2095 तक मिटेगा जेंडर गैप
भारतीय संविधान के तहत सबको समानता का अधिकार है। मगर देश में स्त्री-पुरुष समानता एक सपना ही है। वल्र्ड इकोनॉमिक फोरम की रिपोर्ट के अनुसार भारत स्त्री-पुरुष की बराबरी के मामले में बहुत पीछे है। इस $फ$र्क को मिटाने में 80 साल से ज्य़ादा लग सकते हैं।
स्त्रियां कामकाजी जीवन में तेज़्ाी से आगे बढ़ रही हैं और करियर में सर्वोच्च स्थिति भी प्राप्त कर रही हैं। धीरे-धीरे पुरुष वर्चस्व कम हो रहा है...।
हाल के वर्षों में स्थितियां अनुकूल तो हुई हैं, मगर स्त्री-पुरुष समानता के लिहाज़्ा से अभी हमारा देश घुटनों चलना सीख रहा है। वल्र्ड इकोनॉमिक फोरम की हाल में ही आई रिपोर्ट के अनुसार लैंगिक समानता के लिए अभी तीन-चार पीढिय़ों को त्याग करना पड़ सकता है और इसमें अभी 81 साल लग सकते हैं। यह रिपोर्ट पिछले आठ साल के अध्ययन पर आधारित है। इन वर्षों में जेंडर गैप को पाटने की र$फ्तार बहुत धीमी रही है। हालांकि कहा जा सकता है कि अर्थव्यवस्था में स्त्रियों की भागीदारी बढ़ी और करियर में उनके लिए मौ$के 56 से बढ़ कर 60 प्रतिशत हो गए हैं।
शिक्षा एवं स्वास्थ्य में बराबरी
वल्र्ड इकोनॉमिक फोरम की रिपोर्ट कहती है कि शिक्षा एवं स्वास्थ्य के क्षेत्र में स्त्रियों ने जेंडर गैप को तेज़्ाी से कम किया है, मगर कार्यक्षेत्र में ऐसा होने में शायद यह सदी बीत जाए। डब्ल्यूईएफ के अनुसार केवल उन्हीं देशों की अर्थव्यवस्था मज़्ाबूत रह सकती है, जहां स्त्री-पुरुष की समान भागीदारी हो। कुल 142 देशों में किए गए सर्वेक्षण के बाद यह बात सामने आई कि हेल्थ में स्त्रियों की पहुंच आसान बनाने के लिए कई प्रयास किए गए हैं। लगभग आठ देशों ने अपने यहां शिक्षा व स्वास्थ्य में ग़्ौर-बराबरी को पूरी तरह ख़्ात्म कर दिया है। इनमें ब्राज़्ाील, फ्रांस, नामीबिया और फिलीपींस शामिल हैं। 35 देशों ने स्वास्थ्य क्षेत्र में जेंडर गैप को ख़्ात्म किया है, जबकि 25 देशों में शिक्षा में स्त्रियां बराबर की स्थिति तक पहुंची हैं।
राजनीतिक क्षेत्र में पहुंच कम
भारत सहित विश्व के तमाम देशों में स्त्रियों की राजनीतिक भागीदारी अभी बहुत कम दिख रही है। महज़्ा आइसलैंड और फिनलैंड में इस मामले में $फ$र्क 60 प्रतिशत तक कम हुआ है। यह स्थिति तब है, जब कई देशों में स्त्री प्रमुख भी हैं। यदि सचमुच हर क्षेत्र में समानता चाहिए तो पहले स्त्रियों की राजनीतिक भागीदारी को बढ़ाना होगा। रिपोर्ट कहती है कि निर्णायक भूमिका में आने में स्त्रियों को अभी लंबा व$क्त लगेगा। अभी केवल 21 प्रतिशत स्त्रियां ही इस स्थिति तक पहुंची हैं। हाल के वर्षों में उन्होंने अपनी भागीदारी को तेज़्ा किया है, मगर अभी बहुत काम करने की ज़्ारूरत हैै।
ग़्ाौरतलब है कि विकसित देशों के मु$काबले छोटे देशों में स्त्रियां राजनीतिक क्षेत्र में अधिक आगे हैं। रिपोर्ट के अनुसार, आठ-नौ वर्षों में विश्व में स्त्री सांसदों की संख्या 26 प्रतिशत बढ़ी है, जबकि लगभग 50 प्रतिशत स्त्रियां आज मंत्री पद भी संभाल रही हैं।
लैंगिक समानता के लिहाज़्ा से उत्तरी यूरोप के पांच देश- डेनमार्क, फिनलैंड, आइसलैंड, नार्वे और स्वीडन सबसे आगे हैं। टॉप 10 में निकारगुआ, रुआंडा, आयरलैंड, फिलीपींस और बेल्जियम हैं। पिछले कुछ समय से यूएस में भी स्थिति तेज़्ाी से सुधरी है और $िफलहाल वह 20वें नंबर पर है।
जेंडर गैप के मामले में ब्राज़्ाील 71वें, रूस 75वें और चीन 87वें स्थान पर है।
भारत इतना पीछे क्यों
इस लिहाज़्ा से भारत बहुत पीछे कहा जाएगा। यूं तो हम मंगल ग्रह तक पहुंच चुके हैं, मगर स्त्रियों के मामले में आम भारतीय सोच अभी उनके कपड़ों की बहस से आगे नहीं बढ़ पा रही है। आए दिन ज़्िाम्मेदार लोगों के बयान पढऩे को मिलते हैं, जो दुष्कर्म के लिए छोटे कपड़ों को दोषी मानते हैं। ऐसे ही लोग मानते हैं कि स्त्रियों को देर शाम घर से बाहर नहीं निकलना चाहिए, उन्हें घर के बाहर जाकर नौकरी नहीं करनी चाहिए या फिर ऐसी नौकरियां करनी चाहिए, जिनमें वे घर-बच्चों की देखभाल अच्छी तरह कर सकें।
कोई संदेह नहीं कि स्त्री-पुरुष समानता के मामले में भारत अभी बहुत पीछे है। रिपोर्ट के मुताबिक 142 देशों में भारत 114वें पायदान पर है। समानता का सपना तब तक सच नहीं होगा, जब तक स्त्री को इंसान नहीं समझा जाएगा और उसे सामंती मूल्यों की जकडऩ से आज़्ााद नहीं किया जाएगा। स्वयं स्त्री को भी मानसिक ग़्ाुलामी से मुक्त होना होगा।
इंदिरा राठौर