मिले-जुले भाव दिमाग्ा में तैरने लगे। उसे कॉलेज के दिन याद आ गए। उसने बहुत प्रयत्न से एक कहानी लिखी थी। कॉमन रूम में सभी सहेलियां उसे पढ रही थीं। सुरभि भी थी वहां, उसने कहानी की सबसे ज्य़ादा प्रशंसा की। फिर उसे समझाया, 'लालिमा, लिखना मत छोडऩा। तुम बहुत अच्छा लिखती हो। वह सुरभि की बात से शरमा सी गई, मगर तब वह यह नहीं समझ पाई कि किसी दिन सुरभि इतनी बडी लेखिका बन जाएगी। उसने धीरे-धीरे खुद को लेखिका के तौर पर विकसित किया है। एक वह है, अपनी सारी शिक्षा और लेखन चूल्हे में झोंक कर खुश है। हालांकि उसने अपनी घर-गृहस्थी को प्यार से संभाला-संजोया है और उसे इस बात का संतोष भी है कि उसने अपने परिवार को किसी चीज की कमी नहीं होने दी। कामकाजी स्त्रियां भी तो यह सब करती हैं। क्या नौकरी करने से स्त्री की घर की जिम्मेदारियां कम हो जाती हैं? अजिता भी तो अकेली रहती हैं। पति की नौकरी मुंबई में है। उनके जुडवा बच्चे हैं। न जाने कैसे अकेले इतना सब मैनेज कर लेती हैं। वह घर पर रहती है, तो भी घरेलू कार्यों के लिए एक हेल्पर तो चाहिए। अजिता खुद ड्राइव करती हैं। बच्चों का स्कूल, बाजार के काम, बैंकिंग, बिलिंग....जैसे सारे काम वह अकेले करती है। दूसरी ओर वह....? वह क्या करती है पूरे दिन? एकाएक उसके दिमाग्ा में जैसे कोई फिल्म चलने लगी हो। पूरी दिनचर्या उसकी आंखों के आगे तैरने लगी। सोचने लगी, दिन भर में वह कौन सा ऐसा काम करती है, जिसमें उसे खुशी और संतुष्टि मिलती हो।

जब बच्चे छोटे थे, उनके छोटे-बडे काम करके उसे खुशी मिलती थी। उनकी भोली-मासूम आंखों में अपने होने की सार्थकता को पहचान पाती थी वह। अब तो बच्चे भी अपना आकाश नापने निकल पडे हैं। लेकिन सबको आगे बढाने की उसकी इच्छा ने कहीं उसे ही दूर छिटका दिया है। पिछले कितने ही समय से उसे महसूस होता रहा है मानो पति और बच्चों ने उसे फॉरग्रांटेड ले लिया है। उसे लगने लगा है मानो उसका अस्तित्व ही कहीं खो गया है। वह सिर्फ मां और पत्नी बन कर रह गई है। उसकी इच्छाओं, सपनों से किसी को कोई सरोकार नहीं। वह मन ही मन अपनी अधूरी इच्छाओं की सूची बनाने लगी। उन कामों के बारे में सोचने लगी, जो करना चाहती थी और नहीं कर सकी।

नौकरी नहीं की-समय नहीं मिला।

लेखन नहीं किया-समय नहीं मिला।

गाडी चलाना नहीं सीखा-समय नहीं मिला,

मनपसंद फिल्में नहीं देखीं, मनपसंद

किताबें नहीं पढीं-समय ही नहीं मिला।

तो फिर यह आखिर गया कहां? वह ऐसा क्या महत्वपूर्ण कार्य कर रही थी कि समय ही नहीं मिला! अगर वह इतनी ही व्यस्त थी तो उसे संतुष्टि होनी चाहिए कि उसने समय का सदुपयोग किया, उसे पति और बच्चों के हित में खर्च किया! एक स्त्री को जीवन में क्या चाहिए? उसने 24 घंटे सबके लिए किया, फिर इतने बेहतरीन समय-प्रबंधन में कहां चूक हुई कि वह अपने लिए ही समय निकालना भूल गई! इसमें ग्ालती किसकी है? पति की या घर वालों की? बच्चों या सिर्फ उसकी? अगर वह स्वयं अपनी कद्र नहीं करना चाहती तो दूसरा कोई क्यों उसका सम्मान करेगा? अगर वह स्वयं अपने लिए कुछ नहीं करना चाहती तो बाकी लोग उसकी इच्छाओं के बारे में भला क्यों सोचें? चाहती तो क्या नौकरी नहीं कर सकती थी? हजारों स्त्रियां घर-बाहर संतुलन बिठा कर चलती हैं। किताबें पढऩे के लिए भी उसे किसी खास समय की दरकार क्यों होती? आखिर इसी समय में उसने घर को सजाया, शॉपिंग की, इवेंट्स-आयोजनों में गई, रिश्तेदारी-नातेदारी निभाई, सिर्फ यही भूल गई कि अपने प्रति भी उसकी कोई जिम्मेदारी है। उसने खुद को प्राथमिकता में रखा ही नहीं। जब खुद को इंसान सबसे पीछे रखने लगे तो कोई दूसरा कैसे उसे आगे ले जा सकता है? यही वजह है कि आज उसे एक वैक्यूम सा नजर आ रहा है जिंदगी में। अगर वह परवरिश और अन्य जिम्मेदारियों को संभालते हुए नौकरी करती रहती या नौकरी न करते हुए भी अपनी इच्छाएं पूरी करती, अपने शौक फिर से जगाती, ड्राइविंग सीखती, पुस्तकेें पढती, लेखन की अपनी आदत को दोबारा शुरू करती तो शायद उसे थोडी सी संतुष्टि होती कि उसने सबके प्रति न्याय किया, साथ ही अपने प्रति भी न्याय कर पाई....।

सपना सिंह


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