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पेरेंटिंग- ज़रूरत सोच बदलने की

पेरेंटिंग की पुरानी सोच के अनुसार लड़कियों को हमेशा डॉल और लड़कों को कार से ही खेलना चाहिए लेकिन समाज बदल रहा है। इसलिए खेल-खिलौनों के बहाने हमें पेरेंटिंग के तरीके पर भी नए ढंग से सोचना चाहिए।

By Edited By: Published: Mon, 23 Jan 2017 03:39 PM (IST)Updated: Mon, 23 Jan 2017 03:39 PM (IST)
पेरेंटिंग- ज़रूरत सोच बदलने की
मना करने के बावजूद मेरा बेटा किचन सेट से खेलना पसंद करता है, मैं जब भी टॉय शॉप में जाती हूं तो मेरी बेटी डॉल्स को छोडकर हमेशा रेसिंग कार खरीदने की जिद करती है। आजकल बच्चों की मम्मियां अकसर इन बातों को लेकर चिंतित दिखाई देती हैं। उन्हें ऐसा लगता है कि बच्चों के स्वस्थ मानसिक विकास की दृष्टि से यह सब ठीक नहीं है पर अब उन्हें इस पुरानी सोच से बाहर निकलने की जरूरत है। सहजता है जरूरी बच्चों के शारीरिक-मानसिक विकास के दौरान उनकी आदतों में कई तरह के बदलाव आते हैं, जिन्हें पेरेंट्स को भी सहजता से स्वीकारना चाहिए। लगभग चार-पांच साल की उम्र तक बच्चे अपनी जेंडर आइडेंटिटी से बेफिक्र होते हैं। उन्हें नई चीजें बहुत आकर्षित करती हैं। इसलिए वे सभी तरह के खिलौनों से खेलना पसंद करते हैं। कई बार तो वे अपने टॉयज को छोडकर घर में पडी बेकार चीजों से खेलकर भी बहुत खुश होते हैं। दरअसल इन्हीं तरीकों से वे नई वस्तुओं से परिचित होना सीखते हैं। लडकियों की तरह लडकों का भी डॉल से खेलना स्वाभाविक है लेकिन पेरेंट्स उन्हें बार-बार याद दिलाते हैं कि तुम्हें अपनी बहन के खिलौनों से नहीं खेलना चाहिए या गन से तो बॉयज खेलते हैं। उम्र के इस दौर में बच्चों के साथ बहुत ज्य़ादा रोक-टोक करने के बजाय उन्हें सहज ढंग से खेलने और अपने अनुभवों से सीखने की आजादी देनी चाहिए। बच्चों का कंफर्ट जोन छह-सात साल की उम्र के बाद भावनात्मक और सामाजिक विकास के साथ बच्चे खुद को बॉय या गर्ल के तौर पर स्वीकारने लगते हैं। इस दौर में वे अपने जैसे लोगों के साथ ज्य़ादा सहज होते हैं। इसलिए आपने भी नोटिस किया होगा कि इस उम्र में खेल के दौरान लडकियों और लडकों के अलग-अलग ग्रुप्स बन जाते हैं और वे अपने ग्रुप के बच्चों के साथ ही रहना पसंद करते हैं क्योंकि उनके कपडे, एक्सेसरीज और हॉबीज में काफी समानता होती है। इससे वे अपनी रुचि से जुडे टॉपिक्स पर सहजता से बातचीत कर पाते हैं। इस तरह लडके-लडकियों के बीच छोटी-छोटी बातों को लेकर नोक-झोंक भी चलती रहती है। लडके खुद को बहादुर समझते हैं और लडकियों को डरपोक कह कर चिढाते हैं, वहीं लडकियां अपने आप को सलीकेदार और लडकों को लापरवाह समझने लगती हैं। यही वह समय है, जब हमें अपने बच्चे को अपोजिट सेक्स का सम्मान करना सिखाना चाहिए। लडकों को यह बताना जरूरी है कि लडकियां तुमसे अलग जरूर दिखती हैं पर वे भी तुम्हारी दोस्त बन सकती हैं। इसी तरह लडकियों को भी यह समझाना चाहिए कि बॉयज थोडे नॉटी जरूर होते हैं पर तुम्हें भी उनके साथ खेलना चाहिए। टूट रही हैं सीमाएं समय के साथ समाज की सोच में भी तेजी से बदलाव आ रहा है। पुराने समय में किचन को पुरुषों के लिए नो एंट्री जोन माना जाता था पर अब ऐसा नहीं है। आज की मम्मी अगर कार ड्राइव करके ऑफिस जाती हैं तो पापा भी किचन में बच्चों के लिए नाश्ता बना सकते हैं। ऐसे सहज माहौल में पलने वाले बच्चों के मन में कार्यों को लेकर कोई जेंडर रोल निर्धारित नहीं होता। इसी वजह से आज की लडकियां भी स्केटिंग, क्रिकेट और फुटबॉल जैसे आउटडोर गेम्स में न केवल बडे उत्साह से शामिल होती हैं बल्कि रेसलिंग, बॉक्सिंग और जूडो-कराटे जैसे मैस्कुलिन समझे जाने वाले स्पोट्र्स के क्षेत्र में अपनी पहचान बना रही हैं। वहीं लडके भी कुकिंग की फील्ड में कामयाबी की नई इबारत लिख रहे हैं। इसीलिए बच्चों के खेल से जुडी स्टीरियोटाइप सीमाएं भी अब टूटने लगी हैं और हमें इस बदलाव को सहजता से स्वीकारना चाहिए। बनें रोल मॉडल अपने माता-पिता को देखकर ही बच्चों के मन में आदर्श पुरुष या स्त्री की छवि तैयार होती है। इसलिए अगर पेरेंट्स के आपसी रिश्ते में मधुरता होगी और वे दोनों एक-दूसरे के प्रति केयरिंग होंगे तो इससे बच्चे के मन में अपने आप यह धारणा विकसित होगी कि गल्र्स /बॉयज दोनों ही अच्छे होते हैं। यह एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि जिन परिवारों में भाई-बहन दोनों होते हैं, वहां के बच्चों के लिए दूसरे जेंडर की भावना को समझना और उनके साथ सामंजस्य बिठाना आसान हो जाता है...लेकिन जहां केवल लडके या लडकियां हों, वहां माता-पिता की जिम्मेदारी बढ जाती है। ऐसे में उन्हें अपने टीनएजर बेटों/बेटियों को समझाना चाहिए कि अपोजिट जेंडर के साथ अपने व्यवहार में वे शालीनता बरतें। अनुशासन के समान नियम परिवार के माहौल से ही बच्चों के मन में कई तरह की गलत पूर्व धारणाएं विकसित होती हैं। जाने-अनजाने में पेरेंट्स उनके सामने कई ऐसी बातें बोल जाते हैं, जो उन्हें कभी नहीं बोलनी चाहिए। मसलन, क्या लडकियों की तरह रोते हो, लडकों की तरह उछल-कूद मत मचाओ....बच्चे के कोमल मन में ऐसी बातें घर कर जाती हैं कि लडकियां तो हमेशा रोती रहती हैं या लडके बडे शरारती होते हैं। इसलिए परवरिश के दौरान बेटे और बेटी के बीच कोई भेदभाव न बरतें। हां, जब कभी भाई-बहनों के लिए कुछ अलग नियम बनाने की जरूरत महसूस हो तो उन्हें लागू करने से पहले बच्चों को उसका कारण जरूर बताएं, ताकि उनके मन में इस बात को लेकर कोई कुंठा पैदा न हो कि मम्मी-पापा मेरे साथ भेदभाव बरतते हैं। अगर परिवार में अनुशासन होगा तो बच्चों के मन में जेंडर को लेकर कोई पूर्वाग्रह नहीं होगा। अंत में, यहां बात सिर्फ खिलौनों की नहीं है, बल्कि उनके बहाने हमें बच्चों की परवरिश के तौर-तरीके में भी थोडा बदलाव लाने की जरूरत है।

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