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लघुकथा: निंदिया लागी

वह अपूर्व सुंदरी थी। उसकी बंद आंखों में सपने थे। सपने में साजन थे, साजन सेज पर थे और सेज महमह कर रही थी।

By Babita KashyapEdited By: Published: Mon, 28 Nov 2016 01:39 PM (IST)Updated: Mon, 28 Nov 2016 01:47 PM (IST)
लघुकथा: निंदिया लागी

कुहासे के दोहर में लिपटा सूर्य जब धीरे-धीरे अपने अंग फैलाने लगता है तो पहाड़ों की ढलान पर हिम शनै: शनै: पिघलने लगती है। यह अतिशय उत्फुल्लता का काल होता है। तब मन-प्राण मुदित हो नाच उठते हैं और बौराई प्रकृति भी मानो विवस्त्र हो जाती है। ऐसे में जाने कब मन की मैना मुंडेरों पर जा बैठती है।

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उन्हीं दिनों प्रणय का विवाह तय हुआ था। सब कुछ परंपरा की लीक पर आगे बढऩे लगा। शगुन के बाद उबटन की प्रक्रिया शुरू हो गई थी। महिलाओं के लिए चूल्हे में जलावन लगाने, हैंड पाइप से पानी निकालने या रोटी बेलने जैसे नित के गृहकार्य में एक मनोरंजक उत्साह आ गया था। वे लोकगीतों में वर-वधू के मिलन के एक-एक पल को सजातीं-संवारतीं।

'मटकोर' के दिन सख्त जमीन पर गुच्ची खोदी गई थी। अगले दिन 'धिढ़ारी' का मुहूर्त था। घर-आंगन में खुशी के लड्डू फूटते रहते थे। लग्न के दिन उंगलियों पर गिने जाने लगे। इस तरह एक दिन गिनती पूरी हो गई। आज दिनभर वसंती हवा लोगों को छेड़ती रही। एक अल्हड़ बाला की तरह कभी वह ताल-तलैए में सिहरन पैदा करती तो कभी बाग-बगीचे में हड़कंप मचाते हुए निकल जाती।

पीपल-पात उसके मादक स्पर्श से झनझना उठते। उधर आम और महुआ इस तरह झूम उठते जैसे वे

आलिंगनबद्ध होना चाहते हों। ऐसे में गूलर की फुनगी पर बैठे पपीहे 'स्वाती की बूंदों' की आस लगाए देखते-रहते कि कब उसकी प्रियतमा आएगी। पर वसंत ने उसे छेड़ दिया। फलत: विरहातुर पपीहे गा उठते, 'पी कहां-पी कहां...' तभी लगता लोगों की नसों में मस्ती छा गई। हर चेहरे पर मुस्कान नजर आने लगी।

प्रणय को आज अंतिम बार उबटन लगाया जा रहा था। दिनभर वह महिलाओं से घिरा बिद्धें पूरी करता रहा। वह उनकी हंसी-ठिठोली पर मुस्करा भर देता। मानो, गोपियों से घिरे, बांसुरी वाले कृष्ण वातावरण में रस घोल रहे हों। वह रथ पर सवार हुआ तो घोड़े हिनहिना उठे। महिलाओं के गले बैठ गए थे पर वे इस चरम अवस्था में कतई चूकना नहीं चाहती थीं। इस तरह बारात चलकर वधू के दरवाजे पर पहुंची। प्रणय एक बार फिर महिलाओं से घिर गया। यहां की बिद्धों से उसके गाल सुर्ख हो गए थे। उसे मरबे पर लाया गया, बगल में वधू बैठाई गई। सामने अग्नि प्रज्ज्वलित हो रही थी।

उस अवस्थिति में वधू ने अपने को पूरी तरह ढंकरखा था। उसे ऊपर से हटाया गया और वर ने उसकी स्फुट मांग में सिंदूर थाप दिया। अब वधू वर के आगे खड़ी की गई और 'अठंगर' कूटा गया। यह सब करते हुए, पूरी रात बीत गई और क्षितिज के झरोखे से सूर्य झांकने लगा।

सब कुछ घटित हुआ परंतु विडंबना देखिए कि वधू अभी तक घूंघट से बाहर नहीं हुई थी। उधर दूल्हे का मन बेकाबू! वर-वधू दिनभर कोहबर में बैठे आने वाले लोगों की आंखें तृप्त करते रहे। हर कोई ओहार में ढंकी वधू और शेरवानी में सजे वर को देखकर 'वाह' कर उठता। वसंत फिर बौरा उठा था। वह किसी की चुनरी उड़ाता तो किसी के गालों को छूकर निकल जाता।

मानो, आज वह छैला बना हो। उधर सूर्य समुद्र में समाने लगा। उसके पूरी तरह प्रविष्ट होने पर निशा खिलखिला उठी। उसके गेसुओं की महक वातावरण में तैरने लगी। इधर दिनभर कोहबर की एकरसता से वर-वधू उकता गए थे। अब वे पोशाकों के भार से हल्का होना चाहते थे। अत: सखियां वधू को संभालकर अंदर ले गईं और वर भी फरागत में लाए गए। वधू अपनी सखियों के संग सहज तो महसूस कर रही थी लेकिन भावी जीवन की कल्पना कर रोमांचित भी हो उठती।

क्या विवाह की बिद्धों में वर-वधू के जनजीवन की झांकी होती है! उनके कैसे व्यवहार होंगे? प्रथम मिलन की स्वाभाविक प्रक्रिया क्या होगी? इस तरह आगामी पहर की अनेक अवस्थितियां उसकी आंखों के आगे घूम गईं। उसमें कुछ सुनी-सुनाई बातों का योग होता है तो कुछ उसकी परछाया होती।

विवाहित सखियां उसका दिल थामतीं। समझातीं कि हम कोई काठ की हांडी थोड़े ही हैं। तो उसकी अविवाहित सखियां हर्ष में उसके भाग्य पर चकित होतीं कि कैसा सुंदर वर मिला है। धड़कनें स्थिर होने का नाम ही नहीं लेतीं। कैसी विचित्र स्थिति हो गई थी उसकी। वह प्रणय का दरस-परस चाहती थी, ताकि सखी-सहेलियों के मुंह से हुई अमृत वर्षा में वह खूब भींग सके।

उसे शीतलता चाहिए पर एक अव्यक्त घबराहट भी थी। उसे जल्दी थी और देर भी चाहिए थी।

उधर प्रणय अब पुरुषों से घिरा था। जैसे वे उसे परख रहे हों। पर उसे भी वही बेचैनी, व्याकुलता। आह! इस व्यग्रता ने उसके बदन में एक प्रकार की सरसराहटें पैदा कर दी थीं। आसमान में वक्र चांद उग आया था। मानो किसी सुग्रीवा का कंठहार करीने से तराशा गया हो। कुछ दिनों में पूर्णिमा आने वाली थी। फिर गोल चांद को आसमान में एक छत्र राज करना था। जब उसे वहां से फुर्सत मिली तो सखी-सहेलियां जा चुकी थीं। वधू अकेली मिलन सेज पर बैठी-बैठी निंदिया गई। नितंब और तलवे को जोड़कर चुकमुक बैठी वधू वैसे ही बिस्तरे पर पड़ गई। विवाह से बिद्ध भारी...उस बिद्ध की लंबी कवायद से वह थक गई थी। तिस पर कई दिनों की मन: वैचित्रमयता ने आंखों की नींद उड़ा रखी थी लेकिन ज्यों ही वह बिस्तर पर स्थिर हुई कि भारी पलकें मुंद गईं थीं। नींद ने उसे दबोच लिया था।

तभी वर ने सुहाग कक्ष में प्रवेश किया। जैसे कोई महाराजा राजमहल में दाखिल होते हों। वहां की हर चीज उनके द्वारा भोगे जाने के लिए लालायित, समर्पित हो। उसने दोनों घुटनों के बीच ठुड्ढी दबाए वधू को बड़ी गौर से देखा। वह अपूर्व सुंदरी थी। उसकी बंद आंखें और होंठों पर प्रकंपन, जैसे वह मीठे सपने देख रही हो। सपने में साजन थे, साजन सेज पर थे और सेज महमह कर रही थी।

वह अपने अधरों को उसके पास ले गया, पर तत्क्षण अलग भी हो गया। उसने मन-ही-मन एकपत्नी का पूरा प्यार और अधिकार उसे सौंप दिया। अब वह धीरे से उसके और करीब गया। आहिस्ते से उसके दोनो पैर सीधे कर दिए। फिर पहलू में उसे चित लेटा दिया। उसने गहरी नींद में 'ऊंह-आंह' की। उसे उसकी नींद में खलल गवारा नहीं हुआ। अत: पलभर उसने अपने को रोक लिया। उसके मन में भावनाओं की बाढ़ आ गई थी। सेज बेला की सुगंध से सराबोर हो रही थी।

कमरे में मद्धिम रोशनी शांति और सुकून देती थी। ऐसे में दीवारों पर लगी दौड़ते घोड़े की पेंटिंग्स कामनाओं को आमंत्रण देती थी। उसने उसे हल्की चादर ओढ़ा दी। फिर वह आहिस्ते से लेटा और दूसरी तरफ सिर कर सोने का उपक्रम करने लगा। पर, उसकी आंखों में नींद कहां?

मन में कामना का प्रबल ज्वार उठता और गिरकर बिखर जाता। एक बार बहुत वेग से उठा और उसके क्लांत चेहरे को छूकर वापस लौट गया। उसकी धमनियों में गर्म रक्त के तेज प्रवाह को थामने के लिए निद्रा बांध बन गई।

वह कामना की लहरियों में आरोह-अवरोह करता हुआ आत्मलीन हो गया। जब वधू की आंखें खुलीं तो मुर्गे फरकी से बाहर बांग दे रहे थे और प्रणय गहरी निद्रा में उसे अनसुना करता रहा।

(आंचलिक शब्द: 1. मटकोर- शादी के पूर्व मिट्टी खोदने की बिद्ध 2. धिढ़ारी- घी डालना 3. बिद्ध- शादी की विधि 4. कोहबर- दीवाल पर रंगोली बनाकर, उसके नीचे वर-वधू को बैठाकर लोगों द्वारा उनका स्वागत)

द्वारा: यमुना कृष्णा गेह, यशपाल नगर, बाघा

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