जी हां, मैं श्रोता हूं
अच्छा वक्ता हर कोई बनना चाहता है, लेकिन इसके लिए जो चीज सबसे जरूरी है, वह है अच्छा श्रोता बनना। मुश्किल यह है श्रोता पहले बनना पड़ता है और बहुत दिनों तक बने रहना पड़ता है। फिर वक्ता बनने के बाद भी पता यह चलता है कि बेहतर होता, श्रोता बनने की साधना ही कर ली होती।
सुनने की क्रिया श्रवण है। जो श्रवण करे वह श्रोता। रामायण में एक जगह कहा गया है - सुनि समुझहिं जन मुदित मन मच्जहिं अति अनुराग।
लहहिं चारि फल अछत तनु साधु समाज प्रयाग॥ यानी जो मनुष्य इस संत समाज की वाणी को मन से सुनता और समझता है, वह इस शरीर के रहते ही धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष चारों फल पा जाता है। लेकिन यहां स्थिति कुछ और है। आम तौर पर लोगों को यह कहते सुना जाता है कि वे किसी की सुन नहीं सकते। उनका खून खौल उठता है। बेटा बाप की नहीं सुनता। किरायेदार मालिक मकान की नहीं सुनता। बाबू अधिकारी की नहीं सुनता। सास-बहू एक दूसरे की नहीं सुनतीं। नेता जनता की नहीं सुनता। स्थिति बडी विकट है। आज सुनना बेजरूरत होता जा रहा है। यूं कहें कि अब श्रोताओं की कमी हो गई है। श्रोता ढूंढने पडते हैं।
जरूरत पडने पर श्रोता खरीदने का रिवाज भी है। खरीदने से मन माफिक श्रोता मिल जाते हैं। ऐसे श्रोता पूरी तरह ट्रेंड होते हैं। ये श्रोता मौका पडने पर जय-जयकार के नारे लगाते और तालियां पीटते हैं। चुनाव के समय आम सभाओं में इस प्रकार के श्रोता बहुतायत में देखे जा सकते हैं। जुटाए गए श्रोताओं से सभा में रौनक आ जाती है।
आज दुनिया मतलबपरस्त हो गई है। जरूरत पडने पर सुन लेने का रिवाज है। नेता वोटों की सुनता है और जनता नोटों की। ऐसी स्थिति में श्रोता होना भी आसान नहीं रहा।
लेकिन मैं श्रोता हूं। बेशक श्रोता हूं।
मुझमें वह साध है जो एक श्रोता में होनी चाहिए। जो साध ले वह श्रोता हो सकता है। यह कार्य बडे धैर्य का है। जो धैर्य खो देता है वह श्रोता नहीं हो सकता। नेता हो जाता है। नेता वक्ता होता है। वह सुनता है केवल नेता होने के लिए। नेता होते ही वह श्रोता नहीं रह जाता। जनता चीखती रहती है, उनके कान पर जूं तक नहीं रेंगती। जनता की गुहार पर वे कान नहीं धरते। कान धरते भी हैं तो दिखाने के लिए। एक कान से सुना दूसरे से निकाल दिया। आप भी खुश, वे भी खुश। श्रवण की यह विधि बहुप्रचलित है।
मैंने पहले बताया कि नेता वक्ता होता है। वह अपने वक्तव्यों में झूठे आश्वासनों की ऐसी घुट्टी पिलाता है कि जनता के हाथों से वोट टपक ही जाते हैं। सुधार की उम्मीद में उसके हिस्से आता है पांच साल का लंबा इंतजार। अकसर श्रोता को ऐसी ही कठिन स्थितियों से गुजरना पडता है। बावजूद इसके मैं श्रोता हूं। श्रोता होने के लिए दो बातें अति आवश्यक हैं। पहली और महत्वपूर्ण आवश्कता है धैर्य की। वह मेरे पास है। अभी दो सप्ताह पूर्व की बात है। मुझे एक रिश्तेदार के साथ दूसरे शहर जाना पडा। मामला लडकी की शादी का था। जिन लडके वालों के यहां हम गए, वे तनिक भी घास नहीं डाल रहे थे। बल्कि किसी कुटिल आतंकवादी की तरह हमारी सभ्यता का लगातार अतिक्रमण किए जा रहे थे। लडकी वालों को अकसर ऐसी स्थिति का सामना करना पडता है, सो हम भी सहते रहे और विनम्र बने रहे।
इसी बीच हमारे रिश्तेदार ने मेरा परिचय उनसे कराया। मेरा नाम सुनते ही वे चौंके तथा अपने अतिक्रमण की दुनाली मेरी ओर घुमा ली। अब मैं अकेला ही उनके निशाने पर था। वे बोले, अच्छा तो क्या आप साहित्यकार हैं? जिनके व्यंग्य वगैरह अकसर में छपते रहते हैं?
जी.., मैंने कहा। गद्गदायमान हो गया मैं। अरे वाह! आपने पहले क्यों नहीं बताया! वे शीघ्र ही आत्मसमर्पण की मुद्रा में आ गए और बोलते चले गए, धन्य हैं जो आप हमारे घर पधारे। मैंने अपने रिश्तेदार की तरफदारी करते हुए कहा, मैं तो लडकी का रिश्ता लेकर आया था..। हमारी बात पूरी होने के पूर्व ही वे बोले, अभी हम क्या किसी रिश्तेदार से कम हैं। साहित्य का रिश्ता तो सबसे ऊपर होता है।
जी हां.. जी हां.., मैं खिसिया गया। जैसे समर्पण करने वाला अपराधी ने पुलिस अधिकारी से पुरानी रिश्तेदारी की बात निकाल ली हो। मैं भी छोटी-मोटी कविताएं कर लेता हूं। आप जैसे साहित्यकार के सामने तो मैं कुछ भी नहीं। फिर भी ये कुछ रचनाएं हैं, यह कहते हुए उन्होंने अपनी पतलून की जेब से कागज के चार पुर्जे मेरे हाथ में थमा दिए। मैं हक्का-बक्का रह गया। मेरी स्थिति ठीक वैसी ही थी जैसे आत्मसमर्पण करने वाले किसी अपराधी ने रिश्वत की पुर्जी अधिकारी के हाथ में सरका दी हो।
मैंने बनावटी हंसी होंठों पर चिपका ली और पुर्जियों की तहें खोलने लगा। सभी कविताएं चार-टूक हो चुकी थीं। जेब की रगड से कागज घिस गया था। ऐसा लगता था ये रचनाएं करीब एक साल पहले वहां के स्थानीय अखबार में छपी थीं। बाकी कुछ समझ नहीं आता था। अत: पढने की असमर्थता व्यक्त की।
कोई बात नहीं, मैं ही पढकर सुनाता हूं, उन्होंने फटाक से वे पुर्जियां मेरे हाथ से छीन लीं और कविताओं का वाचन शुरू कर दिया। एक के बाद एक, वे चारों कविताओं का वाचन करते चले गए। मैंने अपने साथी रिश्तेदार पर तिरछी नजर डाली। वे आंख बंद किए हुए बैठे थे। मुझे लगा, या तो वे बेहोश हो गए होंगे या यह सोचकर निश्चिंत भाव से सो गए होंगे कि अब यहां अपनी लडकी की शादी की बात चलाना व्यर्थ है।
खैर! उन्होंने अपनी कविताओं का निर्विघ्न पाठ किया। मैं बिना धैर्य खोए श्रोता बना रहा। अंत में उन्होंने शादी की हां भी भर दी। किंतु हमारे रिश्तेदार ने अस्वीकृति स्वरूप बहाना गढा और चंपत हो गए। मैं भी बिना धैर्य खोए निकल भागा। जैसा कि मैंने पहले कहा था कि श्रोता होने के लिए दो बातें परम आवश्यक हैं - पहली धैर्य और दूसरी बेचारगी। ये दो बातें अलग-अलग होते हुए भी एक हैं? क्योंकि बेचारगी हो तो धैर्य खुद-ब-खुद आ जाता है। बेचारगी मनुष्य को धैर्यवान बनाती है। धैर्य श्रोता होने का गुण है। बेचारगी वक्ता को भी श्रोता बना देती है।
अब हमारे भोंपू पहलवान को ही लें। उन्होंने आज तक किसी की नहीं सुनी। वे अपनी पहलवानी के बल पर दूसरों को सुनाते हैं। दादागिरी करते रहते हैं। जो उनकी न सुने उसे दूसरे तरीकों से सुनाते हैं। कभी लातों से, कभी घूंसों से और कभी जूतों से! मेरा तो मानना है। एक प्रतिष्ठित वक्ता नेता की हालत उनकी श्रीमती जी के सामने किसी श्रोता सी होती है।
एक जमाना था, जब सुनि पति बचन हरषि मन माहीं की तर्ज पर पति के बचन सुनकर पत्नी का मन हर्ष से भर जाता था। आज ऐसा नहीं है। जब मैं भोंपू पहलवान के घर पहुंचा तो उनके प्रति मेरी धारणाएं पलटा खा गई। भोंपू पहलवान अपनी पत्नी के सामने किसी घिसे हुए रिकार्ड की तरह एक ही राग अलापते मिमिया रहे थे, जैसा आपका आदेश भागवान, मैं सब सुन रहा हूं। उनकी पत्नी बडबडाए जा रही थीं। वे श्रोता बने सिर हिला पा रहे थे। उनकी बेचारगी ने उन्हें श्रोता बना दिया था। किसी की न सुनने वाला, सुन रहा था!
लेकिन यहां मैं ऐसे श्रोताओं से अलग हूं तथा श्रेष्ठ हूं? क्योंकि मैं डिस्को म्यूजिक से लेकर राग तोडी तक अटूट लगन से सुन सकता हूं। मैं सद्गुरुओं की वाणी जितनी तन्मयता से सुनता हूं, उतनी ही तन्मयता से नेता के झूठे आश्वासन भी सुन सकता हूं। मैं नीरस कवि की बेरस कविता को सरस सुन सकने की साध रखता हूं। इसलिए कभी रसिक श्रोता कहलाता हूं और कभी भोली-भाली शांतिप्रिय श्रोता जनता के नाम से नवाजा जाता हूं। जी हां मैं श्रोता हूं।
और अंत में, बकौल मेरे -
नेता वक्ता सब बनें, श्रोता बने न कोय।
एक बार श्रोता बने तो काम न पूरा होय॥
राकेश सोहम