श्रीशैलम बांध लेता है यह छंद मुक्त
द्वादश ज्योतिर्लिगों में एक मल्लिकार्जुन स्वामी के लिए विशेष रूप से सुविख्यात श्रीशैलम में घूमने-देखने के लिए इतना कुछ है कि कितना भी घूम कर मन न भरे। चाहे जैसे भी जाएं रास्ते में पड़ने वाले पहाड़ और जंगल प्रकृति के रचे ऐसे मुक्त छंद से लगते हैं, जो आपको बस बांध ही लें। आइए चलें इष्ट देव सांकृत्यायन के साथ इस सफर पर।
श्रीशैलम के लिए हमें तिरुपति से ट्रेन पकडनी थी। नियत समय पर स्टेशन पहुंचे तो पता चला कि ट्रेन तो छह घंटे देर है। जो ट्रेन सुबह 9 बजे जानी थी, वह 3 बजे जाएगी। काफी देर भटकने के बाद दुबारा स्टेशन पहुंचने पर मालूम हुआ कि अब रात 8 बजे जाएगी। आखिर तय हुआ कि रिजर्वेशन कैंसिल करा बस पकडी जाए। हालांकि पूरे 400 किमी बस से जाना सजा से कम नहीं था। बस स्टैंड गए तो पता चला कि लग्जरी बस 6 बजे जाएगी। उसमें हमें आसानी से मनचाही दस सीटें मिल गई और बस समय से निकल पडी। कुछ ही दिनों पहले क्रिसमस बीता था और नववर्ष के जश्रन् का माहौल जारी था। इसकी गवाही रास्ते भर पडने वाले कस्बों-शहरों से लेकर गांव तक दे रहे थे।
चलते समय एक अनजाना भय आंध्र प्रदेश में नक्सली आतंक का भी था। लेकिन, जैसे-जैसे आगे बढते गए, भय कम होता गया। रात करीब दस बजे वेल्लूर पहुंच कर मैंने एक सहयात्री से पूछ ही लिया। पता चला कि यह बस जिन-जिन रास्तों से जाएगी, उधर नक्सलियों का असर नहीं है। रात साढे तीन बजे हम मरकापुर पहुंचे। यहां से श्रीशैलम की दूरी करीब 80 किलोमीटर है, लेकिन बस फिलहाल इसके आगे नहीं जा सकती थी। इसकी वजह श्रीशैलम वाइल्ड लाइफ सैंक्चुरी है। सैंक्चुरी में सुबह 6 बजे तक प्रवेश वर्जित है।
प्रकृति एक कविता
सुबह 6 बजते ही बस चल पडी। सडक के दोनों तरफ हरे-भरे पेड और घने जंगलों में इधर-उधर दौडते-भागते, कहीं-कहीं ऊंघते बैठे छोटे-छोटे वन्य जीव बच्चों के लिए आकर्षण का केंद्र बन रहे थे। बच्चे उन्हें उछल-उछल कर देखने की कोशिश करते। यहां हिरन, भालू, बंदर और सेही तो बहुतायत में हैं। ऐसा लग रहा था जैसे प्रकृति की रची मुक्त छंद की कविता हमारे भीतर किसी गहरे एहसास की तरह उतर रही हो। सवा सात बजे हम श्रीशैलम बस स्टेशन पहुंच गए थे। चारों तरफ पहाडों से घिरा यह कस्बा अद्भुत ही है। बस से उतरने के बाद पहली आवश्यकता कोई ठिकाना ढूंढने की थी। मल्लिकार्जुन मंदिर वाली सडक पर ही एक अच्छी जगह मिल गई। हमें तुरंत तैयार होकर दर्शन के लिए निकलना था। जल्दी-जल्दी तैयार होकर 9 बजे मंदिर पहुंच गए। नल्लमलाई पर्वतश्रृंखला पर बसे इस कस्बे की महत्ता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इसे दक्षिण का कैलास कहते हैं।
नल्लमलाई का अर्थ है श्रेष्ठ पर्वतश्रृंखला। इसे सिरिधन, श्रीनगम, श्रीगिरी और श्री पर्वत भी कहते हैं। भीड तो यहां भी थी, लेकिन तिरुपति जैसी नहीं। प्रवेश के लिए यहां भी दो तरह की व्यवस्थाएं हैं। एक तो टिकट वाली और दूसरी बिना टिकट की। हम टिकट लेकर लाइन में लग गए। कतार तेजी से चल रही थी, लेकिन मुख्य मंडप के बाहर ही रोक दी गई। करीब एक घंटे इंतजार करना पडा। बहरहाल 11 बजे तक हम दर्शन कर चुके थे।
इसके उद्भव को लेकर कई किंवदंतियां हैं। एक तो यह है कि महर्षि शिलाद के पुत्र पर्वत ने घोर तप किया। जब भगवान शिव ने दर्शन दिया तो पर्वत ने उनसे अपने शरीर पर ही विराजमान होने का अनुरोध किया। शिव ने अनुरोध स्वीकार किया। तपस्वी पर्वत वहीं पर्वत के रूप में बदल गए और उन्हें श्रीपर्वत कहा गया तथा भगवान शिव ने मल्लिकार्जुन स्वामी के रूप में उनके शिखर पर वास बनाया। एक कथा यह भी है कि भगवान शिव एक बार शिकारी के रूप में यहां आए और उन्हें एक चेंचू कन्या से प्रेम हो गया। उसके साथ विवाह कर वह यहीं बस गए।
इसीलिए स्थानीय चेंचू लोग मल्लिकार्जुन स्वामी को अपना रिश्तेदार मानते हैं और चेंचू मल्लैया कहते हैं।
ज्योतिर्लिग ही नहीं, शक्तिपीठ भी
मल्लिकार्जुन स्वामी ऐसे च्योतिर्लिग हैं, जिनके परिसर में शक्तिपीठ भी है। यहां देवी भ्रमरांबा भी विराजित हैं। माना जाता है कि देवी सती के ऊपरी होंठ यहीं गिरे थे। श्री शिव महापुराण के अनुसार भगवान शिव के पुत्र गणेश और कार्तिकेय एक बार विवाह को लेकर बहस करने लगे। दोनों का हठ यह था कि मेरा विवाह पहले होना चाहिए। बात भगवान शिव और माता पार्वती तक पहुंची तो उन्होंने कहा कि तुम दोनों में से जो पूरी पृथ्वी की परिक्रमा पहले पूरी कर लेगा, उसका ही विवाह पहले होगा। कार्तिकेय अपने वाहन मयूर पर बैठकर पृथ्वी की परिक्रमा के लिए चल पडे। लेकिन, गणेश जी ने एक सुगम उपाय निकाला। सामने बैठे माता-पिता के पूजनोपरांत उनकी ही परिक्रमा कर ली और इस प्रकार पृथ्वी की परिक्रमा का कार्य पूरा मान लिया। पूरी पृथ्वी की परिक्रमा कर जब कार्तिकेय लौटे तब तक गणेश जी का विवाह हो चुका था। अत: कार्तिकेय रुष्ट होकर क्रौंच पर्वत पर चले गए। फिर माता पार्वती कार्तिकेय जी को मनाने चल पडीं। बाद में भगवान शिव भी यहां पहुंच कर च्योतिर्लिग के रूप में प्रकट हुए। चूंकि शिवजी की पूजा यहां सबसे पहले मल्लिका पुष्पों से की गई, इसीलिए उनका नाम मल्लिकार्जुन पडा और माता पार्वती ने यहां शिवजी की पूजा एक भ्रमर के रूप में की थी, इसीलिए यहां उनके स्थापित रूप का नाम भ्रमरांबा पडा।
इस परिसर में प्राचीनतम अस्तित्व वृद्ध मल्लिकार्जुन शिवलिंग है। पुराविज्ञानियों का अनुमान है कि यह संभवत: अर्जुनवृक्ष् ा का जीवाश्म है, जो 70-80 हजार साल पुराना है। इसीलिए इसे वृद्ध मल्लिकार्जुन कहते हैं। मंदिर में प्रवेश से पूर्व एक मंडप है। इसके बाद चारों तरफ ऊंचे मंडप हैं। यह स्थापत्य की विजयनगर शैली है। वस्तुत: वर्तमान रूप में इसका निर्माण विजयनगर के सम्राट हरिहर राय ने कराया था। बाद में रेड्डी राजाओं ने भी इसमें महत्वपूर्ण योगदान किया और उत्तरी गोपुरम का निर्माण छत्रपति शिवाजी ने कराया। हालांकि यहां इस मंदिर के अस्तित्व के प्रमाण दूसरी शताब्दी ईस्वी से ही उपलब्ध हैं। चारों तरफ से छह मीटर ऊंची किले जैसी दीवार से घिरे इस परिसर में कई अन्य देवी-देवताओं के मंदिर भी हैं। इनमें सहस्रलिंग और नटराज प्रमुख हैं। भ्रमरांबा शक्तिपीठ के निकट ही लोपामुद्रा की एक प्रतिमा भी है। महर्षि अगस्त्य की धर्मपत्नी लोपामुद्रा प्राचीन भारत की प्रमुख दार्शनिकों में गिनी जाती हैं। कहा जाता है कि आदि शंकराचार्य ने श्री मल्लिकार्जुन स्वामी के दर्शनोपरांत ही शिवानंद लहरी की रचना की थी। मंदिर की चहारदीवारी पर जगह-जगह रामायण और महाभारत की कथाएं उत्कीर्ण हैं।
बंद डैम का सौंदर्य
हम मंदिर से बाहर निकले तो धूप चटख हो चुकी थी। जनवरी में हाफ शर्ट पहन कर चलना मुश्किल हो रहा था। बच्चे डैम देखने के लिए इतने उतावले थे कि भोजन के बाद अल्पविश्राम की अर्जी भी खारिज हो गई और हमें तुरंत टैक्सी करके श्रीशैलम बांध निकलना पडा। श्रीशैलम में अच्छी बात यह थी कि यहां तिरुपति की तरह भाषा की समस्या नहीं थी। मुख्य भाषा तेलुगु ही है, पर हिंदीभाषियों को भी असुविधा नहीं होती। हिंदी फिल्मों के गाने खूब चलते हैं। कस्बे से डैम तक पहुंचने में केवल आधे घंटे का समय लगा, वह भी तब जबकि रास्ते में हमने साक्षी गणपति का भी दर्शन किया। मान्यता है कि मल्लिकार्जुन स्वामी के दर्शन के लिए आने वालों का हिसाब गणपति ही रखते हैं और यही उनका साक्ष्य देते हैं। इसीलिए इनका नाम साक्षी गणपति है।
डैम पहुंच कर बच्चे अभिभूत थे। पहाडों से घिरी नदी की गहरी घाटी, विशाल बांध और दूर-दूर तक खतरनाक मोडों वाली बलखाती सडक, पेडों की छाया और तरह-तरह के पक्षियों की चहचहाहट.. कुल मिलाकर माहौल अत्यंत मनोहारी था। डैम पर इस समय पानी कम होने के नाते उत्पादन बंद था, लेकिन इसकी भव्यता से इसकी महत्ता को समझा जा सकता था। कृष्णा नदी पर बना यह डैम देश का तीसरा सबसे बडा जलविद्युत उत्पादन केंद्र है। इसकी उत्पादन क्षमता 1670 मेगावाट बताई जाती है। यह किसानों को सिंचाई के लिए पानी भी उपलब्ध कराता है। यह सब जानते-देखते शाम के पांच बज गए थे, लिहाजा हम वापस श्रीशैलम लौट चले। शाम सात बजे फिर निकल पडे, नगर दर्शन के लिए। थोडी देर मंदिर के मुख्यद्वार के सामने बैठे रहे। गोपुरम वहां से साफ दिखाई दे रहा था और उसकी रात्रिकालीन सच्जा भी अद्भुत थी। झिलमिलाती लाइटों से सजे गोपुरम की छटा देखते ही बनती थी। छोटे कस्बे के लिहाज से देखें तो बाजार बडा है। दुकानों पर मोमेंटोज खूब मिलते हैं, लेकिन इनका मूल्य काफी अधिक है। खरीदने लायक चीजों में यहां जंगल का असली शहद और काजू की गजक है। घूमने से इतना तो मालूम चला कि यह देर रात तक जागने वाला शहर है।
राजा का सम्मान
अगली सुबह टाइगर रिजर्व निकलना था। टैक्सी लेकर सुन्नीपेंटा पहुंचे तो मालूम हुआ कि यह तो उसी रास्ते पर है, जिससे हम पिछले दिन डैम देखने आए थे। जंगल के भीतर सैर-सपाटे के लिए जीप सफारी लेनी थी, जो हमें उस दिन 10 बजे के बाद ही उपलब्ध होती। थोडी देर इंतजार के बाद हमें सफारी उपलब्ध हो गई और हम चल पडे। बीच-बीच में पहाडों और तरह-तरह की झाडियों से भरा यह जंगल कहीं-कहीं इतना घना है कि दोपहर में ही घुप्प अंधेरा जैसा लगता है। खुले में घूमते और अपने-आप में मस्त जानवरों को देख-देख कर बच्चे मन ही मन खुश हो रहे थे। उन्हें पहले ही समझा दिया गया था कि यहां हल्ला मचाना खतरनाक हो सकता है, इसलिए वे अपनी प्रसन्नता स्वाभाविक रूप से प्रकट नहीं कर पा रहे थे। इशारों-इशारों में एक-दूसरे से काफी बातचीत कर ले रहे थे। अगर कभी कोई जोर से बोल देता तो होंठों पर उंगली रख उसे समझाना पडता। ऐसी नौबत अकसर तब आती जब कहीं जंगल का राजा दिख जाता। बहरहाल, बच्चे ऐसे समय में सिर्फ इशारा कर देने पर जैसी समझदारी दिखाते, उससे इतना तो एहसास हुआ कि कुछ भी हो राजा का सम्मान सभी करते हैं। जंगल की एक-एक गतिविधि पर नजर गडाए कब व्यू प्वाइंट पहुंच गए, पता ही नहीं चला। काफी ऊंचाई पर मौजूद इस जगह से जंगल की गतिविधियां देखी जा सकती हैं। सागौन और गूलर के पेड तो इस जंगल में खूब हैं और जानवरों की भी हजारों प्रजातियां हैं। सौ से ज्यादा प्रजातियां तो केवल तितलियों और पतंगों की हैं। परिंदों की 200 से अधिक प्रजातियां यहां हैं। इसके अलावा सांभर, भालू, चीते, लकडबग्घे, सियार, हिरन, चौसिंघा हिरन, ढोल, सेही, नीलगाय सभी यहां पर्याप्त संख्या में हैं। बताया गया कि यहां हनी बैजर भी पाया जाता है, हालांकि हम देख न सके।
जंगल घूम कर हम तीन बजे तक वापस श्रीशैलम पहुंचे। अब हमारे पास और घूमने का वक्त नहीं था। अगले दिन हैदराबाद से दिल्ली के लिए ट्रेन पकडनी थी और यह तभी संभव था जब आज ही निकल चलते।
थोडा और वक्त होता तो
हालांकि घूमने के लिए यहां और भी कई जगहें हैं। इनमें पंचमठम का श्रीशैलम के इतिहास और संस्कृति में महत्वपूर्ण योगदान रहा है। उच्च अध्ययन को समर्पित इन मठों का इतिहास सातवीं सदी से शुरू होता है। तब यहां कई मठ थे, अब केवल पांच बचे हैं और वह भी जीर्ण हालत में हैं। ये मठ श्रीशैलम मुख्य मंदिर से करीब एक किलोमीटर दूर पश्चिम दिशा में स्थित हैं।
श्रीशैलम से 8 किमी दूर स्थित शिखरम समुद्रतल से 2830 फुट की ऊंचाई पर है। शिखरेश्वरम मंदिर में गर्भगृह और अंतरालय के अलावा 16 स्तंभों वाला मुखमंडपम भी है। यहां के इष्ट वीर शंकर स्वामी हैं, जिन्हें शिखरेश्वरम के रूप में पूजा जाता है। स्कंद पुराण के अनुसार इसके शिखर के दर्शनमात्र से मल्लिकार्जुन स्वामी के दर्शन का फल प्राप्त होता है। सुंदर जलप्रपात फलधारा पंचधारा कस्बे से पांच किमी और अक्क महादेवी की गुफाएं करीब 10 किमी दूर हैं। समय हो तो आप हटकेश्वरम, कैलासद्वारम, भीमुनि कोलानू, इष्ट कामेश्वरी मंदिर, कदलीवनम, नगालूती, भ्रमरांबा चेरुवु, सर्वेश्वरम और गुप्त मल्लिकार्जुनम को भी अपनी यात्रायोजना में शामिल कर सकते हैं। यहां आकर एहसास हुआ कि इस छोटे से कस्बे की घुमक्कडी का पूरा आनंद लेने के लिए कम से कम एक हफ्ते का समय चाहिए। मैं इकट्ठे तो इतना समय निकाल नहीं सकता था, लिहाजा 4 बजे की बस से भारी मन लिए हैदराबाद के लिए रवाना हो गया। अपने आप से इस वादे के साथ कि फिर मिलेंगे, जरूर मिलेंगे। और हां, श्रीशैलम से हैदराबाद के बीच प्रकृति की मनोरम झांकियों ने हमारे मन का भारीपन भी खुद हर लिया।
इष्ट देव सांकृत्यायन