ईश्वर ने मेरी प्रार्थना सुन ली
अगर मुश्किल हालात में भी हम आशावान बने रहें तो दुखों के बादल अपने आप छंट जाते हैं। यहां सखी की एक पाठिका अपने ऐसे ही अनुभव बांट रही हैं, आपके साथ।
अगर मुश्किल हालात में भी हम आशावान बने रहें तो दुखों के बादल अपने आप छंट जाते हैं। यहां सखी की एक पाठिका अपने ऐसे ही अनुभव बांट रही हैं, आपके साथ।
बात उन दिनों की है, जब मैं ग्यारहवीं कक्षा की छात्रा थी। मैं मूलत: नैनीताल की रहने वाली हूं। हमारी परवरिश ऐसे माहौल में हुई थी, जहां बचपन से ही हमें अपने आसपास के लोगों की मदद करना सिखाया गया था। मैं हमेशा अच्छे अंकों से पास होती थी और यथासंभव सभी को सहयोग देने के लिए तत्पर रहती थी। इन्हीं गुणों की वजह से मेरी एक टीचर शुभ्रा मैडम मुझे बहुत प्यार करती थीं। वह अपने माता-पिता की इकलौती संतान थी। स्कूल की नौकरी के दौरान ही उनकी शादी हो गई। उनकी ससुराल श्रीगंगानगर (राज.) में थी। एक बार वह ससुराल जा रही थीं। चूंकि, हमारा घर उनके पडोस में ही था। इसलिए उन्होंने मुझसे कहा कि तुम मेरी मम्मी का ध्यान रखना।
नहीं भूलती वो घटना
एक रोज अचानक आंटी की तबीयत बहुत ख्ाराब हो गई। जब उन्हें घबराहट और बेचैनी हो रही थी, संयोगवश तब मैं उन्हीं के पास थी। उनकी ऐसी हालत देखकर मैं बुरी तरह घबरा गई। भाग कर पडोस वाले अंकल को बुलाया। फिर हम उन्हें जल्दी से अस्पताल ले गए। डॉक्टर ने उन्हें आइ.सी.यू. में भर्ती करवा दिया। वहां महिला मरीज के साथ पुरुष अटेंडेंट को रुकने की अनुमति नहीं थी, वहां उनके साथ कोई और स्त्री नहीं थी। ऐसे में रात के वक्त मुझे ही उनके साथ रुकना था। वह मेरे लिए बेहद डरावना अनुभव था। हमारी मैम श्रीगंगानगर से निकल चुकी थीं, लेकिन नैनीताल पहुंचने में उन्हें कम से कम दो दिन जरूर लगते। उनके आने तक आंटी की देखभाल की जिम्मेदारी मेरे ही ऊपर थी। डॉक्टर्स का कहना था कि बुढापे की वजह से उन्हें कई समस्याएं परेशान कर रही हैं, पर हम पूरी कोशिश कर रहे हैं। सांस में तकलीफ की वजह से उन्हें ऑक्सीजन लगाया गया था।
उम्मीद की नई किरण
मैं लगातार भगवान का नाम जप रही थी। पूरी रात मैंने वहीं बेंच पर बैठकर बिताई। अगले सुबह मुझे नर्स ने बताया कि उनकी तबीयत में सुधार आ रहा है। अब वह अच्छी तरह सांस ले पा रही हैं। जब मैं उनसे मिलने के लिए भीतर गई थी तो उन्होंने स्नेहवश मेरा हाथ पकड लिया और मुसकुराते हुए धीमे स्वर में बोलीं, 'तुम चिंता मत करो, अब मैं पहले से बेहतर महसूस कर रही हूं। आइ.सी.यू. में डॉक्टर्स के काम करने का तरीका देखकर महसूस हुआ कि सचमुच वे कितने धैर्य के साथ काम करते हैं। मरीज की हर सांस पर डॉक्टर और परिजनों की उम्मीदें टिकी होती हैं। उनके डॉक्टर जब राउंड पर आए तो उन्होंने मुझे बताया कि अब घबराने की कोई बात नहीं। कल सुबह तक उन्हें आइ.सी.यू. से अस्पताल के कमरे में शिफ्ट कर दिया जाएगा। अगले दिन हमारी टीचर भी पहुंच गईं। डॉक्टर्स की मेहनत और हमारी प्रार्थना ने अपना असर दिखाया। एक सप्ताह बाद वह पूर्णत: स्वस्थ हो कर घर लौट आईं। उस घटना के बाद वाकई ऐसा महसूस हुआ कि जब तक सांस, तब तक आस।
मनोविज्ञान की नजर में
जब चारों ओर निराशा का घनघोर अंधेरा छाया हो तो ऐसी प्रतिकूल स्थिति में भी उम्मीदों का साथ न छोडऩे वाले किसी आशावादी व्यक्ति के मुंह से निकला यह वाक्य समय के साथ मुहावरे में तब्दील हो गया होगा। मुश्किल हालात में सकारात्मक बातों से एक-दूसरे का मनोबल बढाना सहज मानवीय प्रवृत्ति है। इसी वजह से बातचीत के दौरान परिवार के बुजुर्ग ऐसे जुमलों का इस्तेमाल सदियों से करते आ रहे हैं। ऐसे में लोगों को जो बात ज्य़ादा पसंद आती है, वही मुहावरे में बदल जाती है। जिस तरह मौसम बदलता है, उसी तरह हमारे जीवन में भी उतार-चढाव आना स्वाभाविक है। स्थितियां कमोबेश एक जैसी ही होती है, फर्क सिर्फ देखने वाले के नजरिये का होता है। यही वजह है कि एक ही घटना पर लोगों की प्रतिक्रिया अलग-अलग होती है। मिसाल के तौर पर आधा ग्लास पानी देखकर निराशावादी व्यक्ति उसे आधा ख्ााली बताता है तो किसी आशावादी को वही ग्लास आधा भरा हुआ दिखाई देता है। मुश्किलों के अंधेरे में उम्मीद की एक नन्ही सी किरण भी हमें आगे का रास्ता दिखाने के लिए काफी होती है। जीवन की राह में आने वाली बाधाओं से जूझने का हौसला रखने वाले लोग आगे बढऩे का कोई न कोई रास्ता ढूंढ ही लेते हैं। बुराई के बीच भी अच्छाई ढूंढऩे की कला ही आम इंसान को ख्ाास बनाती है। तभी ऐसा माना जाता है कि कामयाब लोग कोई विशेष कार्य नहीं करते, बल्कि वे बेहद मामूली कार्य को भी विशेष ढंग से करते हैं। चाहे हालत कितने भी ख्ाराब क्यों न हों पर ढूंढने पर हर मुश्किल का कोई न कोई हल निकल ही आता है। तभी कई बार नाकाम होने के बाद भी आशावादी लोग अंतत: सफल होते हैं।
गीतिका कपूर, मनोवैज्ञानिक सलाहकार