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आपदाओं से लें सबक

पिछले कुछ वर्षो में प्राकृतिक आपदाओं में हजारों लोगों की जान जा चुकी है। आपदाएं हमेशा से आती रही हैं, लेकिन अब इनसे नुकसान के आंकड़े बढ़ते जा रहे हैं। ऐसा क्यों हो रहा है और कैसे बचा जा सकता है इन स्थितियों से, बता रहे हैं नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ डिजास्टर मैनेजमेंट (एनआइडीएम) दिल्ली में जिओ-हैजर्ड रिस्क मैनेजमेंट डिविजन के प्रोफेसर एवं हेड डॉ. चंदन घोष।

By Edited By: Published: Mon, 01 Sep 2014 04:27 PM (IST)Updated: Mon, 01 Sep 2014 04:27 PM (IST)
आपदाओं से लें सबक

केदारनाथ की तबाही को एक वर्ष से अधिक हो गया है। इससे पूर्व भुज में आए भूकंप ने हजारों जानें लीं। पुणे में भूस्खलन में सैकडों लोग मारे गए हैं। दिल्ली-एनसीआर सहित देश के कई हिस्सों में अकसर इमारतें गिरने और जान-माल के नुकसान की खबरें  आती हैं। केदारनाथ की तबाही देश-दुनिया के लिए सबक है।

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क्वॉलिटी  से समझौता

ताजमहल, कुतुबमीनार  जैसी ऐतिहासिक इमारतें एक युग बीतने के बाद भी कैसे सुरक्षित हैं? जाहिर है, उन्हें बनाने में गुणवत्ता और नियमों का पालन किया गया है। मगर अब जिंदगी की कीमत पर क्वॉलिटी  से समझौता हो रहा है। इसका एक कारण है डिमांड और सप्लाई का अनुपात बिगडना। जितनी तेजी से मांग बढती है, उस हिसाब से आपूर्ति नहीं होती। इसलिए मटीरियल महंगा होता है। आज ए श्रेणी की ईट की कीमत लगभग 15 रुपये है। लोग सस्ते सामान की ओर जाते हैं। ईट, पत्थर, रोडी, सीमेंट में क्वॉलिटी  के साथ समझौता किया जाता है। माफिया ग्रुप्स भी सक्रिय हैं। इन सबका नुकसान आम आदमी को हो रहा है। निर्माण के कुछ नियम होते हैं। जैसे निश्चित प्लॉट साइज में एक सीमा से ज्यादा फ्लोर नहीं बन सकते। मगर लोग जरा  से फायदे के लिए नियमों की अनदेखी कर देते हैं। सब चलता है की मानसिकता लोगों और देश के लिए बहुत नुकसानदेह है।

व्यावहारिक हो ट्रेनिंग

आपदाओं को पूरी तरह नहीं रोका जा सकता, मगर नुकसान को कम किया जा सकता है। इसके लिए राजनीतिक इच्छा-शक्ति के साथ ही लोगों का सतर्क होना भी जरूरी है। भवन निर्माण के संबंध में एक इंडियन स्टैंडर्ड कोड है। समस्या यह है कि कोड की भाषा अंग्रेजी है। वर्ष 2001 के बाद कोड की भाषा को हिंदी, गुजराती किया गया। मगर आमतौर पर भाषा कठिन होती है। लोग जागरूक हों, इसके लिए स्थानीय भाषा-बोली में कलर्ड पोस्टर्स  या पुस्तिकाएं होनी चाहिए। उन्हें जागरूक करने के लिए प्रशिक्षित इंजीनियर्स होने चाहिए, जिन्हें फील्ड में काम करने का अनुभव हो। हालांकि पिछले दस वर्षो में काफी काम हुआ है। आइआइटी, बिट्स पिलानी व भारत सरकार के सहयोग से लगभग 500 टीचर्स ने इंजीनियर्स को ट्रेंड  किया है। मगर ऐसे कार्यक्रमों की सीमा होती है। ट्रेनिंग में आने वाले लोग कहते हैं कि वे तो जूनियर्स  हैं, निर्णय का अधिकार तो सीनियस इंजीनियर्स के पास है। एक समस्या यह भी है कि ट्रेनिंग क्लासरूम में होती है, जबकि इसे व्यावहारिक बनाया जाना चाहिए। निर्माणाधीन इमारतों की साइट्स पर जाकर दिखाना चाहिए कि यदि नियमों को अनदेखा किया जाएगा तो भूकंप या आपदा आने पर नुकसान हो सकता है। मौजूदा निर्माण कार्यो में ज्यादातर ऐसे हैं जिनमें सुरक्षा की पर्याप्त व्यवस्था तक नहीं की है। लोगों को जानकारी नहीं है, वे असहाय हैं। मेरा सुझाव है कि लंबे समय तक व्यवस्था को बेहतर बनाए रखना है तो सारे अवैध कंस्ट्रक्शंस  पर बुलडोजर चला देना चाहिए। सरकार को इसमें पहल कदमी  लेनी चाहिए। सामाजिक संगठनों, जनता, इंजीनियर्स, रेजिडेंट वेल फेयर एसोसिएशन, मार्केट एसोसिएशन की मदद से सही तरीके से निर्माण कराया जाना चाहिए।

जागरूकता के तरीके

राष्ट्रस्तर  पर इसके लिए मुहिम चलानी होगी कि भूकंप, भूस्खलन या अन्य प्राकृतिक आपदा का सामना कैसे किया जा सकता है। जापान का मॉडल हमारे सामने है। वहां भी रातों-रात विकास नहीं हुआ है, कई साल लगे हैं इसमें। वहां लगातार भूकंप आते हैं, लेकिन जान-माल की क्षति बहुत कम होती है।

एक टीम का गठन किया जाना चाहिए, जो निर्माण कार्यो का जायजा ले। यदि एक हफ्ते में 20-30  निर्माण कार्यो को भी देखा जा सके तो काफी सुधार हो सकता है। सरकार को विभागों में मैनपावर बढानी चाहिए। क्वॉलिफाइड  कॉन्ट्रेक्टर्स  की लिस्ट बनाएं। व्यवस्था बनती है तो लोग पालन भी करते हैं। मेट्रो रेल उदाहरण है। वहां कोई गंदगी नहीं फैलाता। धीरे-धीरे लोगों को शिक्षित किया जा सकता है। टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल करें और निर्माण कार्यो का नियमित सर्वे करें। सारे निर्माण नियमों के अनुसार होंगे तो आपदा से होने वाली क्षति को काफी कम किया जा सकेगा।


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