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अटल निश्चय

कभी-कभी अपनों के ही व्यवहार से इतनी उपेक्षा महसूस होने लगती है कि व्यक्ति को विवश होकर कठोर फैसला लेना पड़ता है। जिन रिश्तों की खातिर नमिता ने उम्र भर अपनी इच्छाओं को दबाए रखा, अंत में उन्हीं के खिलाफजाने का निर्णय उसने कैसे ले लिया? रिश्तों के चक्रव्यूह को तोड़ती एक कहानी।

By Edited By: Published: Thu, 03 Oct 2013 11:21 AM (IST)Updated: Thu, 03 Oct 2013 11:21 AM (IST)

नमिता के मन में आज अजीब सी शांति थी, हालांकि विचारों का झंझावात थम नहीं रहा था। जिन बच्चों के लिए उसने पूरा जीवन समर्पित कर दिया, उन्हीं ने ऐसी ठेस पहुंचाई कि आज उसे यह कठोर फैसला लेना पड रहा था। अपनी ममता के खिलाफ जाकर निर्णय लेना मां के जीवन की सबसे मुश्किल घडी होती है। वह बरामदे में पडी कुर्सी पर निढाल सी पसर गई। मुंडेर पर जाती हुई धूप की किरणें मस्त हवा के साथ गुफ्तगू कर रही थीं। प्रकृति उसे हमेशा सुकून से भर देती है..। ..मन चंचल होता है। कभी अतीत में घुमाता है तो कभी भविष्य के हसीन सपने बुनने का हौसला देता है। नमिता भी अतीत के अच्छे-बुरे पलों का हिसाब-किताब करने लगी थी..।

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माता-पिता की इकलौती संतान थी वह। मध्यवर्गीय परिवार के सभी सुख मिले थे। उसके पास अपना कमरा था, जो किताबों-खिलौनों से भरा रहता। मां की तो बहुत लाडली थी वह। जो भी मांगती, मिल जाता। सब कुछ अच्छा चल रहा था..। मगर काल को उसका सुख रास न आया। किसी शादी से लौटते हुए माता-पिता एक एक्सीडेंट के शिकार हो गए। नन्ही सी उम्र में उसका जीवन दूसरों पर निर्भर हो गया।

यह दुर्घटना उसके जीवन की दिशा को बदलने के लिए काफी थी। उसकी देखभाल के लिए चाचा किराये का घर छोड कर सपरिवार वहां आकर रहने लगे। शुरू में सब ठीक भी रहा। नमिता उन्हें अपने माता-पिता की ही तरह सम्मान देती थी। चाचा-चाची भी अपनी बच्ची की ही तरह प्यार करते थे उसे। उनके मन में संवेदनाएं थीं। मगर धीरे-धीरे समय बदला, प्यार व स्नेह पर स्वार्थ हावी होने लगा। देखते ही देखते नमिता की चीजें और खिलौने छिनने लगे और फिर उसके प्यारे से कमरे पर चचेरे भाई-बहनों का कब्जा हो गया। वह घर के सारे काम करती, रात में थक कर चूर होती तो बरामदे में ही बिस्तर बिछा कर सो जाती। ..सोते हुए उसे अकसर मां की लोरियों, किताबों-खिलौनों के सपने आते। नींद में ही कुछ आंसू भी बह निकलते। जागती तो आशा की कोई किरण उसे आश्वस्त करती। इसी आशा-निराशा के बीच वह बडी हो रही थी और फिर युवा भी हो गई। चाचा-चाची जल्द से जल्द उसकी शादी कराना चाहते थे, ताकि घर पर पूरी तरह उनका अधिकार हो सके। न जाने क्यों नमिता को लगता, पति के घर में उसे अपनी हसरतें पूरी करने का मौका मिलेगा।

..और फिर एक साधारण परिवार में उसकी शादी तय कर दी गई। ससुराल पहुंची तो एक दूसरी सच्चाई से साबका हुआ। छोटा सा किराये का घर और साथ में दो ननद और देवर। पति अमित घर में सबसे बडे थे और माता-पिता नहीं थे। इसे भी अपनी नियति मान कर नमिता ने पूरे परिवार की जिम्मेदारी उठा ली। इतना काफी था कि अमित ने हर जिम्मेदारी निभाने में उसे सहयोग दिया।

..युवावस्था में ही इतनी जिम्मेदारियों ने उसे समय से पहले समझदार बना दिया था। उसने लगभग अपनी ही उम्र की ननदों व देवर को अपने बच्चों की तरह पाला-पोसा। उनके सुख को ही अपना समझा और अपना जीवन परिवार के लिए समर्पित कर दिया।

हर स्त्री की चाह होती है कि उसका अपना एक घर हो, जिसे वह अपनी चाहत से सजाए-संवारे। लेकिन जिम्मेदारियों में यह हसरत भी कहीं दब गई। इस बीच उसका अपना परिवार भी बढा। दो बेटे हुए तो जिम्मेदारियां और बढ गई। जब तक देवर व ननदों के करियर और शादी की तैयारी करती, उसके अपने दोनों बच्चे बडे हो गए। फिर उनकी पढाई-लिखाई और शादी करते-करते नमिता पूरी तरह खाली हो गई- मन से भी व धन से भी।

पति की आमदनी इतनी नहीं थी कि अपने घर का सपना भी देख पाते। मगर तभी एक फोन ने उनके सपनों को पर दे दिए। पति के गांव से फोन आया कि वहां उनकी पुश्तैनी जमीन का बंटवारा हो रहा है। अमित आकर अपना हिस्सा ले जाएं या जमीन के बदले पैसे ले लें। अमित ने पैसा लिया और फिर थोडा लोन लेकर एक छोटा सा दो कमरों का घर ले ही लिया।

छोटा सही, मगर नमिता के लिए अपने घर का सपना पूरा होना किसी सुखद एहसास से कम न था। मन से उसे सजाया। पति-पत्नी ने सुखद अनुभूति और संतुष्टि के साथ गृहप्रवेश किया। अपने खर्च में कटौती करके नमिता ने लोन चुकाना शुरू किया। तब तक दोनों बेटों का करियर बन चुका था और उनकी शादी भी हो गई थी। पति-पत्नी के जीवन में थोडा चैन आया। जीवन शांति से गुजर रहा था कि बडे बेटे का फोन आया कि उसका ट्रांस्फर इसी शहर में हो गया है और वह भी घर में ही रहेगा। एक बेडरूम पर बेटे का हक हो गया।

बेटे-बहू के आते ही खर्च दुगना हो गया। बहू गर्भवती थी, नमिता को उसकी खास देखभाल करनी पडती थी। सोचा था, बेटा खर्च में हाथ बंटाएगा। एक-दो बार नमिता ने अप्रत्यक्ष तरीके से उससे यह बात भी कही, मगर बेटे की ओर से कोई ऐसा संकेत नहीं मिला जिससे उसे राहत मिलती। नमिता की उम्र बढ रही थी, उस पर लोन की किस्तें चुकाना भी भारी पड रहा था। बहू की देखभाल भी उसे ही करनी पडती। किस्मत उससे फिर रूठने लगी थी। अमित यूं तो चुप ही रहते थे, लेकिन बढते खर्च और बच्चों के गैर-जिम्मेदार रवैये के कारण वे भी तनाव में रहने लगे। एक दिन अचानक उन्हें हार्ट अटैक पडा। तुरंत हॉस्पिटल पहुंचाया गया, मगर वे वहां से नहीं लौटे। दवाओं और दुआओं के बावजूद जिंदगी हार गई। नमिता के जीवन में फिर से सन्नाटा पसर गया।

चौथी अवस्था में पति का वियोग नमिता के लिए असहनीय हो रहा था। वह पूरी तरह टूट चुकी थी। लेटती तो अमित के साथ बिताए हर अच्छे-बुरे पल आंखों के आगे नाचने लगते। पिता के अंतिम संस्कार में छोटा बेटा आया। जाते समय अपने परिवार को वह भी छोड गया। छह महीने बाद उसने भी अपना ट्रांस्फर इसी शहर में करा लिया। जैसे ही दो परिवारों का रहना शुरू हुआ, बहुओं के बीच तनाव और तू-तूृ-मैं-मैं भी शुरू हो गई। वह झगडा सुलझाने की कोशिश करती। मगर अकसर इस मध्यस्थता में दोनों बहुएं एक हो जातीं और सास पर ही दोषारोपण करने लगतीं। धीरे-धीरे बेटे भी उससे कटने लगे और बात-बेबात मां को ताने देना रोजमर्रा के जीवन में शामिल हो गया। बडी हसरतों के बाद बने इस छोटे से घर में नमिता धीरे-धीरे अपनों के बीच ही पराई हो रही थी। उसने चुप्पी ओढ ली..। मूक दर्शक बन कर हर चीज देखती और तटस्थ रहती। जीने का यही तरीका उसे समझ आ रहा था।

..लेकिन कभी-कभी अमित की यादें उसे बेतरह रुला जातीं। सोचती, हर कठिनाई में साथ निभाने वाला जीवनसाथी उम्र के इस पडाव पर साथ होता तो शायद यह मुश्किल सफर कुछ आसान होता। उसका अकेलापन अब उसे तनावग्रस्त करने लगा। एक दिन लेटी ही थी कि कमरे के दरवाजे पर दस्तक हुई। कौन है? नमिता ने पूछा।

मैं, आनंद.., बेटे ने जवाब दिया।

अरसे बाद वह बेटे का चेहरा देख रही थी। चलो मां की याद तो आई, सोचते हुए उसने पूछा, कहो बेटा! कैसे आना हुआ?

मां! बुरा न मानें तो आपसे कुछ कहना चाहता था। देखिए, हमारा घर छोटा है। दो ही बेडरूम हैं। एक में बडे भैया का परिवार रहता है और दूसरा बेडरूम आपके पास है। हमें रोज-रोज ड्राइंगरूम में बिस्तर लगाना पडता है। ठीक से नींद नहीं आती और समय भी खपता है। अगर आप हमें अपना कमरा दे देतीं तो आपकी बहू को थोडी सुविधा हो जाती। आप तो अकेली हैं, लॉबी में भी सो सकती हैं..।

क्या? नमिता की आवाज्ा कांपने लगी थी। ये तुम क्या कह रहे हो?

मां मैं तो केवल तुम्हें अपनी बहू को इज्जत  देने को कह रहा हूं.., आनंद ने कहा।

वह कमरा मेरा है बेटा। उसमें तुम्हारे पापा की कई यादें हैं। कम से कम वह तो मेरे पास रहने दो..! नमिता ने गुस्से  में कहा।

..इसके बाद तो घर में उसकी स्थिति और बुरी हो गई। नमिता उस अनचाहे मेहमान की तरह थी, जिससे सभी पीछा छुडाना चाहते थे। अमित को गए एक साल ही बीता कि एक दिन बडे बेटे ने कहा, मां, जीते जी घर का बंटवारा कर दो। कहीं ऐसा न हो कि आपके जाने के बाद हम लोगों में झगडा होने लगे।

बंटवारा? मैं क्यों बंटवारा करूं? किसलिए  करूं? नमिता ने आहत होकर पूछा।

क्योंकि पिता की संपत्ति में हम बच्चों का भी हक है मां.., बडे बेटे ने कहा।

हक! सिर्फ लेने का हक है तुम्हें? जब कर्ज लेकर घर बनाया था, तब तुम कहां थे? देखो बेटा, यह घर मैंने अपनी मेहनत से बनाया है, इसका बंटवारा मैं नहीं होने दूंगी।

पीडा व गुस्से से नमिता हांफने लगी। क्या ये वही बच्चे हैं, जिनके लिए अपने अरमानों का गला घोंट दिया उसने! चाहती तो अमित की सीमित आमदनी में आराम से रह सकती थी, मगर बच्चों की बेहतर शिक्षा व करियर की खातिर उसने अपनी इच्छाओं को भुला दिया और आज यही बच्चे चाहते हैं कि वह इस घर पर भी अपना हक खत्म कर दे। इस घटना के बाद तो न सिर्फ बहू-बेटे बल्कि पोते-पोतियां भी उससे दूर हो गए।

वह पूरे दिन अकेले अपने कमरे में बैठी रहती। कभी सोचती छोड दे घर और किसी आश्रम में चली जाए, लेकिन अगले ही पल सोचने लगती इतनी चाहत से बनाए इस घर को उम्र के इस पडाव पर कैसे छोड दे!

..फिर सोचा, जिंदगी भर अपनों के लिए किया, अब कुछ ऐसा करूं जिससे आत्मसंतुष्टि हो। अंतत: काफी उधेडबुन के बाद उसने एक कठोर फैसला ले लिया..। उसने बच्चों को बुलाया और कहने लगी, काफी सोचने के बाद मैंने निर्णय लिया है कि इस घर को वृद्धाश्रम बनाऊंगी। इसके लिए मैंने एक स्वयंसेवी संगठन से बात की है। इसलिए अब आप दोनों परिवारों को अपने रहने का इंतजाम अन्यत्र करना होगा। उसके फैसले ने सबको हतप्रभ कर दिया। उन्हें अपनी सीधी-सादी मां से ऐसे फैसले की उम्मीद नहीं थी.। उन्हें लगा मां सठिया गई है। उन्होंने समझाने की काफी कोशिश की, मगर वह फैसले पर अडिग रही।

..नमिता के मन में यादों का फ्लैशबैक चल रहा था कि एक आहट पर उसने चौंक कर देखा। कुछ लोग गेट पर बोर्ड लगा रहे थे। अगली ही सुबह आश्रम का उद्घाटन होना है। नमिता ने बोर्ड पर लिखी इबारत पढी, अमित वृद्धाश्रम। उसने गहरी सांस ली और अपनी आंखें मूंद लीं। शाम गहराने लगी थी। आसमान पर चांद अपनी यात्रा शुरू कर चुका था। नमिता के जीवन का भी एक नया अध्याय शुरू हो रहा था..।

उसके व अमित के सपनों का घर अब चंद बेसहारों-बेघरों का घर बनने जा रहा था..।

करुणा पांडे

करुणा पांडे


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