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छोटे-छोटे प्रयासों से आती है चेतना

लगभग 20 साल पहले पंजाबी-हिंदी सिनेमा में कदम रखने वाली दिव्या दत्ता इस दौर की समर्थ अभिनेत्री हैं। 60 से भी अधिक फिल्में करने वाली दिव्या ने 'दिल्ली-6' और 'भाग मिल्खा भाग' के लिए आइफा अवॉर्ड जीता। दिव्या से टीवी, फिल्मों, सामाजिक सरोकारों सहित स्त्री विमर्श पर हुई लंबी बातचीत।

By Edited By: Published: Fri, 18 Nov 2016 12:14 PM (IST)Updated: Fri, 18 Nov 2016 12:14 PM (IST)
जब तक हम स्वयं को नहीं बदलते, समाज या दुनिया को बदलने का सपना बेमानी है... ऐसा मानना है दिव्या दत्ता का, जिन्हें किसी परिचय की जरूरत नहीं है। नॉन-फिल्मी पृष्ठभूमि से आने के बावजूद वह ग्लैमर इंडस्ट्री का हिस्सा बनीं, कई उल्लेखनीय फिल्में कीं, अवॉड्र्स जीते। ऐक्टिंग और लेखन को पैशन मानने वाली दिव्या अभी टीवी के एक क्राइम शो 'सावधान इंडिया' की होस्ट हैं। कुछ समय पहले उनकी एक किताब भी प्रकाशित हुई है। पिछले दिनों दिल्ली में उनसे मुलाकात हुई। सहजता, स्पष्टता और धैर्य के साथ उन्होंने सारे सवालों के जवाब दिए। दिव्या, लुधियाना जैसे शहर से आकर मुंबई में अपने बलबूते पहचान बनाने का यह सफर कैसा रहा? बहुत दिलचस्प...। सच कहूं तो ऐक्टिंग के मेरे पैशन को लेकर शुरुआत में घर वाले बहुत खुश नहीं थे। डॉक्टर्स का परिवार है। मैं पढाई में अच्छी थी लेकिन ऐक्टिंग मेरा जुनून था। मनोविज्ञान मेरा प्रिय विषय था। घर में सबको लगता था कि मैं इस फील्ड में कुछ करूं या आइएएस का एग्जैम दूं। मेरी मां डॉ. नलिनी दत्ता ने एक बार पूछा कि क्या वाकई मुझे ऐक्टिंग ही करनी है? मेरे हां कहने के बाद उन्होंने अपनी स्वीकृति दी और मेरी पूरी मदद की। मैंने बहुत कम उम्र में पिता को खो दिया था। मां ने सिंगल पेरेंट होते हुए भी मेरी और छोटे भाई की बहुत अच्छी परवरिश की। उनके सपोर्ट की वजह से ही आज यहां तक पहुंची हूं। शुरू में जो रिश्तेदार नाराज थे, बाद में मेरा काम देख कर वे भी गर्व महसूस करने लगे। आप दिल्ली और मुंबई दोनों जगह रही हैं। स्त्री सुरक्षा के लिहाज से दोनों जगहों में क्या फर्क लगता है? दिल्ली काफी असुरक्षित है। मुंबई में मैं रात के 12 बजे रिक्शा में जा सकती हूं मगर दिल्ली में ऐसा नहीं कर सकती। ऐसा नहीं है कि मुंबई में अपराध नहीं होते लेकिन तुलना करें तो मुंबई ज्यादा सुरक्षित लगती है। कई बार मुझे लगता है कि जिस तरह हम बेटी बचाओ कैंपेन चला रहे हैं, बेटा बचाओ कैंपेन भी चलाना चाहिए। बेटों पर रोक-टोक होगी तो क्राइम भी रुकेंगे। दरअसल बच्चा वही करेगा, जो घर में देखता है। अगर बच्चे ने देखा ही नहीं कि मां की भी कोई अहमियत है तो वह कैसे यह सीखेगा? पेरेंटिंग रूल्स भी बदलने चाहिए मगर इससे पहले स्त्री-पुरुष संबंधों को बदलना होगा। पति-पत्नी में समानता होगी, तभी बच्चों की सही परवरिश होगी। औरतों को पढाएं, उन्हें अपने अधिकारों के बारे में जागरूक बनाएं। हम सभी खुशकिस्मत हैं कि अपने घरों में हमें बराबरी का अधिकार मिला। जो करना चाहते थे, वह करने दिया गया, हम खुल कर बोल सकते हैं लेकिन गांव की स्त्री तो आज भी कई बार पति से यह कहने का अधिकार नहीं रखती कि शाम को जल्दी घर आ जाना...। जिस दिन पति-पत्नी के बीच थोडी समानता आ जाएगी, उसी दिन से स्त्री को केवल सेक्स ऑब्जेक्ट समझने वाली मानसिकता भी कम हो जाएगी। आपको खुद कभी असुरक्षा महसूस हुई? कई बार....। पहले सोचती थी कि ऐक्टर्स को इतनी सुरक्षा देने का क्या मतलब है? लेकिन अब सोचती हूं कि यह जरूरी है। एक बार गुजरात में प्रमोशनल इवेंट में टाइट सिक्योरिटी के बावजूद मुझे किसी ने बेहद गंदे ढंग से पुश किया। बहुत बुरा लगा। आज मैं इस स्थिति में हूं कि अन्य स्त्रियों के लिए आवाज उठा सकती हूं। कई बार मैं ऐसे लोगों को थप्पड भी मार देती हूं। हम स्त्रियों में जबर्दस्त सिक्स्थ सेंस होता है। हम किसी के देखने या हाथ मिलाने से ही समझ जाती हैं कि उसके दिमाग में क्या चल रहा है। इस किस्म की मानसिकता को कैसे कम किया जा सकता है? छोटी-छोटी कोशिशें काम आती हैं। आजकल सोशल मीडिया है, इसका सकारात्मक उपयोग कर सकते हैं। एक बार मेरी फ्रेंड को पता चला कि लखनऊ में किसी ने अपनी पत्नी को रात में घर से निकाल दिया है...। उसने फेसबुक पर लिखा कि वह मुंबई में है लेकिन अभी लखनऊ में कौन है, जो उस स्त्री की मदद कर सकता है? उसकी पोस्ट का असर हुआ। हम हर जगह मौजूद न भी रहें मगर किसी की मदद तो कर सकते हैं। कभी दिमाग में यह बात आई कि काश कभी लीड भूमिकाएं भी कर पातीं? मुझे लीड की परिभाषा नहीं मालूम। मैं कई तरह के किरदार निभाती हूं। रोल में दम होगा तो करूंगी। 'दिल्ली-6', 'भाग मिल्खा भाग', 'बदलापुर' सभी में मेरी भूमिकाएं दमदार रहीं। मेरे लिए ऐक्टिंग का मतलब अलग है। हीरो से रोमैंस करूं, तभी हीरोइन कहलाऊंगी, यह बात मुझे समझ नहीं आती। हां, अच्छी भूमिकाओं के लिए मुझे इंतजार करना पडा और मैंने किया। अभी श्याम बेनेगल की फिल्म 'जंगे आजादी' कर रही हूं। नसीर साहब और अरशद वारसी के साथ 'राधा', नवाजुद्दीन सिद्दीकी के साथ 'बाबूमोशाय बंदूकबाज कर रही हूं। पंजाबी और हॉलीवुड के प्रोजेक्ट्स भी चल रहे हैं। आप एक क्राइम शो को होस्ट कर रही हैं। आपको नहीं लगता कि कई बार ऐसे शो भी अपराधों को बढावा देते हैं? टीवी को ही क्यों दोष दें? आज तो घर-घर में इंटरनेट है। क्या बच्चों को नेट एक्सेस करने से रोक सकते हैं? सवाल नजरिये का है कि किसी चीज को हम कैसे देखते हैं। कई बार दुर्घटना होने पर पुलिसिया पूछताछ से घबरा कर लोग घायल की मदद करने से बचते हैं। मैं लोगों से कहना चाहती हूं- एक बार अपने भय को दूर करें। शायद आपकी जरा सी कोशिश किसी की जिंदगी बचा दे...। सुना है, आप लिखती भी हैं? हां, अभी एक नॉवेल खत्म किया है। यह मेरे और मां के संबंधों पर केंद्रित है। पिछली जनवरी में मैंने उन्हें खो दिया। वह मेरी सबसे बडी प्रेरणास्रोत हैं। उन्होंने हमेशा मेरा साथ दिया। ऐक्टिंग और लेखन के अलावा...? फिल्में देखना, दोस्तों के साथ घूमना और नई जगहें देखना मुझे पसंद है। गांव जाती हूं तो वहां किसी के घर की रोटी खाती हूं, नदी में पैर डाल कर बैठती हूं, बाहर जाती हूं तो वहां की भाषा, खानपान और पहनावा ट्राई करती हूं। मुझे यात्राएं पसंद हैं, सिर्फ मॉल्स में शॉपिंग करना मुझे कभी पसंद नहीं रहा। आपका फेवरिट स्ट्रीट फूड.... गोलगप्पे...मुंबई में यह अच्छा नहीं मिलता। किस आउटफिट में कंफर्टेबल रहती हैं? मूड पर निर्भर करता है। कभी जींस-टी, शॉट्र्स तो कभी साडी या सूट। किस अंधविश्वास को मानती हैं.. बिल्ली रास्ता काटती है तो रुक जाती हूं कि पहले वो निकल जाए। स्ट्रेस कैसे दूर करती हैं? म्यूजिक सुनती हूं, पढती हूं, दोस्तों से बातें करती हूं। बाथरूम सिंगर भी हूं। आपके जीवन का दर्शन क्या है? जीवन चलते रहने का नाम है। मां के जाने के बाद मैं अवसाद से घिर गई थी। लगता था जैसे जिंदगी गई है मगर फिर इससे उबरी। पीडा के उस दौर में भी मैंने जिंदगी का सबसे अच्छा काम किया। इंदिरा राठौर

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