लघुकथा: सूरत से अधिक सीरत
सुकरात उसकी मुस्कुराहट का राज समझ गये थे। थोड़ी देर बाद सुकरात ने शिष्य से बोला मुझे तुम्हारे मुस्कुराने की वजह पता है शायद तुम इसी लिए मुस्कुरा रहे हो कि मैं तो कुरूप हूं।
दार्शनिक सुकरात दिखने में बहुत कुरूप थे और एक बार वो एक कमरे में बैठकर आईना देख रहे थे इतने में उनका एक शिष्य कमरे में आता है तो सुकरात को आईना देखते हुए बहुत अजीब सा महसूस करता है और मुस्कुराने लगता है लेकिन शर्म के मारे कुछ भी नहीं बोला लेकिन सुकरात उसकी मुस्कुराहट का राज समझ गये थे। थोड़ी देर बाद सुकरात ने शिष्य से बोला मुझे तुम्हारे मुस्कुराने की वजह पता है शायद तुम इसी लिए मुस्कुरा रहे हो कि मैं तो कुरूप हूं। मुझे आईना देखने की जरुरत क्या है तो इस पर शिष्य का मुंह शर्म से झुक गया।
सुकरात ने उससे कहा शायद तुम नहीं जानते ' मैं रोज इसलिए आईना देखता हूं ताकि मुझे अपनी कुरूपता का आभास हमेशा रहे और मैं कोशिश करूं कि मैं इतने अच्छे काम करूं कि मेरे चेहरे की कुरूपता मेरे अच्छे कामों से ढक जाये। शिष्य को ये जवाब अच्छा लगा लेकिन उसने फिर अपनी शंका व्यक्त की कि गुरूजी इसका मतलब जो लोग सुंदर है उन्हें आईना नहीं देखना चाहिए। इस पर सुकरात ने उसे जवाब दिया कि उन्हें भी हमेशा आईना देखते रहना चाहिए ताकि उन्हें ये हमेशा अहसास रहे कि जितने सुंदर वो दिखते है उसी के अनुरूप वो अच्छे काम भी करें और कुछ भी ऐसा बुरा काम नहीं करें जो उनकी सुन्दरता को ढक ले, क्योंकि सूरत से अधिक सीरत की कुरूपता दुखदायी होती है ।
साभार: Guide2India