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शाम की ऐतिहासिक सैर

दिल्ली में पर्यटन स्थलों की कमी नहीं है। यहां घूमने निकलो तो समय कम पड़ जाए। आउटिंग की कड़ी में इस बार हम ले रहे हैं अपनी पाठिका का भेजा गया संस्मरण।

By Edited By: Published: Tue, 22 Nov 2016 10:59 AM (IST)Updated: Tue, 22 Nov 2016 10:59 AM (IST)
जब धूप की तल्खी कम होने लगे, शामें मुलायम होने लगें तो लगता है कि मौसम करवट ले रहा है। खुद-ब-खुद पांव घर के बाहर चलने को मचल उठते हैं। एक ऐसी ही शाम हमने कुतुब मीनार का रुख कर लिया। यह सप्ताह के सभी दिन आम जनता के लिए सूर्योदय से सूर्यास्त तक खुला रहता है। महरौली मेट्रो रूट पर है इसलिए यहां जाना ज्यादा मुश्किल भी नहीं। दिल्ली बडा अनोखा शहर है जहां नया-पुराना साथ-साथ बिखरा पडा है। इसे देख एक अनोखी खुशी हमेशा महसूस होती है। जीवंतता का एहसास महरौली मेट्रो स्टेशन से उतर कर हमने कुतुब मीनार पहुंचने के लिए ऑटो कर लिया। यह इलाका काफी हरा-भरा है और यहां बीते दिनों के निशान साफ-साफ दिखते हैं। पूरे रास्ते सडक किनारे फूल वालों की दुकानें थीं जिन्हें नजरअंदाज कर पाना मुश्किल था। अचानक रास्ते की भीड, चिल्लाती गाडिय़ों को देख मुझे प्रसिद्ध इतिहासकार, पर्सेवल स्पेयर की याद आ गई। कितने सौभाग्यशाली थे वो कि अपनी साइकल पर दिल्ली घूमा करते और शहर के इतिहास को जी भर संजोते थे। महरौली आना किसी मेहर या सौभाग्य से कम नहीं क्योंकि महरौली का अर्थ है वो जगह जिस पर ख्वाजा कुतुबुद्दीन की मेहरबानी हो। वो सामने वक्त के प्रहार, मौसम की मार झेलती अचल अटल कुतुब मीनार एक सशक्त प्रहरी की तरह नजर आ रही थी। एक कौतूहल, उल्लास अंदर उमड पडा। हर बार एक नयापन महसूस होता है इस प्राचीन इमारत में। जानें यहां का इतिहास इस मीनार का निर्माण कराने के पीछे की वजहें दिलचस्प हैं। मीनार का निर्माण शायद नमाज अदा करने की सूचना देने के लिए हुआ होगा लेकिन फिर यह लगता है कि इतनी ऊंचाई से आवाज कहां सुनाई देती होगी। शायद यह एक विजय स्तम्भ रहा होगा, अपने सम्राट के यश और गौरव का मूक साक्ष्य! एक इमारत और अनेकों कहानियां और रहस्य! 234 फीट ऊंची यह इमारत कुतुबुद्दीन ऐबक ने 1192 में बनवानी शुरू की और इल्तुत्मिश ने इसे 1236 में पूरा कराया। यह मीनार सीधी नहीं बल्कि झुकी हुई है क्योंकि इसने कई भूकंप और आसमान की बिजली को अपने ऊपर झेला है। इसकी तुलना इटली की विश्व विख्यात पीसा की झुकी मीनार से की जाती है। मीनार की बाहरी दीवार खूबसूरत नक्काशी से सजी है। इसमें खूबसूरत बेल बूटों के साथ-साथ कुरान की आयतें उकेरी गई हैं। 1981 तक इसकी 378 सीढिय़ों पर चढऩे की अनुमति थी। कुछ घटनाओं के बाद से उन पर चढऩा प्रतिबंधित कर दिया गया है। मीनार से लगे बाग में एक समय बहादुर शाह अपनी रानियों के साथ आया करते थे और पास के जंगल में शिकार खेलने जाते। इस बीच रानियां फलों के पेड से फल तोडती जिन्हें लाल किले ले जाया जाता था। आप सोच सकते हैं कि जिस जमीन पर खडे हैं वहां कितने कदमों के निशां हैं। अर्चना शर्मा

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