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हुनर जिंदगी संवारने का

सब ठीक हो जाएगा। यह छोटा सा वाक्य सुनने में जितना मामूली लगता है, वास्तव में उतना होता नहीं। यहीं से बुनियाद पड़ती है उस सोच की, जो हमें मुश्किल हालात से लडऩे का हौसला देती है। आख़्िार कौन होते हैं वे लोग जिनके इस यकीन पर दूसरों को भी

By Edited By: Published: Thu, 20 Aug 2015 03:13 PM (IST)Updated: Thu, 20 Aug 2015 03:13 PM (IST)
हुनर जिंदगी संवारने का

सब ठीक हो जाएगा। यह छोटा सा वाक्य सुनने में जितना मामूली लगता है, वास्तव में उतना होता नहीं। यहीं से बुनियाद पडती है उस सोच की, जो हमें मुश्किल हालात से लडऩे का हौसला देती है। आख्िार कौन होते हैं वे लोग जिनके इस यकीन पर दूसरों को भी यकीन होने लगता है कि कुछ भी असंभव नहीं। ऐसे लोगों में कहां से आता है इतना हौसला, वे कैसे जीत लेते हैं हर जंग, उनकी शख्सीयत में कौन सी ऐसी ख्ाास बात होती है, जो ऐसे आम लोगों को भी ख्ाास बना देती है। इन्हीं सवालों के जवाब ढूंढ रही हैं विनीता।

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जरा सोचिए, अगर कभी रास्ते में आपकी कार ख्ाराब हो जाए तो आपको कैसा लगेगा? जाहिर है बुरा लगेगा और निश्चित रूप से आपको थोडी घबराहट भी होगी। अब गराज में काम कर रहे उस मेकैनिक के बारे में सोचिए क्या वह भी आपकी तरह परेशान होगा, नहीं बिलकुल नहीं। पूरी गाडी का मुआइना करने के बाद वह कुछ ही मिनटों में बता देगा कि उसमें क्या ख्ाराबी है और उसे दुरुस्त करने के लिए उसके किन पाट्र्स को बदलने की जरूरत पडेगी। हो सकता है कि यह सुनकर आप कहें कि इसमें कौन सी बडी बात है?..लेकिन यहां बात सिर्फ ख्ाराब कार या मेकैनिक की नहीं, बल्कि उस सोच की है, जो हमें हर बिगडी हुई चीज को सुधार कर आगे बढऩे का हौसला देती है।

हर कदम कामयाबी की ओर

अगर मन में हौसला हो तो देर से ही सही, लेकिन कामयाबी जरूर मिलती है। बिहार के गया जिले के मजदूर दशरथ मांझी का जीवन इस बात की जीती-जागती मिसाल है। सही समय पर उपचार न मिल पाने की वजह से उनकी पत्नी की मौत हो गई। अगर रास्ते में पहाड न होता तो जल्दी अस्पताल पहुंचाकर उन्हें बचाया जा सकता था। इसी सोच ने उन्हें पहाड का सीना चीर कर रास्ता बनाने के लिए प्रेरित किया। जब उन्होंने इस काम की शुरुआत की तो लोगों ने उन्हें पागल और सनकी कहा, लेकिन इन बातों की परवाह किए बगैर वह अपने प्रयास में जुटे रहे। लगभग 22 वर्षों के अथक प्रयास के बाद उन्होंने 360 फुट लंबा और 30 फुट चौडा रास्ता तैयार किया। उस पथरीले रास्ते से पहले भी न जाने कितने लोग गुजरते रहे होंगे और उन्हें ठोकर भी लगती होगी, पर उनके मन में चट्टानों को तोड कर रास्ता बनाने का ख्ायाल कभी नहीं आया। ऐसे में जब दशरथ मांझी जैसे किसी जिद्दी इंसान की नजर उस पथरीले रास्ते पर पडती है तो वह उसे सुधारने की ठान लेता है और यही अथक प्रयास अंतत: उसे कामयाबी दिलाता है।

जुनून की हद तक जिद

यह सच है कि जिद को प्राय: नकारात्मक अवधारणा के रूप में देखा जाता है, लेकिन इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि बिगडी हुई चीजों को सुधारने और संवारने का हौसला रखने वाले लोगों के व्यक्तित्व में जिद्दीपन की भावना प्रबल होती है। किसी भी काम को हर हाल में अंजाम तक पहुंचाने का जुनून ही व्यक्ति को कुछ अलग कर गुजरने की प्रेरणा देता है। अमेरिकी वैज्ञानिक थॉमस अल्वा एडिसन जब बिजली का बल्ब बना रहे थे तो पूरे 1,000 प्रयासों के बादउन्हें कामयाबी मिली। अगर वह बीच में ही हार मान लेते तो बिजली के बल्ब का आविष्कार संभव न हो पाता। इस संदर्भ में उनका कहना था, 'इसे मैं नाकामी नहीं मानता, बल्कि बल्ब बनाने की प्रक्रिया के दौरान 999 स्टेप्स आते हैं और उन्हें पार करने के बाद ही मैं अपने आविष्कार तक पहुंच पाया।

संवारने का सुख

यहां बात सिर्फ कामयाबी की नहीं है, बल्कि यह मामला परफेक्शन से भी जुडा है। कुछ लोग जन्मजात रूप से बहुत ज्य़ादा परफेक्शनिस्ट होते हैं। कोई भी बिगडी हुई चीज उन्हें बहुत ज्य़ादा परेशान करती है। जब तक वे उसे दुरुस्त न कर लें उनके मन को चैन नहीं मिलता। कार्टूनिस्ट आबिद सुरती उम्र के सातवें दशक को पार चुके हैं, उन्हें पानी की बर्बादी देखकर इतना दुख होता है कि उन्होंने स्वेच्छा से इस गडबडी को दुरुस्त करने की जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ली है। वह जब भी घर से बाहर निकलते हैं, छोटी सी किट अपने साथ लेकर चलते हैं, जिसमें बिगडे नल की मरम्मत से जुडी सारी जरूरी चीजें मौजूद होती हैं। रास्ते में जहां भी उन्हें कोई टपकता हुआ नल दिखाई देता है तो वह बीच में रुक कर उसे ठीक कर देते हैं। इस बारे में उनका कहना है, 'भले ही मेरी इस छोटी सी कोशिश से पानी की बर्बादी को पूरी तरह रोक पाना संभव न हो, फिर भी इससे मुझे अलग ही तरह की संतुष्टि मिलती है, जिसे शब्दों में बयां कर पाना मुश्किल है।

छोटी सही शुरुआत तो हो

अगर हमारे आसपास कुछ भी ख्ाराब, गलत या बदहाल है तो उसे सुधार कर बेहतर बनाने की छोटी सी कोशिश भी बहुत मायने रखती है। प्रयास भले ही छोटा हो, लेकिन इरादे बुलंद होने चाहिए। पुरानी दिल्ली के फुटपाथ पर सोते बच्चों को देखकर कारपोरेट वल्र्ड में कार्यरत अंशु गुप्ता के मन में यह ख्ायाल आया कि खाने की तरह कपडों की कमी भी एक ऐसी बडी समस्या है, जिसकी वजह से सर्दियों में सैकडों लोगों की मौत हो जाती है। प्राय: लोगों के घरों में ढेर सारे ऐसे कपडे, चादर और कंबल जैसी चीजें अच्छी हालत में होती हैं, जिनका वे इस्तेमाल नहीं कर रहे होते। अगर ऐसी चीजों को जमा करके उन्हें जरूरतमंदों के बीच बांट दिया जाए तो उनके लिए जिंदगी थोडी आसान हो जाएगी। एक अकेले युवक की इसी कोशिश से शुरुआत हुई जरूरतमंदों के लिए काम करने वाली स्वयंसेवी संस्था 'गूंज की। लगातार सोलह वर्षों तक की गई उनकी यह मेहनत रंग लाने लगी। इसी प्रयास के लिए हाल ही में उन्हें रेमन मैग्सेसे पुरस्कार से सम्मानित किया गया है। इस संबंध में अंशु कहते हैं, 'हमारे परिवार का माहौल कुछ ऐसा था कि मुझे बचपन से ही कडी मेहनत करने की आदत पड गई थी। राह में बहुत बाधाएं आईं, लेकिन मुश्किलों से लडकर मैं और ज्य़ादा मजबूत हो जाता हूं।

परवरिश की परछाईं

किसी भी इंसान के व्यक्तित्व पर उसकी पारिवारिक पृष्ठभूमि की छाप स्पष्ट रूप से दिखाई देती है। इसके अलावा स्कूल, पास-पडोस और दोस्तों का भी बच्चों के व्यक्तित्व पर गहरा असर पडता है। इस संबंध में मनोवैज्ञानिक सलाहकार गीतिका कपूर कहती हैं, 'बचपन में हमें जैसी परवरिश दी जाती है, ताउम्र हमारे व्यक्तित्व पर उसका प्रभाव दिखाई देता है। जिन परिवारों में माता-पिता सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाते हैं। वहां पलने वाले बच्चे आशावादी और धैर्यवान होते हैं। अगर पेरेंट्स परिवार, रिश्तों और चीजों को संवारने की कोशिश करते हैं तो बच्चों में भी सहज रूप से यही आदत विकसित होती है। अगर माता-पिता आत्मविश्वास से परिपूर्ण हों तो उनके बच्चे भी निडर होकर मुश्किलों का सामना करना सीख जाते हैं। अगर उनके सामने कोई परेशानी आती है तो वे उससे घबराने के बजाय उसे चुनौती के रूप में स्वीकारते हैं और उनकी यह आदत भविष्य में भी उन्हें जुझारू बनाती है।

मुश्किलें बढाती हैं हौसला

व्यक्ति के धैर्य और कार्यकुशलता की परीक्षा मुश्किल घडी में ही होती है। जिस तरह आग में तपने के बाद ही खरा सोना तैयार होता है, उसी तरह इंसान का व्यक्तित्व भी बाधाओं से जूझने के बाद ही निखरता है। माउंट एवरेस्ट पर तिरंगा फहराने वाली अरुणिमा सिन्हा वॉलीबॉल की खिलाडी रह चुकी हैं। एक बार ट्रेन यात्रा के दौरान जब उन्होंने जेबकतरों का विरोध किया तो उन बदमाशों ने अरुणिमा को चलती ट्रेन से नीचे फेंक दिया। उस दुर्घटना में वह अपना एक पैर गंवा बैठीं, पर हिम्मत नहीं हारी। अरुणिमा ने तय कर लिया कि अब मैं कुछ ऐसा करके दिखाऊंगी कि दुनिया मुझे हमेशा याद रखेगी। अस्पताल से छुट्टी मिलने के बाद वह सीधे टाटा स्टील एडवेंचर फाउंडेशन की अध्यक्ष बछेंद्री पाल से मिलने जमश्ेादपुर गईं और उनसे कहा कि मैं माउंटेंनियरिंग करना चाहती हूं। फिर कई महीनों के कडे प्रशिक्षण के बाद वह माउंट एवरेस्ट पर जाने वाले दल में शमिल हुईं और मई 2013 में वहां से कामयाब हो कर लौटीं। उसके बाद से माउंटेनियरिंग के फील्ड में उनकी सक्रियता बरकरार है। उनका कहना है कि उस दुर्घटना को उन्होंने चुनौती के रूप में स्वीकारा और राह में आने वाली मुश्किलों ने ही उन्हें आगे बढऩे के लिए प्रेरित किया।

चाहत चुनौतियों की

बदलते समय के साथ लोगों की जीवनशैली जटिल होती जा रही है। अब लोगों को थोडे से समय में ढेर सारा काम अच्छे ढंग से पूरा करना पडता है। जहां टेक्नोलॉजी ने कई कार्यों को हमारे लिए बहुत आसान बना दिया है, वहीं दूसरी ओर जीवन के हर मोड पर हमें नई चुनौतियों का सामना करना पडता है। अब लोगों को हमेशा व्यस्त रहने की ऐसी आदत पड चुकी है कि वे थोडी देर के लिए भी खाली नहीं बैठ पाते। आकाश जैन एक बहुराष्ट्रीय कंपनी के मार्केट रिसर्च डिपार्टमेंट में कार्यरत हैं। वह कहते हैं, 'टारगेट, परफॉर्मेंस और डेडलाइन जैसे शब्द हमारी जिंदगी पर इस तरह हावी हो चुके हैं कि हम हमेशा इन्हीं के बारे में सोच रहे होते हैं। पर्सनल लाइफ में भी हम ऐसे ही दबावों से घिरे रहते हैं। इस जीवनशैली ने हमें इतना वर्कोहॉलिक बना दिया है कि अगर छुट्टी वाले दिन भी घर पर खाली बैठना पडे तो ऐसा लगता है कि बहुत बीमार हूं। इसीलिए मैं हर वीकएंड में सपरिवार कहीं घूमने निकल जाता हूं। समय के साथ लोगों के सोचने-समझने के तरीके में भी काफी बदलाव आया है। अब चुनौतियां स्वीकारना लोगों के लिए उत्साहजनक गेम बन चुका है। अगर उनके सामने कोई नई चुनौती न हो वे बहुत जल्दी बोरियत महसूस करने लगते हैं। पिछली पीढी जहां अपनी सोच और जीवनशैली में स्थिरता चाहती थी, वहीं नई पीढी रुकने के बजाय हमेशा चलते रहने में यकीन रखती है। वह अपने जीवन में नए प्रयोग करने या किसी भी तरह का रिस्क लेना से नहीं डरती। नाकामी का भय अब युवाओं को नहीं डराता। हार का अफसोस मना कर वे अपना वक्त जाया नहीं करते। दुखद यादों को भुलाकर अब लोग अपनी जिंदगी संवारने की कला सीख रहे हैं।

असर संस्कृति का

व्यक्ति जिस समाज में रहता है, वहां की संस्कृति का उसकी सोच पर गहरा असर दिखाई देता है। भारतीय संस्कृति का एक सकारात्मक पहलू यह है कि पश्चिमी समाज की तरह 'यूज एंड थ्रो कल्चर यहां अभी तक अपनी जडें नहीं जमा पाया है। छोटे शहरों और गांव की आबादी का बडा हिस्सा आज भी जुगाड टेक्नोलॉजी के सहारे अपनी जरूरतें पूरी करता है। हमारे समाज में शुरू से ही सोच-समझकर ख्ार्च करने की आदत को बढावा दिया जाता रहा है। इसके अलावा भारतीय समाज मेें लोग अपनी चीजों के साथ गहरा भावनात्मक लगाव महसूस करते हैं। इसीलिए वे अपने पुराने फर्नीचर या टीवी, फ्रिज जैसे घरेलू उपकरणों की मरम्मत करवा के उन्हीं का दोबारा इस्तेमाल करते हैं। कई बार तो रिपेयरिंग चार्ज के तौर वे इतने पैसे ख्ार्च कर चुके होते हैं कि उससे नया सामान ख्ारीदा जा सकता था, पर चीजों के साथ लोगों की भावनाएं जुडी होती हैं। इसीलिए अपने देश में रिपेयरिंग का रोजगार आज भी काफी फल-फूल रहा है। लोगों की यह मानसिकता केवल भौतिक वस्तुओं तक सीमित नहीं है, बल्कि जब भी जरूरत महसूस होती है वे अपने रिश्तों में आने वाली गडबडिय़ों को भी सुधार लेते हैं। यही वजह है कि आज भी भारत में संयुक्त परिवार की अवधारणा जीवित है। महानगरों में छोटे फ्लैट्स होने की वजह से दो-तीन भाइयों का परिवार भले ही एक छत के नीचे नहीं रह पाता, लेकिन उनके भावनात्मक बंधन की डोर बेहद मजबूत है। इसी वजह से दूर रहने के बावजूद वे त्योहार और छुट्टियों जैसे अवसरों पर एक-दूसरे के घर जाते हैं। भारतीय परिवारों में टूटी-बिखरी चीजों को संवारने-सहेजने की सीख बचपन से ही लडकियों को दी जाती है। इसी वजह से मुश्किल हालात में भी वे अपने दांपत्य जीवन को बचाए रखती हैं। जॉब में होने के बावजूद भारतीय स्त्रियां करियर और परिवार के बीच संतुलन बनाए रखती हैं।

संबल अध्यात्म का

चाहे भावनाएं हों या विचार। रिश्ते हों या करियर। संतुलन की जरूरत जीवन के हर कदम पर होती है। हमारी संस्कृति भी हमें यही सिखाती है। गौतम बुद्ध ने अपने शिष्यों से कहा था कि तुम वीणा के तारों को इतना मत कसो कि वे टूट जाएं और उन्हें इतना ढीला भी मत छोडो कि उनसे स्वर ही न निकलें। हमें बचपन ही ईश्वर के प्रति आस्थावान बने रहते हुए अच्छे कार्यों के लिए प्रेरित किया जाता है और बुराइयों से दूर रहने की सीख दी जाती है। अध्यात्म से जुडाव व्यक्ति के मन में जीवन के प्रति आशा जगाता है। ईश्वर की कृपा से सब ठीक हो जाएगा, यही सोच व्यक्ति को कठिन हालात से लडऩे की ताकत देती है और बाधाओं के चक्रव्यूह से बाहर निकलने का रास्ता दिखाती है।

जिंदगी में चाहे कितनी ही मुश्किलें क्यों न आएं, पर वह हर हाल में बेहद ख्ाूबसूरत है, बस हमारे दिलों में उसे संवारने का जज्बा बरकरार रहना चाहिए।

पॉजिटिव बातें देती हैं हौसला

स्वरा भास्कर, अभिनेत्री

हर इंसान की जिंदगी में कुछ ऐसे पडाव आते हैं, जहां चुनौतियां ज्य़ादा होती हैं और रास्ते कम नजर आते हैं। ऐसे हालात में मैं उम्मीद का दामन नहीं छोडती। जीतोड मेहनत करती हूं। तब मैं ईश्वर को भी ज्यादा याद करती हूं। मेरा मानना है कि भगवान भी तभी मदद करता है, जब हम प्रयास करेंं। कुछ साल पहले मेरे एक करीबी दोस्त गंभीर रूप से बीमार हो गए। उस समय मैं मुंबई में अकेले थी। पूरे एक साल तक उनके साथ मैं भी अस्पताल के चक्कर काटती रही। वह मेरे जीवन का बेहद कठिन समय था। निराशा भरे इस दौर में मेरे परिवार और दोस्तों ने हमारी बहुत मदद की। मुझे समझाया कि बुरे दिन भी अच्छे दिनों की तरह बहुत जल्दी बीत जाएंगे। फिर कुछ समय बाद मेरे दोस्त की तबियत ठीक हो गई। जीवन के उस दौर ने हमें सिखाया कि हालात कैसे भी हों हमें हमेशा धैर्य से काम लेना चाहिए। हताश होने पर सोचने-समझने की क्षमता भी प्रभावित होती है। बॉलीवुड में मेरा सफर खरगोश और कछुए की दौड की तरह रहा, जिसमें मैं बहुत धीरे-धीरे कछुए की तरह आगे बढती रही। ऑडिशन में कई बार रिजेक्ट हुई। लिहाजा नाकामी झेलना और उससे जूझना अब मेरी आदत बन चुकी है। जब हम स्कूल में थे तो वहां हरिवंश राय 'बच्चन की कविता को असेंबली में प्रार्थना की तरह गाते थे-'लहरों से डरकर नौका पार नहीं होती, कोशिश करने वालों की हार नहीं होती। मुंबई आने के बाद जब भी मेरा मन निराश होता है तो मैं उन्हीं पंक्तियों को याद करती हूं। यह कविता हमेशा मेरा मनोबल बढाती है। नाकामी किसी को पसंद नहीं आती, पर मुश्किलों के बीच से ही हमें कोई न कोई रास्ता ढूंढना पडता है। प्रोफेशनल लाइफ में तनाव होना स्वाभाविक है। अगर मेरी परेशानियों का कोई हल नहीं निकलता तो मैं यही सोचती हूं कि यह दुनिया बहुत बडी है और बॉलीवुड तो इसका छोटा सा हिस्सा है, यहां नहीं तो कहीं और पहचान बन जाएगी। जब कभी उदास होती हूं तो अपने दोस्तों से राय लेती हूं। उनकी पॉजिटिव बातों से मेरा सारा स्ट्रेस दूर हो जाता है।

डर कर भागने से मुश्किलें दूर नहीं होतीं अक्षय कुमार, अभिनेता

जीवन है तो मुश्किलें आएंगी ही। आप उनसे भाग नहीं सकते। आपको उनसे लडऩा तो पडेगा ही। दुनिया में कोई ऐसा इंसान नहीं जिसने मुश्किलों का सामना न किया हो। जहां तक मेरे अनुभवों का सवाल है तो मेरे जीवन में भी कई उतार-चढाव आए, पर मैं अपने इरादे पर डटा रहा। फिल्में आती-जाती रहती हैं। एक फिल्म के फ्लॉप होने पर भी दूसरी, फिर तीसरी करने की प्रक्रिया जारी रहती है। कोई न कोई फिल्म दर्शकों को पसंद आएगी। यही सोचकर मैं लगातार कोशिश में जुटा रहता हूं। कहने का मतलब यह है कि प्रयास हर हाल में जारी रहे। एक समय वह भी था , जब एक के बाद एक मेरी चौदह फिल्में फ्लॉप हुईं, पर मेरी मेहनत पर इसका कोई असर नहीं पडा। फिर उसके बाद मेरी कई फिल्में हिट हुई। अगर मैं हार मान लेता तो इसका असर मेरी परफॉर्मेंस पर पडता। मैंने हार नहीं मानी, बल्कि अपना काम और ज्य़ादा मेहनत से करने लगा और उसका फल मुझे मिला। मेरा उसूल है कि हमें मुश्किलों से डर कर भागना नहीं चाहिए।

उम्मीद का साथ नहीं छोडती

डॉ. वनिता अरोडा, डायरेक्टर कार्डियो

िफजियोलॉजी डिपार्टमेंट, मैक्स हॉस्पिटल दिल्ली

जिस फील्ड में मेरा स्पेशलाइजेशन है, वहां कॉर्डियक अरेस्ट की समस्या से पीडित मरीज आते हैं। यह वैसी शारीरिक अवस्था है, जब व्यक्ति का दिल कुछ पलों के लिए धडकना बंद कर देता या कई बार बहुत तेजी से धडकने लगता है। दोनों ही स्थितियां मरीज के लिए जानलेवा साबित होती हैं। ऐसे में हमारे लिए एक-एक सेकंड बहुत कीमती होता है। ऐसी स्थिति में जरा सी भी देर या लापरवाही बर्दाश्त नहीं की जा सकती। जब हमारे सामने कोई ऐसा मरीज आता है तो उसके दिल के धडकनों की मॉनिटरिंग की जरूरत होती है और कुछ ही मिनटों के अंदर कई बडे निर्णय लेने होते हैं, इसके लिए हमारी पूरी टीम को बहुत ज्य़ादा सतर्क रहना पडता है। अगर हृदय गति धीमी हो तो अस्थायी रूप से पेसमेकर की मदद ली जाती है। अगर दिल तेजी से धडक रहा हो तो उसे इलेक्ट्रिक शॉक के जरिये सामान्य अवस्था में लाया जाता है। ज्य़ादा गंभीर अवस्था होने पर सर्जरी के जरिये मरीज के दिल में एआइसीडी नामक डिवाइस फिट किया जाता है, जो कंप्यूटर के माइक्रोचिप की तरह काम करता है। यह दिल की धडकन को अनियंत्रित नहीं होने देता और इसकी मदद से कार्डियक अरेस्ट का ख्ातरा टल जाता है। हमारे पास वही मरीज आते हैं, जिन्हें आकस्मिक रूप से उपचार की जरूरत होती है। ट्रीटमेंट शुरू करने से पहले मैं ईश्वर से प्रार्थना जरूर करती हूं क्योंकि जीवन-मृत्यु का निर्णय उसी के हाथ में होता है, लेकिन अंतिम समय तक कोशिश करना हमारी जिम्मेदारी है। मेरा मानना है कि अगर ईमानदारी से कोशिश की जाए तो कामयाबी जरूर मिलती है।

सुरक्षा है पहली प्राथमिकता

हर्षिनी कान्हेकर, फायर इंजीनियर,ओएनजीसी

मैं ख्ाुद को ख्ाुशिकस्मत मानती हूं कि मुझे देश की पहली लेडी फायर इंजीनियर होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। हालांकि, मेरे मन में पहले से ऐसी कोई योजना नहीं थी। कॉलेज के दिनों में मैं एनसीसी की कैडेट जरूर थी और किसी ऐसे प्रोफेशन में जाना चाहती थी, जहां मुझे वर्दी पहन कर देश की सेवा करने का मौका मिले। आर्मी में जाने की बात सोच ही रही थी, तभी मुझे फायर सर्विस के बारे में मालूम हुआ तो मैंने यहां के लिए आवेदन कर दिया। यहां हमारी बहुत कडी ट्रेनिंग होती है, जिसके तहत हेवी वेकल ड्राइविंग से लेकर पैरामेडिकल सर्विस तक का प्रशिक्षण दिया जाता है। इसके अलावा हमें फायर लॉ और साइकोलॉजी भी पढाई जाती है। लीडरशिप के साथ कम्युनिकेशन स्किल की भी ट्रेनिंग दी जाती है। जैसे ही हमें आग लगने की सूचना मिलती है, हम अपनी टीम के साथ निकल पडते हैं। तब हमारे लिए एक-एक सेकंड बहुत कीमती होता है। हम रास्ते में रिस्क कैलकुलेट करते हुए चल रहे होते हैं कि अगर हमें फायर स्टेशन से घटना स्थल तक पहुंचने में आधे घंटे लगते हैं तो उतनी देर में आग कितनी दूर तक फैल चुकी होगी और उसके लिए हमें कितने साधनों की जरूरत होगी। हम पूरे रास्ते फोन के जरिये अपने फायर स्टेशनों और घटनास्थल से सपंर्क बनाए रखते हैं। हमारी यह भी कोशिश होती है कि हमारे पहुंचने से पहले आसपास मौजूद लोगों और समान को हटा कर सुरक्षित स्थान पर पहुंचाया जा सके। इसके लिए हम स्थानीय लोगों और सिक्यूरिटी गाड्र्स की भी मदद लेते हैं। इस कार्य में पूरी टीम के बीच सही तालमेल होना बहुत जरूरी है। हमारी यही कोशिश होती है कि आग लगने के बाद जान-माल का कम से कम नुकसान हो। इसके लिए हमें पहले से ही पूरी तैयारी करके चलने का प्रशिक्षण दिया जाता है। हो सकता कि हम अपने साथ जितने साधन ले जाएं, उनका उपयोग न हो, पर हमें पूरा इंतजाम रखना पडता है क्योंकि लोगों की सुरक्षा हमारी पहली प्राथमिकता है।

बुरे हालात से क्यों घबराना

सिद्धार्थ मल्होत्रा, अभिनेता

जिंदगी में मुश्किलों से सभी को रूबरू होना पडता है। ऐसे हालात से घबराने के बजाय मैं उनका डटकर सामना करने में यकीन रखता हूं। मेरे लिए जीवन चलते रहने का नाम है। दिल्ली से मुंबई आकर मैंने कई वर्षों तक स्ट्रगल किया, पर मुश्किलों से घबराकर अपना इरादा नहीं बदला। स्कूल में जब हम किसी खेल में हारते थे तो हमारे टीचर हमेशा यही कहते थे कि दोबारा कोशिश करो। वह हमें हमेशा जीतने के लिए प्रोत्साहित करते थे। यह हमारे ऊपर पर निर्भर करता है कि हम चीजों को किस नजरिये से देखते हैं। अगर सोच सकारात्मक है तो काम के प्रति समर्पण बना रहेगा। अगर हम नकारात्मक सोच रखेंगे तो काम का बिगडऩा निश्चित है। मुश्किल हालात इंसान को जीने की प्रेरणा देते हैं। अगर जीवन में सब कुछ सुखद होगा तो कुछ समय बाद इंसान को उससे भी बोरियत होने लगेगी। कडवाहट भरा स्वाद चखने के बाद ही मिठास का असली मजा आता है। इसलिए हमें मुश्किलों से कभी नहीं घबराना चाहिए।

पहले से तैयारी है जरूरी

प्रो. चंदन घोष, विभागाध्यक्ष राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन संस्थान

हमारे संस्थान में आपदा प्रबंधन से जुडे अधिकारियों को ट्रेनिंग दी जाती है। उनके इस प्रशिक्षण में घटना स्थल पर जाकर लोगों को राहत पहुंचाने से जुडी तकनीकी दक्षता के अलावा उन्हें मनोवैज्ञानिक प्रशिक्षण भी दिया जाता है, जिसके तहत उन्हें प्रतिकूल परिस्थितियों में भी धैर्यपूर्वक काम करना सिखाया जाता है। इंसीडेंट रेस्पांस सिस्टम का प्रशिक्षण देकर उन्हें किसी भी आकस्मिक स्थिति के लिए तुरंत तैयार होना सिखाया जाता है। जून 2013 में उत्तराखंड में बादल फटने के बाद भयंकर बाढ आई थी। तब आपदा प्रबंधन से जुडे अधिकारियों ने बडे धैर्य का परिचय था। उस दौरान राहत सामग्री पहुंचाने वाला हेलिकॉप्टर भी क्षतिग्रस्त हो गया था। फिर भी उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। हमें अपने अनुभवों से भी बहुत कुछ सीखने को मिलता है। हमें पहले से यह मान कर चलना होता है कि भविष्य में और भी गंभीर आपदाओं से जूझना पड सकता है। इसके लिए पहले से ही तकनीकी और मानसिक तैयारी अनिवार्य है। इस मामले में हमें जापान से सीख लेनी चाहिए। वहां डिजास्टर मैनेजमेंट की रणनीति बहुत मजबूत है। वहां अकसर भूकंप आते हैं, जिससे निबटने के लिए ऊंची इमारतों के कंस्ट्रक्शन में ऐसी तकनीक का इस्तेमाल किया जाता है, जो आसानी से भूकंप के झटके झेल सकें। आपदा प्रबंधन का मूलमंत्र यही है कि प्राकृतिक आपदाओं को रोकना इंसान के वश में नहीं है, लेकिन हमें उनसे निबटने के लिए हमेशा तैयार रहना चाहिए ताकि उससे होने वाले नुकसान को रोका जा सके।

आशावादी हूं मैं

राजपाल यादव, अभिनेता

जिसे लोग नाकामी समझते हैं, उसे मैं अपने लिए सबक मानता हूं। पुरानी गलतियों को फिर कभी न दोहराने की सीख लेकर आगे बढ जाता हूं। मैं इस बात में यकीन रखता हूं कि मन के हारे हार है, मन के जीते जीत। अगर हम ठान लें तो कोई भी काम मुश्किल नहीं। सभी की जिंदगी में उतार-चढाव आते हैं। दुनिया के सभी कामयाब लोग कई बाधाओं को पार करके ही आगे बढते हैं। संघर्ष के साथ अगर हमारी सोच पॉजिटिव हो तो सफलता जरूर मिलती है। यह सच है कि सफलता आसानी से नहीं मिलती। मंजिल की ओर बढऩे के बाद बीच राह में आने वाली बाधाओं से हमें घबराना नहीं चाहिए। मेहनत, हिम्मत और लगन हमेशा से सफलता के मंत्र रहे हैं। मेरे जीवन में भी कई ऐसे मोड आए जब मैं मुझे ऐसा लगा कि सब कुछ ख्ात्म हो गया, पर मुश्किल हालात में भी मैंने अपना मनोबल बनाए रखा। ऐसे उदासी भरे पलों में मैं हमेशा यही सोचता हूं कि दुख के इन्हीं बादलों के पीछे कहीं न कहीं उम्मीद की कोई किरण छिपी होगी। इसी सकारात्मक सोच के सहारे अभिनय की दुनिया में मैं पिछले 25 वर्षों से टिका हूं और मुझे उम्म्ीद है कि एक दिन मेरी मेहनत रंग लाएगी।

इंटरव्यू : मुंबई से स्मिता श्रीवास्तव एवं दिल्ली से विनीता


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