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इस नजर को क्या कहें

आते-जाते पीछा करना, भद्दे कमेंट्स, टच करना या गंदे मेसेज भेजना...शायद ही कोई लड़की हो, जिसने कभी इन स्थितियों का सामना न किया हो। निर्भया कांड के बाद कानूनों में बदलाव तो हुए मगर घटनाएं कम नहीं हुईं। सुरक्षित समाज के निर्माण में कानून, पुलिस और समाज की बराबर भूमिका है। मुद्दा में इस बार स्टॉकिंग के कानूनी व सामाजिक पहलुओं के बारे में चर्चा।

By Edited By: Published: Fri, 18 Nov 2016 12:37 PM (IST)Updated: Fri, 18 Nov 2016 12:37 PM (IST)
इस नजर को क्या कहें
सीमा दिल्ली के पॉश इलाके में रहती है और एक प्रतिष्ठित संस्थान से फैशन डिजाइनिंग कोर्स कर रही है। कुछ महीने से एक सीनियर उसे परेशान कर रहा था। पहले उसने लडके को नजरअंदाज किया। फिर लडके ने फेसबुक -व्हॉट्सएप पर मेसेज भेजने शुरू किए। उसकी हरकतें बंद न हुईं तो सीमा ने घरवालों को बताया। समझाने के बावजूद लडका न माना तो आखिर में पुलिस कंप्लेंट की गई। मामला कोर्ट तक पहुंचा। लडके ने माफी मांगी, उसके घरवालों ने आश्वस्त किया कि आयंदा वह ऐसा नहीं करेगा, तब सीमा को मुक्ति मिली। 32 वर्षीय सुनंदा हर सुबह नन्हे बच्चे को साथ लेकर ऑफिस जाती थीं। बच्चे का क्रेश ऑफिस के पास था। कुछ दिनों से एक अनजान शख्स उन्हें हर जगह फॉलो कर रहा था। यह सिलसिला कई दिन चला तो वह घबरा गईं मगर उन्होंने हिम्मत से काम लिया। एक दिन जब वह किसी व्यस्त जगह पर थीं, उन्होंने उस शख्स को देखा। वह रुक गईं और उसकी शर्ट का कॉलर पकड उसे धमकाने लगीं। वह इतनी जेर से बोल रही थीं कि आसपास से गुजरते कुछ लोग रुक गए। इससे वह शख्स घबरा गया और हाथ छुडा कर ऐसा भागा कि फिर कभी नहीं दिखा। क्या है स्टॉकिंग छोटी बच्चियों, छात्राओं सहित विवाहित स्त्रियां भी स्टॉकिंग का शिकार होती हैं। यहां तक कि सुरक्षा से लैस सलेब्रिटीज को भी ऐसी घटनाओं का सामना करना पडता है। बिना किसी कारण फोन या ब्लैंक कॉल करना, गंदे मेसेज भेजना, आते-जाते पीछा करना या भद्दे कमेंट्स करना, इस तरह घूरना कि सामने वाला असहज हो जाए...ये सभी बातें स्टॉकिंग के दायरे में आती हैं। ऐसा करने वाले आपराधिक प्रवृत्ति के अलावा सामान्य या सुशिक्षित लोग भी हो सकते हैं। स्टॉकिंग एक मनोरोग भी है। ये स्टॉकर्स स्कूल-कॉलेज के रास्ते में, बसों, सार्वजनिक जगहों या घर के आसपास कहीं भी दिख सकते हैं। दिल्ली नंबर दो पर वर्ष 2015 के नेशनल क्राइम रिकॉड्र्स ब्यूरो के आंकडे बताते हैं कि स्टॉकिंग के मामलों में दिल्ली देश में दूसरे नंबर पर है। पिछले वर्ष देश में स्टॉकिंग के 6,266 मामले दर्ज हुए, जिनमें से अकेले दिल्ली में 1,124 मामले हुए थे। वर्ष 2014 में यहां ऐसे 541 मामले दर्ज हुए थे। स्टॉकिंग में पहला नंबर महाराष्ट्र का है, जहां वर्ष 2015 में 1,399 केस दर्ज हुए थे। दिल्ली से सटे एनसीआर के इलाकों में ऐसी घटनाएं लगातार बढ रही हैं। हालांकि इससे यह नतीजा नहीं निकाला जाना चाहिए कि महाराष्ट्र या दिल्ली में ही ऐसी घटनाएं हो रही हैं। देश के अन्य हिस्सों में भी ऐसा हो रहा है। चूंकि दिल्ली-मुंबई की आबादी ज्यादा है और स्त्रियां जागरूक हैं, इसलिए वे ऐसी घटनाओं की रिपोर्ट करवाती हैं। दिल्ली में वर्ष 1996 में हुए प्रियदर्शिनी मट्टू केस को लोग आज तक नहीं भूले हैं, जब लॉ स्टूडेंट प्रियदर्शिनी की उसके ही किसी सीनियर ने बेरहमी से हत्या कर दी थी। यह व्यक्ति कई सालों से उसके पीछे पडा था। क्या कहता है कानून सुप्रीम कोर्ट के एडवोकेट कुणाल मदन कहते हैं, 'भारत में स्टॉकिंग (पीछा करना) एक आपराधिक घटना है। ऐसा चाहे व्यवहार में हो या फिर फोन कॉल्स, टेक्स्ट मेसेज या ईमेल्स के जरिये, अपराध ही माना जाएगा। कोई भी ऐसा कृत्य, जिससे पीडित की मानसिक शांति भंग हो और वह भयग्रस्त हो, अपराध की श्रेणी में आता है। निर्भया कांड के बाद सरकार ने वर्मा कमीशन की सिफारिश पर दुष्कर्म संबंधी कानूनों में कई संशोधन किए। भारतीय दंड संहिता की धारा 354-डी के तहत स्टॉकिंग (पीछा करना) को अपराध की श्रेणी में रखा गया। इसमें प्रावधान है कि अगर कोई शख्स किसी लडकी का जबरन पीछा करता है, उससे कॉन्टैक्ट करने की कोशिश करता है तो उसे तीन साल तक की कैद हो सकती है। अगर वह लडकी से जबरन सोशल नेटवर्किंग साइट्स या फोन के जरिये संपर्क करने या मेसेज भेजने की कोशिश करता है तो भी उसे इस कानून के अंतर्गत सजा होगी। सोशल साइट्स के जरिये किसी पर नजर रखना, झूठे आरोप लगाना, धमकी देना, उसकी आइडेंटिटी चुराना, उसके डेटा के साथ छेडछाड, गालीगलौज, भद्दे कमेंट्स, उत्पीडऩ भी स्टॉकिंग की श्रेणी में आता है। पहले धारा 354 में व्यवस्था थी कि छेडछाड का मामला साबित होने पर दो साल की कैद की सजा या जुर्माना या दोनों ही हो सकता है। नए कानून के तहत इसमें चार उप-धाराएं ए, बी, सी और डी जोडी गईं। सभी में स्त्री सुरक्षा और सम्मान के लिए प्रावधान बनाया गया है। स्त्री की इच्छा के खिलाफ उसे सेक्सुअली टच करना, पोर्नोग्राफी देखने को उकसाना और सेक्सुअल डिमांड करना जैसे अपराध इनमें शामिल किए गए। दोषी को पहली बार तीन वर्ष और दूसरी-तीसरी बार पकडे जाने पर पांच वर्ष तक की कैद की सजा सुनाई जा सकती है।' कहां हो शिकायत कई बार स्त्रियां डरती हैं कि पुलिस में उनकी बात नहीं सुनी जाएगी या घरवालों को पता चलने पर कहीं उन्हें ही घर के बाहर न निकलने को कह दिया जाए। अगर कोई लडकी सीधे पुलिस में जाने से बचना चाहती है तो वह नेशनल कमीशन फॉर विमेन (एनसीडब्लू) में शिकायत कर सकती है। देश के किसी भी हिस्से में रहने वाली स्त्री यहां शिकायत कर सकती है। कमीशन पुलिस को यह जानकारी देगी। गंभीर मामलों में कमीशन जांच कमेटी गठित कर सकती है, जो घटनास्थल पर जाकर पूछताछ करेगी, साक्ष्य जुटाएगी और आरोपी को सम्मन भेजेगी। इस प्रक्रिया की जानकारी एनसीडब्लू की वेबसाइट पर भी उपलब्ध है। लूपहोल्स भी हैं सामाजिक कार्यकर्ता टीना शर्मा कहती हैं, 'कानूनों में कई लूपहोल्स हैं। कई बार ऐसी घटनाओं को साबित करना मुश्किल होता है। फिर मामला कैसे दर्ज हो और बिना साक्ष्य के सजा कैसे मिले? मैं एक शॉपिंग मॉल के सामने खडी होकर पति का इंतजार कर रही थी। मैंने देखा कि बाइक पर बैठे दो लडके मुझे घूर रहे हैं और कमेंट्स कर रहे हैं। मैं प्रेग्नेंट हूं। अगर एक प्रेग्नेंट स्त्री के साथ ऐसा हो सकता है तो अन्य लडकियों की स्थिति का अनुमान लगाएं। कानून को साक्ष्य चाहिए मगर रोजमर्रा की इन घटनाओं को साबित कैसे किया जाए? दरअसल कानून बहुत स्पष्ट नहीं हैं, वे आज की जरूरतों को पूरा करने में असफल हैं। इसके अलावा हमारा समाज भी संवेदनहीन होता जा रहा है। सबके सामने लडकी की चाकू से गोदकर हत्या कर दी जाती है, टीचर का मर्डर हो जाता है और लोग घायल को बचाने के बजाय विडियो बनाते हैं। ऐसे समाज में अपराध तो बढेंगे ही...।' डर से नहीं सुलझती समस्या चुप्पी किसी भी समस्या का समाधान नहीं है। अगर वाकई कोई परेशान कर रहा है, फॉलो कर रहा है, फोन या सोशल साइट्स पर भद्दे कमेंट्स कर रहा है, अगर किसी की वजह से आप हर जगह असुरक्षित महसूस करती हैं तो इसकी शिकायत करना जरूरी है। ऐसा महज अपनी सुरक्षा के लिए नहीं, अन्य लडकियों की सुरक्षा के लिए भी जरूरी है। इन प्रयासों से अगर कुछ लोगों को भी सजा मिलती है तो अपराधियों का हौसला पस्त होगा और अन्य लडकियों को यह हिम्मत मिलेगी कि वे अकेली नहीं हैं। परिवार वालों, समाज, शैक्षणिक-व्यावसायिक संस्थानों का भी दायित्व है कि घर, कॉलेज या परिसर में होने वाली ऐसी घटनाओं पर सख्त कदम उठाएं और पीडित को न्याय दिलवाएं। दूसरी ओर यह भी देखना जरूरी है कि कानूनों का नाजायज फायदा न उठाया जाए। पुलिस प्रशासन की जिम्मेदारी होनी चाहिए कि कानूनों का सही ढंग से पालन सुनिश्चित करा सके। इंदिरा राठौर

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