हर क्षण उत्सव
पुराने से ऊब कर हम नए की तलाश में भागते हैं और मिलते ही नया भी पुराना पडऩे लगता है। फिर नया कहां? नया कहीं और नहीं, आपके भीतर है। वह मिल जाए तो सब कुछ नया और हर क्षण उत्सव है। भीतर के उस नएपन की एक तलाश।
पुराने से ऊब कर हम नए की तलाश में भागते हैं और मिलते ही नया भी पुराना पडऩे लगता है। फिर नया कहां? नया कहीं और नहीं, आपके भीतर है। वह मिल जाए तो सब कुछ नया और हर क्षण उत्सव है। भीतर के उस नएपन की एक तलाश।
पूरे विश्व में यह एक परंपरा सी बन गई है कि एक जनवरी को नए वर्ष के रूप में ख्ाूब धूमधाम और मस्ती से मनाया जाए, किसी रमणीय स्थान पर पार्टी की जाए। इसकी तैयारी में अमूमन सारी दुनिया के लोग कुछ हफ्ते पहले ही योजनाएं बनाना शुरू कर देते हैं। वे जहां होते हैं उससे कहीं दूर आनंद की कल्पना करते हैं और उस दिशा में चल पडते हैं- नएपन की खोज में।
हमारे सामान्य जीवन में हम अपने प्रतिदिन के जीवन में एक ऊब को अनुभव करते हैं और सोचते हैं कि हमें आनंद तब मिलेगा जब कुछ नया होगा। नए के साथ आनंद की कल्पना जुड जाती है और पुराने के साथ एक बासीपन, नए के साथ एक जीवंतता और पुराने के साथ एक मुर्दापन।
ऐसा क्यों होता है?
इस स्थिति को अगर हम आध्यात्मिक ढंग से देखें तो इस प्रश्न का उत्तर है कि हमें प्रतिपल नए होने की कला नहीं आती। हम संसार में एक प्रकार की यांत्रिकता से जीते हैं, हम आदतों से बंधकर जीते हैं। निश्चित ही जीवन के ये बंधन आनंदमय नहीं हो सकते हैं, देर-अबेर हम इनसे ऊब ही जाएंगे। जो व्यक्ति जितना अधिक संवेदनशील होगा उतना ही वह जल्दी ऊबेगा। फिर कोई नई शुरुआत होगी और जल्दी ही वह एक यांत्रिकता बन जाएगी, बंधन बन जाएगी।
जीवन तो बस ऐसा ही है, नया बहुत देर तक नया नहीं रहता है, उसे पुराना अनुभव करने में देर नहीं लगती। इसका यह अर्थ है कि हम जीवन के क्रम को नहीं बदल सकते हैं।
जीवन सदा अपने क्रम से चलता है, अपनी गति से चलता है और जीवन सदा नया है। जो नया नहीं है वह हमारी भावदशाएं, हमारे चित्त की अवस्थाएं। हमारा चित्त अतीत से बंधा रहता है, ऐसे ही जैसे भैंस खाए हुए चारे की लगातार जुगाली करती रहती है। भैंस के पास कोई व्यवस्था नहीं है कि वह कहीं से नए को खोज ले, वह बंधी है और खडी-खडी जुगाली ही करेगी। लेकिन आदमी की चेतना पशुओं से कहीं अधिक विकसित है। उसकी चेतना मुक्त गगन में अपने पंख खोलकर उडऩे में समर्थ है। कभी-कभी ऐसा होता भी है कि कोई बुद्ध, कोई महावीर, कोई नानक, कोई कबीर, कोई मीरा इतनी ऊंची उडान भरते हैं कि 'अहं ब्रह्मास्मि की घोषणा करते हैं। ये वे हैं, जो भगवत्ता की ऊंचाई छू लेते हैं। ऐसे रहस्यदर्शियों को हम महाचेता कहते हैं। जैसा विज्ञान के जगत में अणु का विस्फोट होता है, ऐसे ही उनमें चैतन्य का विस्फोट होता है और वे चेतना का गौरीशंकर बन जाते हैं, वे सारे बंधनों से पूर्णत: मुक्त हो जाते हैं।
क्या यह संभव है?
निश्चित ही संभव है? ये सभी रहस्यदर्शी इस अवस्था के पहले साधारण व्यक्ति ही थे। उन्होंने ध्यान किया, साधना की। वे जीवन को पल-पल होशपूर्वक जीने लगे, उन्होंने यांत्रिकता तोड दी, उससे मुक्ति के लिए संघर्ष किया, तपश्चर्या की, उनकी मूच्र्छा टूटी, वे सजग हुए और ऐसी परम उपलब्धि की, जिससे उनके लिए जीवन प्रतिपल नया और आनंदमय हो गया। तब उन्हें आनंद मनाने के लिए नए वर्ष की पहली तारीख्ा का इंतजार करने की जरूरत नहीं रही। उनके लिए तो हर पल नया हो गया। जैसा कि हरिवंश राय बच्चन 'मधुशाला में कहते हैं- दिन को होली, रात दिवाली, रोज मनाती मधुशाला! फिर भविष्य में किसी उत्सव का इंतजार नहीं करना चाहिए, हर क्षण उत्सवमय ढंग से जीना है। करना कुल इतना है कि आप जो भी कार्य करते हैं, उसे बोधपूर्वक करें तो उसमें आनंद होगा, तब कर्म ही पूजा, प्रार्थना और आनंद हो जाएगा।
संत कबीर इसकी एक अनूठी मिसाल हैं। उन्होंने ध्यान किया लेकिन अपने ध्यान को अपने कार्य से भी संलग्न कर दिया। वे कपडा बुनते-बुनते 'झीनी-झीनी बीनी चदरिया के गीत गाने लगे और शिष्यों को बताते कि यह चादर वह राम के लिए बुन रहे हैं। फिर तो उनका साधारण कार्य ही असाधारण हो गया, उसमें पूजा जुड गई। ऐसा कार्य नित नया होता है, उसमें कोई बोरडम नहीं होती। जीवन तो पल-पल प्रवहमान है और प्रवहमान जीवन में कुछ भी पुराना नहीं हो सकता, जैसा कि हेरावलतु, यूनान का एक महान दार्शनिक कहता है, आप एक ही नदी में दुबारा पांव नहीं डाल सकते हैं, क्योंकि नदी का पानी निरंतर प्रवहमान है।
यह हमारी अपनी दृष्टि है, अपना नजरिया है कि हम अपने जीवन को एक नदी की भांति बनाते हैं या एक डबरे की भांति। डबरे का पानी एक जगह पडा रहता है, पडे-पडे वह सडऩे लगता है, वह सब प्रकार के विषाणुओं से भर जाता है। लेकिन नदी का पानी सदा स्वच्छ रहता है, क्योंकि वह प्रवहमान है।
हरमन हेस के उपन्यास 'सिद्धार्थ का नायक कहता है कि मैंने तो जीवन के गहरे रहस्य इस नदी से ही सीखे हैं, इसके प्रवाह में जीवन की सभी भाव-भंगिमाएं हैं, सभी उतार-चढाव हैं, मुझे जो एक बुद्ध से मिल सकता था, वह इस नदी से मिल गया।
आज के रहस्यदर्शी ओशो का भी यही सुझाव है, यही सिखावन है कि हम एक ऐसी जीवनशैली अपनाएं जिसमें हमारा जीवन नित नया हो, प्रतिपल नया हो। कोई हमारे जीवन को नया नहीं कर सकता, यह हमें स्वयं ही करना होगा और इसे भविष्य के लिए किसी पहली तारीख्ा के लिए नहीं टाला जा सकता। यह अभी करना है, इसी क्षण। और ऐसा नहीं है कि आप पूरे दिन को नया कर लेंगे या पूरे वर्ष को नया कर लेंगे, ऐसा नहीं है, एक-एक कण, एक-एक क्षण को नया करेंगे तो अंतत: पूरा दिन, पूरा वर्ष भी नया हो जाएगा। जैसा कि हम देखते हैं, एक-एक क्षण हमारे साथ निकला जा रहा है - जैसे रेत का दाना गिरता है रेत की घडी से, ऐसा एक-एक क्षण हमारे हाथ से फिसलता जा रहा है। एक क्षण को नया करने के लिए ध्यान रखें, अगले क्षण की िफक्र मत करें। अगला क्षण जब आएगा तब उसे नया कर लेंगे।
यह बोध जीवन के नए मंदिर में प्रवेश करा देता है, उस परमात्मा के निकट पहुंचा देता है जो जीवन का मूलस्रोत है, मूल धारा है। जो एक बार इस मूलस्रोत में नहा लेता है, उसके लिए इस जगत में कुछ भी पुराना नहीं रह जाता है। फिर कुछ भी पुराना नहीं है। फिर पुराना है ही नहीं। फिर उसके लिए मृत्यु जैसी चीज ही नहीं है। कुछ मरता ही नहीं, फिर उसके लिए बूढे जैसा कोई मामला ही नहीं, कुछ वृद्ध ही नहीं होता। तब उसे वृद्धावस्था भी एक नई अवस्था है, जो जवानी के बाद आती है। तब उसके लिए मृत्यु भी एक नया जन्म है, जो जन्म के बाद होता है। तब उसके लिए सब नए के द्वार खुलते चले जाते हैं -
अंतहीन नए के द्वार हैं।
लेकिन, जीवन को हम जिस ढंग से जीने के आदी हो गए हैं, हमने सब पुराना कर डाला है, उसमें नए के झूठे स्तंभ खडे कर रखे हैं- कि नए दिन, यह नया वर्ष। यह धोखे की व्यवस्था है जो हमने खडी कर ली है, लेकिन यह भी एक अर्थ में सहयोगी है। क्योंकि हम अपना मन बहला लेते हैं, पुराने को झेलने में समर्थ हो जाते हैं। ऐसा लगता है कि चलो अब कुछ नया आया हमारे जीवन में, अब कुछ नया होगा। वह कभी नहीं होता।
इसलिए बेहतर यह होगा कि हम इतने सस्ते से राजी न हो जाएं। जीवन को आमूल रूपांतरण दें और हम प्रतिपल नया जीवन जीने की कला सीखें। हमारा जीवन नया होगा तो हम एक नए मनुष्य होंगे। ऐसा नया मनुष्य जीवन की प्रत्येक भावभंगिमा का भरपूर आनंद लेता है, वह जीवन को सच्चे अर्थों में भोगता है और मुक्त हो जाता है।
बुद्धि और धृति
मशीन में दो यंत्र होते हैं, दिशा दिखाने वाला और गति बढाने वाला। दोनों की आवश्यकता होती है। वैसे ही मनुष्य के चित्त में एक 'बुद्धि है और दूसरी 'धृति धारणा-शक्ति, अपने को रोकने की शक्ति। मराठी में कहावत है : कलते पण वलत नाहीं। गुजराती में कहा : भण्या पण गुण्यां नथी। हिंदी में कहा जा सकता है कि पढे, पर गुने नहीं। समझने के बाद समझे हुए विचार को इंद्रियों का विषय बनाने के लिए थोडा नियंत्रण करना पडता है। वह माता-पिता का, गुरु का हो सकता है। अपना ख्ाुद का नियंत्रण हो, तो बहुत अच्छा होगा। जिसकी बुद्धि को एक विचार जंच गया, तो इसके आगे उस पर अमल करने के लिए कुछ करना ही नहीं है। अमल हो ही जाता है। यदि समझ में न आए, तो अमल नहीं होता। समझ में आने पर बीच में दूसरी ताकतें बाधा नहीं डालतीं। इसे सांख्य (ज्ञानी) कहते हैं। कुछ लोगों की निष्ठा पक्की होती है। उनका 'कन्विक्शन ज्ञान से होता है। उन्होंने विचार ग्रहण किया, तो पक्का ही होता है।
कुछ लोगों को प्रयोग द्वारा विश्वास होता है। दस-पांच त्रिकोण लेकर नापा जाए और फिर तय किया जाए कि तीन कोण का जोड 180 होगा, पर दस त्रिकोण पर भी ग्यारहवें में कुछ दूसरा निकल सकता है। इस तरह प्रयोग में कुछ संशय रहता है। इसलिए पक्का तभी होगा, जब ज्ञान से ग्रहण होगा। एक 'अनकंडिशनल ट्रैंगल लेकर उसमें वह बात सिद्ध कर दी गई, तो सब त्रिकोणों में सिद्ध हुई। लेकिन कुछ लोगों का मन ऐसा होता है कि उन्हें प्रयोग की जरूरत नहीं रहती है। इस तरह समझने के बाद अमल में लाने के लिए बूझने की जरूरत रहती है।
स्वामी चैतन्य कीर्ति