आदमी एक परिवर्तनशील प्राणी है
वस्तुओं से लेकर व्यक्तियों तक के बारे में इंसान के विचार अकसर बदलते रहते हैं। कुछ लोग समय के साथ आए इस बदलाव पर तंज करते हैं। तंजकरने वाले यह भूल ही जाते हैं कि असल में बदलाव ही इंसान की पूरी तरक्की का रहस्य है। अगर इंसान में यह फितरत न होती तो शायद अभी वह गुफाओं में ही रह रहा होता।
जब से हमारे शहर में मॉल बना है, अपने आत्मसम्मान में वृद्धि हुई है। नहीं तो सूबे की राजधानी के दोस्त पधारते। बातों-बातों में पूछते - क्यों भैया, अब भी झोला लटकाकर पुराने बाजार जाते हो? हम उन्हें बताते कि और चारा ही क्या है? कभी आटा-दाल लाना पडता है, कभी-कभार सब्जी भी खरीदना एक विवशता है। वरना पप्पू बडा होकर सोचेगा कि खाने का अर्थ सिर्फ रोटी-डबल रोटी और दालें ही हैं, पेट भरने के लिए महंगाई के बावजूद भंटा, आलू, कांदा, कद्दू आदि के दर्शन उसे कराना जरूरी है। कम से कम वह तरकारियों से परिचित तो रहे।
मित्र ने हमारी बात सुनकर हम पर हिकारत की नजर डाली, ताच्जुब है कि तुम जिस पिछडे स्थान पर रहते हो, उसे शहर कहते हो। बिना मॉल के शहर कैसा? बहुत रियायत करें तो हम उसे नगर की ओर अग्रसर गांव मान सकते हैं, जहां खरीदारी की मूलभूत सुविधाएं भी नहीं हैं। हमारी चाय पीकर हमें ही कोसने की प्रवृत्ति हम कब तक बर्दाश्त करते! फिर भी घर आए मेहमान को धक्के देकर निकालना अभी भी समाज की व्यवहार संहिता में शामिल नहीं हुआ है। समझदार वे हैं जो खुद ही किसी के दडबेनुमा घर में बोझ बनने से कतराते हैं, ऐसे इंसानी नमूनों का क्या इलाज है जो दूसरे की बर्बादी का तमाशा जबरन घर में घुस कर देखने पर आमादा हों! किसी लाज-शर्म या लिहाज की अपेक्षा ऐसे लोगों से व्यर्थ है।
उन्होंने बेतकल्लुफी से अपनी भाभी से एक और कप चाय की फरमाइश करते हमें शहर के विषय में शिक्षित करने की मुहिम जारी रखी, अब देखो यार, हमारे शहर में छह मॉल बन चुके हैं और कुछ अन्य की तैयारी जारी है। उनसे बात कर हम हीन-भाव से ग्रस्त होते हैं। वह तो नौकरी की मजबूरी थी, वरना कौन इन गांवनुमा नगरों में रहना चाहता है? राजधानी के ठाठ हैं।
मित्र के अनुसार वहां मॉल हैं, चौडी सडकें हैं। पानी में मूर्तियों का रंग है तो सडकों पर लालबत्ती का। एक जमाना था जब मिलों के सायरन बजते थे, वहां काम शुरू होने की घोषणा के बतौर। राजधानी कोई औद्योगिक क्षेत्र तो है नहीं, जहां ऐसी हरकत हो। यों भी, कलाई में घडी और कान में सेलफोन लगाई पीढी को समय बताने के लिए किसी सार्वजनिक भोंपू की क्या दरकार है? इसके बावजूद भीड और टै्रफिक का शोर किसी को भी बहरा बनाने को काफी है। फिर भी अति महत्वपूर्ण व्यक्तियों की श्रेणी के महापुरुष अपनी गाडियों में सायरन बजाते घूमते हैं।
दोस्त माने या न माने, हम जानते हैं कि हर राजधानी में वृक्षहनन का एक बडा सा कारखाना लगा है, जिसे लोग सचिवालय भी कहते हैं। वृक्ष विनाश इसलिए क्योंकि कागज पेड की छाल से बनता है। बिना कागज सचिवालय उतना ही मजबूर है जितना गुंडे-बदमाशों की गन के खौफ से कोई निहत्था नागरिक। सचिवालय की फैक्टरी में दिन-रात कागज की खपत है गरीब की जेब ही नहीं, असहाय की गर्दन तक काटी जाती है। दोस्त अपने महानगर की शान में इस लगन से कसीदे पढ रहे थे, जैसे वह कंक्रीट का जंगल उनके व्यक्तित्व का ही पर्याय हो। हमें यकीन था कि बस कुछ दिनों की बात है, लोग अपने गांवनुमा शहर की खुली हवा में शुद्ध सांस लेने पधारेंगे। नहीं तो उनके महानगर में तो बिना ऑक्सीजन मास्क के घर से निकलना दूभर होगा। मॉल के निर्माण के बाद से हमारी यह सोच अब अतीत की बात हो गई है। लोग हमें याद दिलाते हैं कि भैया, कल तक तो तुम अपने छोटे नगर के भाईचारे, बाग-बगीचों और बाजार के छोटे दुकानदारों से व्यक्तिगत संबंधों का बेशुमार जिक्र करते थे, अचानक उनका नाम लेना तक क्यों बंद कर दिया है? हम ऐसों को क्या समझाएं कि जिसके विचार परिस्थितियों के परिवर्तन के साथ न बदलें, वह आदमी ही कैसा? हमारे अपने पिताश्री इसके जीते-जागते उदाहरण हैं। हमारी बडी बहन के विवाह तक वह दहेज की परंपरा के घोर विरोधी रहे। तब वह कहते थे, ब्याह एक पवित्र बंधन है, कोई परचून की दुकान नहीं कि हर सामान पर मोल-तोल और कमी-बेशी की मगजपच्ची हो। जाने किसने इस गर्हित सामाजिक प्रथा की नींव रखी है? उसे शर्तिया नर्क मिला होगा। वहां भी लडकी वालों की सतत बद्दुआओं से उसे लगातार भट्टी की आग में भूना जा रहा होगा।
हमें थोडा आश्चर्य हुआ जब वह खरीद-फरोख्त की इस कतई बाजारू परिपाटी के पक्षधर बन गए। हम तलाशे-रोजगार की जद्दोजहद में जुटे थे। हमें आज के बेकारों से दिली हमदर्दी है। रोजगार का फॉर्म भरना, उसके साथ जन्म से लेकर डिग्री तक की फोटोकॉपी लगाना कोई मामूली कसरत नहीं, बेरोजगारी की फ्री-स्टाइल कुश्ती में किसी सधे पहलवान से पिटाई के आमंत्रण समान है। कहीं जरा सी भी चूक हो गई तो आमंत्रण रद होने का खतरा है। इसे जीवन का विरोधाभास ही कहेंगे कि बिना किसी अपवाद के हर युवा इस पिटाई के लिए प्रतीक्षारत है। कई तो उधार लेकर पीटे जाने को प्रस्तुत हैं।
हमें यह कहने में कोई शर्म नहीं है कि कॉलेज के दिनों में हम सबको प्रेम विवाह का पाठ पढाने में अव्वल रहे हैं। यह भी सच है कि अपनी एक सहपाठिनी के साथ हम भी दो-तीन वर्षो तक प्रेम में गिरे-पडे रहे। उसके बाद जब पिताश्री ने हमें कामयाबी से बेच दिया तो हमने तत्पश्चात से प्रेमरोग से मुक्ति पाई और कसमों-वादों की धूल झाड-पोंछ कर पारंपरिक सात फेरों के लिए तैयार हो गए। अब हमें बिकने की पद्धति में पूरी आस्था और विश्वास है।
यह वाकई जीवन भर का ऐसा बंधन है जो कार, फ्रिज, सोफा, बेड, कैश वगैरह का प्रबंध ही नहीं करता, जीवनयापन के लिए जॉब का जुगाड भी करता है। हमारे ससुर जी का प्रताप है कि शादी की तारीख तय होने के पहले ही उनके प्रयासों से हमें बेकारी से मुक्ति मिल गई। अब अपने पल्ले पडा है कि सरकार में ससुर के बडे पद पर रहने के कितने फायदे हैं। वहीं प्रेम-विवाह हमें पाप समान लगता है। जो माता-पिता जन्म ही नहीं देते, पालते-पोसते, बडा करते और जिंदगी के लायक बनाते हैं, उनका दिल दुखाना कहां तक उचित है? शादी के पहले प्रेम दोनों पक्षों के लिए एक सुखद अनुभव है। इसे किसी बंधन में बांधना दकियानूसी नादानी है। जब तक शादी न हो, पूरे जी-जान से, कॉलेज तथा उसके बाद लुक-छिप कर, सबको इस प्रभु-प्रदत्त इनायत का लाभ उठाना चाहिए। प्रेम विवाह से कहीं बेहतर, उसकी मीठी यादें संजोना है।
हमें आज भी अपने प्रेम प्रसंग याद हैं। अब तो वह सब शादीशुदा ही नहीं, बच्चों की माताएं हैं। उनका उतना ही सुखी जीवन है जितना किसी वैवाहिक युगल का संभव है। यह एक व्यर्थ का मुगालता है कि प्रेम की सफलता शादी में निहित है वर्ना प्रेमी-प्रेमियों का दिल टूटता है। भैया, दिल शायरों के लिए शीशा रहा होगा, डॉक्टरों के लिए जिंदगी की शर्त है। उसका टूटना-रुकना, वह भी प्रेम जैसे दिलकश हादसे से कतई मुमकिन नहीं है। हमें अपनी शादी के बाद यह स्वीकार करने में कोई हिचकिचाहट नहीं है कि प्रेम और प्रेम विवाह दोनों किसी भावनात्मक असंतुलन की निशानी हैं। दहेज एक उपयोगी और अनिवार्य सामाजिक परिपाटी है।
पुरुष और नारी की बराबरी पर हर चिंतक का जोर है। जाने क्यों सारे ज्ञानी इस तथ्य से अनजान हैं कि दहेज की परिपाटी इस समता की पोषक है। यह एक सामाजिक तथ्य है कि जिस घर में दहेज द्वारा खरीदा गया पति है, वहां पत्नी का पलडा हमेशा भारी है। संक्षेप में दहेज एक ऐसी फिक्स्ड डिपॉजिट है जिसके ब्याह के स्नेह से वैवाहिक जीवन फलता-फूलता है। हमने आज तक शादी में मिली कार घर के सामने सहेज कर रखी है। जब तक चला सके चलाई, आज वह सामाजिक प्रतिष्ठा का चिन्ह है। उसे हम विंटेज कार की प्रतियोगिता में ले जाते हैं। दहेज के विवाह भी विंटेज होते हैं।
दहेज के पक्ष में एक और महत्वपूर्ण तथ्य है कि जो इस उसूल को अपनाते हैं, उनके लिए विवाह ला-मुहाला जन्म-जन्मांतर का साथ है। दहेज आधारित शादी में तलाक नामुमकिन है। पुरुष जानता है। एक बार गा-बजाकर उसकी कीमत लग गई, अब दोबारा ऐसी गलती कौन करेगा? कुछ की मान्यता है कि शादी के पहले पति-पत्नी में प्रेम होना ही चाहिए, इसलिए माता-पिता द्वारा तय किए गए खरीद-फरोख्त वाले विवाह के वह विरोधी हैं। ऐसे कमअक्लों को कौन समझाए कि प्रेम विवाह के पहले और बाद दोनों हालात में संभव है।
यहां हम स्पष्ट कर दें कि फिलहाल हम अपने स्वर्गीय पिताजी का अनुकरण कर रहे हैं। पारिवारिक परंपराएं इसी प्रकार फलती-फूलती हैं। कहा नहीं जा सकता कि हमारे विचार कब पलट जाएं। कई तोहमत लगाते हैं कि इंसान पर भरोसा नहीं किया जा सकता है कि कब बदल जाए। वह भूलते हैं। यही इंसान की तरक्की का रहस्य भी है, क्योंकि उसमें परिस्थितियों के अनुसार खुद को ढालने-बदलने की अभूतपूर्व क्षमता है।
गोपाल चतुर्वेदी