ये खुशबू हिंदी की है
अलग-अलग भाषाओं के उपन्यास हिंदी में अनूदित होते ही रहते हैं पर अब हिंदी उपन्यास अन्य भाषाओँ में खूब अनूदित हो रहे हैं।हिंदी के प्रति दिलचस्पी बढ़ने की क्या है वजह स्मिता की रिपोर्ट।
उन्नीसवीं सदी के आखिर में देवकीनंदन खत्री ने कई खंडों वाला ‘चंद्रकांता’ उपन्यास लिखा। इसने सबका मन मोह लिया। इसके रसास्वादन के लिए तमाम गैर हिंदी भाषियों ने हिंदी सीख ली। अब तक यह श्रंखला 30 से अधिक भाषाओं में अनूदित हो चुकी है। इसी तरह ‘गोदान’, ‘कर्मभूमि’ सहित कई दूसरे उपन्यास और कविता संग्रह हैं, जिनका अनुवाद समय-समय पर दूसरी भाषाओं में होता रहा है। हाल के कुछ वर्षों में इस काम में जबर्दस्त इजाफा हुआ है। सबसे अच्छी बात तो यह है कि अमूमन दूसरी भाषाओं, सभ्यता-संस्कृति से पूरी तरह उदासीन चीन ने भी हिंदी के लिए अपने दिल के दरवाजे खोल दिए हैं।
फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ के उपन्यास ‘मैला आंचल’ सहित 24 प्रतिष्ठित उपन्यासों का चीनी भाषा में अनुवाद हो रहा है। विशेषज्ञ मानते हैं कि हिंदी पढ़ने व पढ़ाने वालेलोगों के साथ-साथ अब देश के अलग-अलग भागों में रह रहे प्रोफेशनल्स की रुचि भी हिंदी साहित्य की तरफ हुई है। दूसरी तरफ हिंदी में पुस्तकों का प्रकाशन पहले से अधिक आकर्षक ढंग से होने लगा है। कॉरपोरेट प्रकाशकों द्वारा मार्केटिंग के नए-नए नुस्खे आजमाने और सोशल साइट्स पर किताबों की चर्चा होने से हिंदी किताबों का बाजार पहले की अपेक्षा काफी बढ़ गया है।
साहित्य-संस्कृति का प्रचार
पत्रकारिता के लिए कई नए शब्द गढ़ने वाले रत्नेश्वर सिंह ने किताब लिखी है ‘जीत का जादू’। यह एक प्रेरक किताब है, जो स्वयं की छिपी शक्तियों को जानने में मदद करती है। हाल में यह ‘मैजिक इन यू’ नाम से अंग्रेजी में अनूदित हुई है। इस किताब की न सिर्फ जबर्दस्त बिक्री हुई है, बल्कि मीडिया में भी इसकी खूब चर्चा हुई। रत्नेश्वर कहते हैं कि आज भारत में करोड़ों विद्यार्थी अंग्रेजी माध्यम से पढ़ाई कर रहे हैं। अंग्रेजी माध्यम से पढ़े-लिखे विद्यार्थियों की दिलचस्पी भले ही हिंदी किताबों को पढ़ने की न रही हो लेकिन कंटेंट पर उनकी नजर जरूर रहती है। पाठकों की अत्यधिक मांग पर प्रकाशकों ने इसे अंग्रेजी में अनूदित करने का निर्णय लिया।
अंग्रेजी में किताब आने से पहले ही इसकी बड़ी संख्या में बुकिंग हो गई। रत्नेश्वर कहते हैं, ‘किताब के साथ-साथ हिंदी संस्कृति का भी प्रचार-प्रसार होता है, जो भाषा के लिए काफी फायदेमंद साबित होता है।’ हिंद युग्म के प्रकाशक शैलेश भारतवासी कहते हैं, ‘भारत एक मजबूत अर्थव्यवस्था के रूप में उभर रहा है। इसलिए यहां की भाषा, संस्कृति और साहित्य में बाकी दुनिया की दिलचस्पी पैदा हुई है। हिंदी उपन्यासों का दुनिया की दूसरी भाषाओं में अनूदित होने का यह भी एक कारण है। अनु सिंह चौधरी के कहानी-संग्रह ‘नीला स्कार्फ’ का अंग्रेजी भाषा में अनुवाद ‘द लास्ट पफ’ इस साल के अंत तक बाजार में आ जाएगा।’
बढ़ी हिंदी की स्वीकार्यता
संजीव जायसवाल संजय का उपन्यास ‘वह हंस दिया’ अब तक फ्रेंच, जर्मन, अंग्रेजी सहित बारह भाषाओं में अनूदित हो चुका है। इससे पहले संजीव का टीनएजर्स के लिए लिखा गया उपन्यास ‘डूबा हुआ किला’ उड़िया, गुजराती, पंजाबी भाषा में अनूदित हो चुका है। इसके अलावा ‘टूटा पंख’, ‘सूरज का गुस्सा’, ‘चंदामामा’, ‘पहलवान जी’ उपन्यासों का अंग्रेजी, बांग्ला,उड़िया, पंजाबी, असमिया समेत नौ भाषाओं में अनुवाद हुआ है। संजीव कहते हैं, ‘पिछले कुछ सालों में मैं कई बार दक्षिण भारत गया। मैंने पाया कि वहां स्टूडेंट्स, बिजनेसमैन, इंजीनियर्स की यंग जेनरेशन मानती है कि हिंदी नहीं जानने का खामियाजा उन्हें भुगतनापड़ता है।
दक्षिण में युवाओं के बीच यह सोच पनपने लगी है कि यदि भारत में सेटल होना है, तो हिंदी जाननी होगी। देश और देश से बाहर भी हिंदी की स्वीकार्यता बढ़ रही है।’ इसमें कहीं न कहीं योगदान टेलीविजन का भी है। लोग क्षेत्रीय चैनल की बजाए राष्ट्रीय चैनल के प्रोग्राम देखना पसंद करते हैं, क्योंकि इनमें समसामयिक विषयों को खंगाला जाता है। बहुचर्चित कविता संग्रह ‘पांव तले की मिट्टी’ के रचयिता डॉ. संतोष एलेक्स की कविताओं का अनुवाद हिंदी, अंग्रेजी, तेलुगू, मलयालम, नेपाली, बंगाली और जर्मन भाषाओं में हो चुका है। वे खुद भी अनुवादक हैं और उन्होंने हाल ही में डॉ. केदारनाथ सिंह की कविताओं का अनुवाद मलयालम में किया है। संतोष कहते हैं कि आज पाठक सिर्फ अपनी भाषाओं तक सीमित नहीं रहना चाहता। वह दूसरी भाषाओं के लेखकों और उनकी रचनाओं को भी जानना चाहता है।
पाठकों की रुचियों की समझ
‘समरसिद्धा’ के लेखक संदीप नैयर ब्रिटेन में रहते हैं। हिंदी में प्रकाशित होने के बाद उनके कई ब्रिटिश मित्रों ने इस भारतीय ऐतिहासिक पात्र के बारे में जानने की इच्छा व्यक्त की। उन मित्रों केसुझाव पर उन्होंने इसे अंग्रेजी में अनूदित करने का फैसला लिया। संदीप कहते हैं, ‘कुछ समय पहले तक हिंदी किताबों को अंग्रेजी प्रकाशक ग्लैमरस नहीं मानते थे। ‘समरसिद्धा’ की लोकप्रियता और पाठकों की प्रशंसा से अंग्रेजी संस्करण की राह आसान हो गई और ओशन बुक्स से ‘द डाउन एट डस्क’ प्रकाशित हुई।’ संदीप के मित्रों की तरह ही रूस की आन्या शप्रान की दिलचस्पी भारत की सभ्यता और संस्कृति में है। वे अब तक प्रेमचंद के कई उपन्यासों का रूसी अनुवाद पढ़ चुकी हैं। भविष्य में वे ट्रांसलेटर बनकर भारतीय उपन्यासों का रूसी भाषा में अनुवाद कर लोगों को यहां की सभ्यता-संस्कृति के बारे में अवगत कराना चाहती हैं।
सिनीवाली शर्मा का कहानी संग्रह ‘हंस अकेला रोया’ का रूसी भाषा में अनुवाद हो रहा है। संदीप कहते हैं कि अब तक प्रेमचंद, श्रीलाल शुक्ल और नरेंद्र कोहली जैसे लेखकों की किताबें अनूदित हुई हैं लेकिन अब एक ही पुस्तक हिंदी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं में प्रकाशित करने का भी चलन शुरू हो गया है। ‘लूजर कहीं का’ और ‘उसका नाम वासु नहीं था’ कुछ ऐसे ही उदाहरण हैं। इसकी वजह यह है कि हिंदी बेल्ट से आने वाले कुछ लेखक हिंदी में लिखना तो पसंद करते ही हैं, साथ ही अंग्रेजी का भी अच्छा ज्ञान रखते हैं। ऐसी स्थिति में उनके लिए हिंदी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं के पाठकों की रुचियों को समझ पाना आसान हो जाता है। हिंदी में जो नया साहित्य लिखा जा रहा है, उसकी पृष्ठभूमि शहरी और शैली आधुनिक है, तो उसका अनुवाद अंग्रेजी के पाठकों को भी पसंद आता है।
पढ़ें- मैं उड़ चली आसमां है मेरा