मैली चादर ओढ़ के....
किसी भी धार्मिक कृत्य में सबसे ज्य़ादा ज़ोर पवित्रता पर होता है और पवित्रता की बुनियाद है स्वच्छता। इस धारणा के मूल में निहित उद्देश्य और व्यापक मंतव्य।
मानवमात्र को स्वच्छता अच्छी लगती है। 'स्वच्छ शब्द सु+अच्छ के मेल से बना है। यण (स्वर) संधि के नियमानुसार बने इस शब्द का अर्थ है - बहुत अच्छा लगना, सुंदर/सुशोभित होना। वस्तुत: स्वच्छता दो प्रकार की होती है - बाहरी स्वच्छता और भीतरी स्वच्छता। बाहरी स्वच्छता में शरीर, वस्त्र और परिवेश-पर्यावरण की स्वच्छता समाहित है। भीतरी स्वच्छता के अंतर्गत मन, विचार, चरित्र और आत्मा की स्वच्छता आदि शामिल हैं।
प्रत्येक व्यक्ति अपना जीवन मन, वचन और कर्म, तीन स्तरों पर जीता है। सर्वप्रथम मन में यह भाव उत्पन्न हुआ- 'मैं स्वच्छ रहूंगा। फिर उस भाव को व्यक्त किया- 'मैं गंदगी नहीं फैलाऊंगा और स्वच्छ रहूंगा। फिर वह व्यक्ति अपने शरीर और परिवेश को स्वच्छ रखने का प्रयास करता है। अपने तन, वस्त्र एवं परिवेश को स्वच्छ रखने का भाव भी पहले मन में ही आता है। तब हम उस भाव को यथार्थ में लागू करने का संकल्प करते हैं और संकल्प को वास्तविकता में परिणत करते हैं।
तन की स्वच्छता का सीधा अर्थ पांचों इंद्रियों की स्वच्छता से है। कहा जाता है कि स्वच्छ-स्वस्थ तन में ही स्वस्थ मन निवास करता है। स्वच्छ वस्त्र धारण करना भी आवश्यक है। भारत में प्राचीन काल में लोग धोती पहनते थे। क्या कभी आपने 'धोती शब्द पर विचार किया है? 'धोती वह वस्त्र होता था, जिसे प्रतिदिन धोते और पहनते थे।
इसका एक महत्वपूर्ण रूप अपने परिवेश एवं पर्यावरण की स्वच्छता भी है। परिवेश अर्थात घर, गली, मोहल्ला आदि। पर्यावरण में प्राकृतिक आवरण समाहित है। इसमें पंच तत्वों - अग्नि, वायु, जल, धरती, आकाश की शुद्धता-स्वच्छता अनिवार्य है। इसी के लिए हमारे ऋषि-मुनियों ने दिन में दो संध्या समय यज्ञ करके पर्यावरण को स्वच्छ रखने का विधान किया था। धरती को माता माना जाता था। सुबह उठने पर धरती पर पांव रखने से पहले उससे क्षमा याचना की जाती थी। नदियों को भी माता कहा गया (गंगा मैया), इसलिए नदियों के जल को प्रदूषित करना महापाप समझा जाता था। पर्यावरण की स्वच्छता के लिए वृक्ष संरक्षण को महत्व दिया गया। इसी सोच के तहत वृक्षों के पूजन का विधान किया गया।
यहां बाहरी के साथ-साथ भीतरी स्वच्छता को भी प्राचीन काल से ही महत्व दिया गया। भीतरी स्वच्छता में समाहित मन की स्वच्छता का आशय है- मन में बुरे भावों को न टिकने देना। जैसे उपवन में फूल व कांटे साथ-साथ होते हैं, वैसे ही हमारे मन में भी सद्भाव और दुर्भाव दोनों आते-जाते रहते हैं। मनुष्य से अपेक्षा की जाती है कि वह मन में सद्भावों को स्थान दे, दुर्भावों को दूर रखे। कबीर ने दुर्भावों को ही मन का मैलापन कहा है-
नहाए-धोए क्या हुआ, जो मन-मैल न जाए।
मीन सदा जल में रहे, धोए बास न जाए॥
अर्थात तन के नहाने-धोने से क्या लाभ, यदि मन की मैल नहीं धोई।
भीतरी स्वच्छता में समाहित दूसरा बिंदु है - वैचारिक स्वच्छता। मन का संबंध भावों से है, तो बुद्धि का विचारों से। बुद्धि का विकसित रूप है विवेक। विवेक अर्थात उचित-अनुचित का बोध। इसका संबंध वैचारिक चिंतन से है। मस्तिष्क में हिंसा, क्रूरता, अन्याय, अत्याचार, अपराध जैसे दुर्विचार उत्पन्न होते रहते हैं और समता, न्याय, प्राणिमात्र की सुरक्षा जैसे सुविचार भी जन्म लेते रहते हैं।
भीतरी स्वच्छता का ही अगला चरण है - चारित्रिक स्वच्छता। भारत में चरित्र को ही सच्चा धन माना गया। चरित्र का संबंध भी चिंतन से ही है। चिंतन दूषित होने पर सच्चरित्र भी दुश्चरित्र में बदल जाता है। ईमानदारी, कर्तव्यनिष्ठा, अनुशासनप्रियता, सामाजिक मर्यादा, संबंधों, मानवीय मूल्यों की महत्ता, परिश्रम, लोकरक्षा आदि सद्गुणों को अपने जीवन एवं व्यवहार का अंग बना लेना ही सच्चरित्रता है। बेईमानी, भ्रष्टाचार, नारी अपमान, रिश्वतखोरी, पद का दुरुपयोग, छल-कपट, चापलूसी, अपशब्दों का प्रयोग आदि चरित्रहीनता का पर्याय है।
भीतरी स्वच्छता का अंतिम पडाव है -आत्मिक स्वच्छता। कहा जाता है कि आत्मा अजर-अमर, निर्मल, निष्पाप, निष्कलंक और निर्विकार है। वही आत्मा सांसारिक माया-मोह में फंसकर दूषित आवरण ओढती चली जाती है। आत्मा हमें गलत कार्य करने से रोकती है। कोई व्यक्ति जब पहली बार गलत कार्य करता है या कोई दुव्र्यसन अपनाता है तो उसकी अंतरात्मा उसे धिक्कारती है। दूसरी बार वही कुकृत्य करने पर अंतरात्मा की आवाज कम सुनाई देती है और धीरे-धीरे सुनाई देनी ही बंद हो जाती है। इस स्थिति को 'आत्मा का मर जाना या 'मैला हो जाना कहा जाता है। एक संत कवि कहते हैं- 'मैली चादर ओढ के कैसे, द्वार तुम्हारे आऊं?
मैली चादर से आशय आध्यात्मिक स्वच्छता का अभाव ही है। सांसारिक माया-मोह के वशीभूत हुई जीवात्मा परमात्मा को जानने-समझने में अक्षम हो जाती है और भटकती रहती है। जीवन के परम लक्ष्य मोक्ष प्राप्ति के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण है - आध्यात्मिक स्वच्छता। भारत में प्राचीन काल से ही धर्म को जीवन का केंद्र माना गया है। मनुष्य के सभी कार्य, आचार-व्यवहार, चारों आश्रम, चारों पुरुषार्थ, अर्थात संपूर्ण जीवन धर्मकेंद्रित था। मानव जीवन को अनुशासित, व्यवस्थित तथा सुनियोजित करने का मार्ग प्रशस्त करने वाले ग्रंथ 'मनुस्मृति में धर्म का स्वरूप उसके दस लक्षणों के माध्यम से बताया गया है -
धृति: क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिंद्रियनिग्रह:।
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्॥
अर्थात धैर्य, क्षमा, दम (संयम), चोरी न करना, शौच (स्वच्छता), इंद्रियों को वश में रखना, बुद्धि, विद्या, सत्य और क्रोध न करना - धर्म के यही दस लक्षण हैं। धर्म का यह स्वरूप वास्तव में भीतरी स्वच्छता कहा जा सकता है। इस तरह देखें तो धार्मिक होने का अर्थ ही है सच्ची स्वच्छता का पालन करना।
इससे समझा जा सकता है कि सच्ची स्वच्छता का क्या अर्थ और महत्व है। वस्तुत: बाहरी और भीतरी स्वच्छता एक ही सिक्के के दो पहलू हैं और दोनों ही एक दूसरे पर आश्रित हैं। आज हमारी तात्कालिक आवश्यकता है - बाहरी स्वच्छता यानी अपने शरीर के अंग-प्रत्यंग, बाहरी वेशभूषा, वाणी की स्वच्छता, अपने घर, गली, मोहल्ले और जल, भूमि, वायु आदि की शुद्धता-स्वच्छता। इसके बाद शाश्वत आवश्यकता है - भीतरी यानी मन, विचार, व्यवहार, स्वभाव, चिंतन, मनन, आत्मा की स्वच्छता और पवित्रता।
स्वच्छता का आशय केवल शरीर और घर की स्वच्छता तक ही सीमित नहीं है। घर की स्वच्छता का आनंद हम तभी ले सकते हैं, जब आसपास का वातावरण भी स्वच्छ हो। भीतर से कोई घर चाहे कितना भी स्वच्छ हो, लेकिन अगर चारों तरफ से दुर्गंध आती रहे तो न तो वहां बैठ कर पूजा-पाठ में मन लगेगा और न अपने घर की स्वच्छता का आनंद ही लिया जा सकेगा। घर का कूडा उठाकर गली में डाल देने से स्वच्छता और पवित्रता का उद्देश्य पूरा होने वाला नहीं है। घर की स्वच्छता जितना महत्वपूर्ण कर्तव्य है, आसपास के वातावरण को भी स्वच्छ बनाए रखना उतनी ही महत्वपूर्ण जिम्मेदारी।
आइए, स्वच्छता की ओर पहला कदम उठाएं तथा व्यक्ति, समाज, राष्ट्र व संपूर्ण विश्व को स्वच्छ, निर्मल और पवित्र बनाएं। सही दिशा में उठाया गया हमारा एक कदम औरों के लिए 'मील का पत्थर सिद्ध होगा।