चोरी होने का सुख
अगर आपका नजरिया सकारात्मक हो तो ऐसा कुछ हो ही नहीं सकता जिसमें कुछ न कुछ भला न छिपा हो। यहां तक कि चोरी भी। कई बार आपकी जो मंशा बड़े-बड़े संत पूरी नहीं कर पाते, एक अदना चोर उसे अंजाम तक पहुंचा देता है।
चोरी से सुख का क्या संबंध! किसी के घर चोरी हो और खुशियां मनाई जाएं? लेकिन ये कलियुग है जनाब। चोरी, डाका, दलाली, घोटाले और भ्रष्टाचार ही ख्ाुशियों के कारण बने हैं। पिछले दिनों शर्मा जी के घर चोरी हुई। पडोस के लोग दुखी थे। कुछ कैश और जेवरात चोरी हुए थे। पुलिस आई। पूछताछ हुई। शर्मा जी ने अपना शक अपने पडोसी मित्रा जी पर जाहिर किया। सभी अवाक रह गए! शक के आधार पर मित्रा जी के घर की तलाशी ली गई। बात सही निकली। मित्रा जी के घर से जेवरात बरामद हुए। मित्रा जी अरेस्ट हो गए।
पुलिस जब-जब मित्रा जी की पिटाई करती, शर्मा जी बल्लियों उछलते। उनका हर्ष देखते ही बनता। मैं आश्चर्यचकित था। शर्मा जी को चोरी का दुख लेशमात्र न था।
मित्रा जी पिट-पिटाकर छूट गए और शर्मा जी के चोरी गए जेवरात भी वापस मिल गए। कई दिनों बाद पता चला कि शर्मा जी की मित्रा जी से किसी बात को लेकर खटपट चल रही थी। शर्मा जी को दुश्मनी भुनानी थी। इसलिए उन्होंने किसी तरह अपने घर के कुछ जेवर मित्रा जी के घर में रखवा दिए और स्वयं जाकर पुलिस में रिपोर्ट दर्ज करा दी। हर्र लगे न फिटकरी रंग चोखा आ जाए वाली स्टाइल में स्वयं बेदाग रहकर मित्रा जी से दुश्मनी भुना ली। इसे कहते हैं चोरी होने का सुख। हालांकि यह घटना किसी पारिवारिक सीरियल सी लगती है।
चोर और चोरी क्या है? इसके बारे में सभी जानते हैं। किंतु इनके प्रकार के बारे में गंभीरता से विचार करना होगा। चोरी के कई प्रकार होते हैं - जैसे रुपये-पैसे की चोरी, सोना-चांदी की चोरी, मासूम बच्चों की चोरी, दिल की चोरी, इंटरनेट पर चोरी और साहित्यिक चोरी। इन सभी में इंटरनेट पर चोरी एकदम आधुनिक चोरी है, जबकि दिल की चोरी पुरातन प्रकार की है। जिस प्रकार चोरी अलग-अलग प्रकार की होती है, उसी प्रकार इससे उपजे सुख के बारे में भी मान्यताएं भिन्न हैं। रुपये-पैसे और सोने-चांदी की चोरी का सुख अधिकतर मामलों में चोरों के पक्ष में जाता है। वे यह सोचकर खुश हो लेते हैं कि उन्होंने कितना लंबा हाथ मारा है।
लेकिन दिल की चोरी का मामला एकदम भिन्न है। इसमें चोर और चोरी से पीडित व्यक्ति दोनों को ही खुशी हासिल होती है। ये बात दूसरी है कि अधिकतर मामलों में चोर को पता ही नहीं चलता कि उसने किसी का दिल चुरा रखा है। पीडित भी किसी प्रकार की रिपोर्ट दर्ज नहीं कराता। बल्कि चोर से मन ही मन प्यार करने लग जाता है। और चोर चाहे तो मामला रफा-दफा हो जाता है। इस प्रकार के वाकये स्कूल-कॉलेज खुलते ही रास्ते चलते घटने लगते हैं।
अब हम चर्चा एक अलग प्रकार की चोरी के बारे में करना चाहते हैं। जिसे मैंने साहित्यिक चोरी का नाम दिया है। इसके सुख के बारे में भी विस्तार से चर्चा करना चाहूंगा। लेकिन मैं आदतन, कोई भी कार्य सीधे रास्ते नहीं करता। विषय तक हमेशा घूम-टहल कर आता हूं। मेरे पडोसी का लडका भी ऐसा ही करता है। उसके पिता समझाते हैं कि बेटा बाजार सीधे जाना और सीधे वापस आना। परंतु, वह आदत से मजबूर है। जाते समय सीधे न जाकर अपनी माशूका की गलियों से चक्कर काटता और आते समय किसी सुंदरी का पीछा करते हुए आता है।
किसी काम में किसका कितना हाथ है यह बात अपराध जगत में खोज का विषय रही है। लेकिन जब पुरुष की सफलता की बात आती है तो नारी का नाम अपने आप जुड जाता है। कहते हैं पुरुषों की सफलता में नारी का हाथ होता है। प्राचीन समय की बडी-बडी सल्तनतों का नारी मोह में उजड जाना इतिहास लिखित उदाहरण है। एक बडे रसोइये से इंटरव्यू के दौरान उसकी प्रसिद्धि और सफलता के बारे में पूछा गया तो उसने स्पष्ट किया - ऐसी सफलता में नारी का ख्ाली हाथ ही नहीं होता, वरन हाथ में बेलन भी होता है। चटपटे और लजीज खाने के पीछे कितना बडा तथ्य छिपा हुआ है।
आम उक्ति के अनुसार अपनी सफलता और साहित्य के क्षेत्र में मुझे जो कुछ भी हासिल हुआ है। उसका श्रेय भी नारी जाति को देता हूं। इधर साहित्य चोरी, नारी का हाथ और उससे प्राप्त सुख के बारे में क्या संबंध है, आपसे बताना चाहूंगा। और यह श्रेय मैं क्यों देता हूं? इसका किस्सा भी बडा ही रोचक है। मुझे यह किस्सा आपको जबरन सुना देने को मन कर रहा है। ठीक वैसे ही जैसे कोई आपसे कहे कि महोदय यदि आप बुरा न माने तो एक बात कहूं और इसके पहले कि आप उस विषय में अपनी सहमति-असहमति जाहिर करें, सामने वाला बेलगाम अपनी बात कह जाए।
खैर! बात तब की है जब मैं 20-21 वर्ष का नौजवान था। मेरा मन कविताओं में रमने लगा। कलम से कविताओं की गंगा फूटने को बेचैन थी। यह गंगा कागजों के तटबंध तोडकर पत्र-पत्रिकाओं में बह जाने को आतुर हो गई। परंतु संपादक भगीरथ साबित न हुए। जहां भी रचनाएं भेजते अपना सा मुंह लिए वापस आ जातीं। मेरी रचनाओं को हाथ में दाबे पोस्टमैन रोज-रोज घर आने लगा। इससे एक फायदा तो हुआ कि साहित्यकार में रूप में मेरी चर्चा मुहल्ले-पडोस में होने लगी। आसपास की युवतियां जो कुछ भी लिखतीं मुझे दिखाने चली आतीं। इससे मुझे कुछ चैन मिला।
इन युवतियों की मेरी सुधारी हुई रचनाएं पत्र-पत्रिकाओं में छपने लगीं। लेकिन मैं मौलिक, अप्रकाशित और अप्रसारित ही रहा।
मुझे लगा सफलता मेरी कविताओं से कूच कर गई है। और उन लेखिकाओं के कदमों में जा पडी है। अंतोगत्वा स्थानीय संपादकों को दया आ गई उन्होंने मेरी अच्छी रचनाओं को छापने में रुचि दिखाई।
इसी बीच एक मित्र के साथ एक स्थानीय कवि गोष्ठी में जाना हुआ। वैसे तो गोष्ठियों में जाना मुझे भाता नहीं, क्योंकि जो कवि वही श्रोता वाले फॉम्र्युले के तहत वहां सुनने वाले तो होते नहीं। सब अपनी-अपनी सुनाने आते हैं। इन्हीं सुनाने वालों की सूची में अपना भी नाम जुड जाता है। लेकिन, उस गोष्ठी में एक बडे समीक्षक के आने की सूचना थी तो मैंने सोचा कि चल कर मैं भी इन्हें अपना जौहर दिखा ही आऊं। वहां चौथे नंबर पर जिन स्वनामधन्य कवि ने कवितापाठ शुरू किया वे दरअसल मेरी कविता सुना रहे थे। मैं तो हक्का-बक्का समझ ही नहीं पाया कि करूं क्या। हालांकि मेरी वह कविता एक स्थानीय अखबार में छप भी चुकी थी। भला हो, उसी गोष्ठी में मौजूद अन्य कवयित्री मित्र का जिनके पास अखबार की वह प्रति थी। उन्होंने बडे साहस के साथ मेरी कविता सुना रहे कवि को टोकते हुए अखबार की वह प्रति सामने रख दी। खैर, उस दिन मैं बिना किसी प्रयास के हीरो बन गया। गोष्ठी में मौजूद समीक्षक महोदय ने भी पहली बार मेरी रचनाधर्मिता को नोटिस किया और मेरी कविताओं पर कुछ लिखने का आश्वासन भी दिया। और यहीं से सफलता का सिलसिला शुरू हुआ। धन्य है साहित्य की चोरी और धन्य है उससे प्राप्त होने वाला सुख।
राकेश सोहम