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ऐसी करनी कर चलो...

संसार में कर्म की प्रधानता को सामाजिक और राजनीतिक ही नहीं, धार्मिक विचार भी आदरपूर्वक स्वीकार करते हैं। विधि-व्यवस्था के साथ-साथ धार्मिक मतों और दर्शन की सभी धाराओं ने भी सत्कर्म के महत्व को स्वीकार किया है और इस पर बार-बार ज़ोर दिया है।

By Edited By: Published: Sat, 01 Aug 2015 04:06 PM (IST)Updated: Sat, 01 Aug 2015 04:06 PM (IST)

संसार में कर्म की प्रधानता को सामाजिक और राजनीतिक ही नहीं, धार्मिक विचार भी आदरपूर्वक स्वीकार करते हैं। विधि-व्यवस्था के साथ-साथ धार्मिक मतों और दर्शन की सभी धाराओं ने भी सत्कर्म के महत्व को स्वीकार किया है और इस पर बार-बार जोर दिया है। क्योंकि कर्म ही हैं जो हमें मृत्यु से अमरत्व की ओर ले जा सकते हैं।

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मनुष्य की एक ऐसी इच्छा है, जो हर देश-काल में सदैव सभी के मन में रहती है। वह इच्छा है - अमर होने की। अमर होना अर्थात न मरना। बडी अजीब बात है कि हम सभी इस शाश्वत सत्य से परिचित हैं कि जिस क्षण हमारा जन्म होता है, उसी समय एक बात अवश्य निश्चित हो जाती है कि हमारी मृत्यु होगी। वह कब, कहां, कैसे होगी... यह पूर्व निर्धारित है, किंतु किसी को पता नहीं होता। श्रीमदभगवद्गीता में श्रीकृष्ण ने कहा है-

जातस्य हि ध्रुवोर्मृत्यु। (गीता 2/23)

तात्पर्य यह कि मृत्यु जीवन का एक अटल सत्य है। फिर भी जाने क्यों मनुष्य मृत्यु से डरता है, उससे बचने के लिए हर संभव प्रयास करता है। वास्तव में जीवन और मृत्यु एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। दोनों के बीच केवल एक श्वास का अंतर है। कहा जाता है कि श्वास का आना जीवन है और श्वास का न आना मृत्यु। संसार के लिए मृत्यु भी उतनी ही आवश्यक है, जितना जीवन। इसीलिए भारतीय चिंतन में ब्रह्मा (जन्म देने वाले), विष्णु (पालन करने वाले) तथा महेश (संहार करने वाले) तीनों को महत्व दिया गया है।

प्रश्न उठता है कि मृत्यु किसकी होती है? मृत्यु तो शरीर की होती है। शरीर के भीतर रहने वाली आत्मा न बूढी होती है, न मरती है। वह तो अजर-अमर है। इसी आत्मा के संबंध में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं -

नैनं छिंदंति शस्त्राणि, नैनं दहति पावक:।

न चैनं क्लेदयंत्यापो, न शोषयति मारुत:॥

आत्मा को न तो शस्त्र काट सकते हैं, न अग्नि जला सकती है, न हवा सुखा सकती है। भारत में पुनर्जन्म के सिद्धांत पर विश्वास किया जाता है। इसके अनुसार मनुष्य का शरीर जब रोग, बुढापे आदि के कारण जर्जर हो जाता है तो आत्मा उस शरीर को त्याग कर नया शरीर ग्रहण कर लेती है। ठीक वैसे ही जैसे कोई थका हुआ मनुष्य नहाने के बाद अपने पुराने वस्त्र छोड नए पहन लेता है।

आत्मा वस्तुत: परम आत्मा का अंश है। परमात्मा से अलग होकर यह चौरासी लाख योनियों में भटकने के बाद मानव शरीर प्राप्त करती है। मानव को सभी जीवों से श्रेष्ठ कहा जाता है, क्योंकि ईश्वर ने मानव को बुद्धि के साथ-साथ विवेक भी दिया है। विवेक अर्थात उचित-अनुचित, पाप-पुण्य, सही-गलत का अंतर समझने की क्षमता। जो मनुष्य आहार, निद्रा, भय, मैथुन जैसी पशु प्रवृत्तियों में ही खोया रहता है, वह मनुष्य होकर भी पशु के स्तर पर जीता है। संसार के अधिसंख्य मनुष्य तो माया के चक्कर में फंसकर अपना जीवन बर्बाद कर लेते हैं। यह माया क्या है, इस चर्चा से अनेक पौराणिक ग्रंथ भरे पडे हैं। कबीर दास जी इस माया को महाठगिनी कहते हैं, जो जीवात्मा को सांसारिक आकर्षणों में भटकाए रखती है। यह माया मोक्षप्राप्ति अर्थात आत्मा के परमात्मा से मिलन के मार्ग की सबसे बडी अवरोधक कही गई है।

हम हर समय माया के वश में रहकर इस भौतिक संसार में खोए रहते हैं। केवल ज्ञानी मनुष्य ही इस माया की वास्तविकता को जान-समझकर इससे बच पाते हैं। कलियुग में तो भौतिकता, सांसारिकता अर्थात माया की ही प्रधानता है। आज प्रत्येक मनुष्य हर समय 'मेरा-मेरा कहता रहता है। वह सांसारिक वस्तुओं को एकत्र करने के लिए प्रयत्नशील है। दिन-रात अंधाधुंध भागदौड, गलाकाट प्रतियोगिता, स्वकेंद्रित जीवन बिताते हुए हम लोभ, लालच, स्वार्थ में डूबकर अपना जीवन बिता रहे हैं। गलत काम जैसे चोरी, ठगी, हत्या, छल, कपट आदि करने से जरा भी नहीं डरते।

प्राचीन काल में तीन प्रकार के भय से भयभीत मनुष्य गलत काम करने से हिचकता था। ये भय थे - समाज का भय, राजा का भय एवं ईश्वर का भय। ये सब मान्यताएं बीते दिनों की बात हो चुकी हैं। आज का मनुष्य समाज की परवाह नहीं करता। राजा यानी कानून का भय भी पहले जैसा नहीं रहा। ईश्वर के तो अस्तित्व पर ही कुछ लोग प्रश्न उठाने लगे हैं। तीनों प्रकार के डर से मुक्त आज का मानव निद्र्वंद्व होकर सभी बुरे कर्म कर रहा है। ऐसा निडर मनुष्य अहंकारी हो जाए, 'मैं मैं की माला जपने लगे तो आश्चर्य कैसा?

वास्तव में आज हम सबको यह विचार करने की आवश्यकता है कि मानव जीवन का लक्ष्य क्या है? हमें क्या करना चाहिए, क्या नहीं करना चाहिए? सच तो यह है कि मानव ईश्वर की सबसे सुंदर रचना है। ईश्वर ने मनुष्य के भीतर संसार के समस्त सद्गुण एवं दुर्गुण भर दिए हैं; साथ ही उसे बुद्धि के अतिरिक्त विवेक भी प्रदान किया है, ताकि वह सद्गुण अपनाकर, सत्कर्म करते हुए सद्धर्म के मार्ग पर चल सके। मानव की बुद्धि भी अन्य सभी प्राणियों की तुलना में हजारों गुणा श्रेष्ठ है। साथ ही, हमें यह भी याद रखना चाहिए कि मानव जीवन अल्पकालिक है। पानी के बुलबुले या सुबह के तारे के समान कभी भी नष्ट या अस्त हो सकता है। यह नहीं भूलना चाहिए कि हम जब इस संसार में आए थे, तो ख्ााली हाथ आए थे और जाएंगे भी ख्ााली हाथ। गीता का यह शाश्वत ज्ञान हमें सदैव स्मरण रखना चाहिए। यह संसार कर्मप्रधान है। प्रत्येक प्राणी अपने कर्मों के अनुरूप ही फल पाता है। श्री रामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदास जी ने लिखा है -

कर्म प्रधान विश्व रचि रखा।

जो जस करै सो तस फलु चाखा।

यही बात श्रीकृष्ण ने भी गीता में कही -

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन

मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा तेसङ्गोस्त्व कर्मणि।

अर्थात कर्म में ही तुझे अधिकार है, उससे उत्पन्न होने वाले फल में कदापि नहीं। कर्म का फल तेरा हेतु न हो, कर्म न करने का भी तुझे आग्रह न हो।

यदि आज हम केवल इतनी बात को समझ लें कि मृत्यु के बाद केवल कर्म ही मनुष्य के साथ जाते हैं और कुछ नहीं तो हमारा बहुत कल्याण हो जाए। हम सजग-सचेत होकर अपने कर्मों को नियंत्रित करें, पापकर्म छोड कर सत्कर्म करने लगें तो न केवल हमारा, अपितु पूरे परिवार, समाज तथा संसार का भला होगा। हम सब प्राय: दूसरों को उपदेश देने में कुशल होते हैं, पर अपने गिरेबान में झांककर नहीं देखते। अपनी बुराइयों को जानना, पहचानना और उन्हें दूर करना ही प्रत्येक मनुष्य का प्रथम कर्तव्य है। यहीं यह भी प्रश्न उठता है कि शुभ कर्म या पुण्यकर्म कौन से हैं और पापकर्म कौन से हैं तथा इनकी कसौटी क्या है? इस प्रश्न का बिलकुल सटीक उत्तर हमारे पूर्वज ऋषि-मुनियों ने दो वाक्यों में ही दे दिया है-

अष्टादश पुराणेषु व्यासस्य वचनद्वयं।

परोपकार: पुण्याय पापाय परपीडनम्॥

अर्थात अठारह पुराणों में व्यास जी ने केवल दो बातें ही कही हैं - परोपकार से पुण्य प्राप्त होता है और परपीडा से पाप। तात्पर्य यह कि हमें कुछ भी करते समय सदैव यह ध्यान रखना चाहिए कि हमारे कर्म से किसी को कोई पीडा या परेशानी न हो। हमें सदैव यह प्रयास करना चाहिए कि हम अपने कार्य या व्यवहार से किसी दुखी, पीडित, शोषित को थोडा सुख, आनंद या ख्ाुशी दे सकें।

मनुष्य कोई काम तीन प्रकार से करता है - मन से, वाणी से एवं कर्म से। मसलन किसी ने मन में विचार किया कि मैं दूसरे व्यक्ति को थप्पड मारूं, फिर उसने कहा, 'मैं तुझे थप्पड मारूंगा और अंत में थप्पड मार दिया। तीनों स्तरों पर हम यदि सत्कर्म के लिए तत्पर रहें अर्थात किसी के बारे में न बुरा सोचें, न बुरा बोलें और न ही बुरा कार्य करें, तो निश्चित रूप से हम मनुष्य होते हुए भी धर्मात्मा, महात्मा, देवता, भगवान की स्थिति में पहुंच सकते हैं।

हम एक सभ्य समाज में रहते हैं। समाज के कुछ नीति, नियम, मर्यादाएं होती हैं। यदि प्रत्येक व्यक्ति अपना-अपना कर्तव्य पूरी ईमानदारी से करने लगे तो प्रत्येक व्यक्ति को उसका अधिकार स्वत: प्राप्त हो जाए, क्योंकि एक का कर्तव्य दूसरे का अधिकार होता है। हम अपने अधिकारों के प्रति सजग हों, यह अच्छी बात है, किंतु हम अपने कर्तव्यों के प्रति उदासीन कैसे रह सकते हैं? इतिहास गवाह है कि वे ही लोग मर कर भी अमर हो गए जो आजीवन सत्कर्मों में लगे रहे, जिन्होंने मानवता की सेवा की और मानव मात्र की भलाई के लिए कुछ-न-कुछ प्रयास किया। अत: अभी भी समय है। 'जब जागो, तभी सवेरा कहावत को चरितार्थ करते हुए आज से, अभी से अपने कर्मों पर ध्यान दें। अच्छे कर्म ही हमें मरने के बाद भी अमर कर सकते हैं। कहा गया है -

जब तुम जग में आए, जग हंसा, तुम रोए।

ऐसी करनी कर चलो, तुम हंसो, जग रोए॥

इसके लिए हमें प्रतिपल ईश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए -

'असतो मा सद्गमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय, मृत्योर्मा अमृतगमय अर्थात हे प्रभु हमें असत्य से सत्य के, तमस (अंधकार) से ज्योति (प्रकाश) के तथा मृत्यु से अमरत्व के मार्ग पर ले चलिए। स्न

बात एक बार की

एक युवक जेन गुरु के पास पहुंचा और कहा, 'मैं अपनी जिंदगी से बहुत परेशान हूं, कृपया इससे निकलने का उपाय बताएं।

गुरु ने उसे पानी का एक गिलास दिया और नमक से भरा एक कटोरा। गिलास की ओर इशारा करते हुए उन्होंने कहा, 'इसमें एक मु_ी नमक डालो और उसे पीयो।

पानी का एक घूंट पीते ही युवक ने बुरा सा मुंह बनाया। गुरु मुस्कुराए और बोले, 'एक मु_ी नमक ले लो और मेरे पीछे आओ।

थोडी दूर जाकर एक ताल था। 'नमक को इस पानी में डाल दो, गुरु ने कहा। युवक ने ऐसा ही किया। 'अब झील का पानी पियो, गुरु ने फिर कहा। युवक ने पानी पिया। गुरु ने पूछा, 'क्या यह भी तुम्हें खारा लग रहा है?

'नहीं, यह तो मीठा है, युवक ने कहा।

गुरु उसका हाथ थामते हुए बोले, 'जीवन के दुख नमक की तरह हैं। मात्रा वही रहती है, लेकिन हम कितने दुख का स्वाद लेते हैं यह इस पर निर्भर है कि हम उसे किस पात्र में डाल रहे हैं। जब तुम दुखी हो तो सिर्फ इतना कर सकते हो कि खुद को बडा कर लो।

डॉ. रवि शर्मा 'मधुप'


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