कहानी: उतरा अहंकार का नशा
मेरी कहानी मेरा जागरण के तहत इस सप्ताह संपादक मंडल द्वारा चुनी गई दो श्रेष्ठ कहानियों में से एक...
घटना कुछ साल पहले की है। मैं अपने एक मित्र के लड़के की शादी में बाराती बनकर पटना जा रहा था। मेरे मित्र ने एक यात्री बस के अतिरिक्त चार-पांच छोटी गाड़ियां भी बारातियों को ले जाने के लिए बुक कर रखी थीं। मैं अपने तीन अन्य मित्रों के साथ एक कार में सवार था। हम लोगों ने रात में मौज-मस्ती करने के लिए अन्य सामानों के साथ शराब भी ले रखी थी। शायद यह मेरी बुरी आदत थी कि अक्सर मदिरापान कर लेता था। सफर
दूर का था, सो हम लोगों का धैर्य टूट गया और रास्ते में ही शराब का सेवन शुरू हो गया। पटना शहर से पहले गांधी सेतु पर लंबा जाम लगा था। गाड़ी से उतरा तो पता चला कि यह जाम कई घंटों से लगा है और जल्दी से खुलने की उम्मीद भी नहीं है। पुल के दोनों तरफ छोटी-बड़ी सैकड़ों गाड़ियों की लंबी कतारें थीं। छोटी गाड़ियां तो मौका मिलने पर थोड़ा बहुत बढ़ भी रही थीं पर बड़े वाहनों को ट्रैफिक पुलिस ने रोक रखा था।
मई का महीना था और मुझे याद है कि शायद उस दिन कुछ ज्यादा ही गर्मी थी। इसीलिए पानी की ठंडी बोतल, बादाम मिल्क, कोल्ड ड्रिंक, चिप्स, केले आदि खाने का सामान बेचने वाले पूरी तरह सक्रिय थे। हमारी गाड़ी का शीशा खुला हुआ था और थोड़ी-थोड़ी देर में सामान बेचने वाले सक्रिय थे। उनके इस बर्ताव से झुंझलाकर मैंने अपने दोस्तों से कहा कि ‘यार ये लोग तो चाहते हैं कि ऐसे ही जाम लगा रहे। इन्हें तो बस अपना सामान बेचने से मतलब है। इन्हें यात्रियों की परेशानी से क्या लेना-देना!’ इसी बीच हमारे एक साथी ने एक दर्जन केले खरीदकर गाड़ी में रख लिए। हमारी गाड़ी दस कदम आगे बढ़ी होगी और फिर ठहर गई। ऊबकर हम लोग गाड़ी से बाहर आकर खड़े हो गए। जाम की टेंशन थी, इसलिए यह हुआ कि चलो आगे-पीछे देखा जाए कि अपनी अन्य गाड़ियां कहां हैं? मेरे साथी इधर-उधर चले गए और मैं वहीं सड़क किनारे बैठ गया, तभी एक भिखारिन अपने बीमार बच्चे को गोद में लिए लंगड़ाते हुए मेरे पास आई। वह अपना कटोरा मेरी ओर बढ़ाते हुए बोली कि बाबू सुबह से आज हम दोनों ने कुछ नहीं खाया है। मेरा बच्चा भूख से बेहाल है। कुछ खिला दो भगवान आपको हमेशा सुखी रखेगा। वह आग्रह की मुद्रा में थी और मैं आक्रामक होकर उस पर बिफर पड़ा। उसकी गुहार का मुझ पर कुछ असर नहीं हुआ। हां, शराब का असर जरूर हो गया था और मैं ठीक से खड़ा रहने में असमर्थ था।
उस भिखारिन की बात को अनसुना करते हुए मैं वहीं बैठ गया। भिखारिन भी उदास चेहरा लिए मेरे करीब ही फुटपाथ पर बैठ गई। भिखारिन की गोद में बैठा बच्चा मुझे कातर दृष्टि से निहार रहा था लेकिन मैं तो अपनी दुनिया में खोया था। अभी चंद मिनट ही बीते होंगे कि एक दूसरे भिखारी ने आकर उसके कटोरे में सब्जी और कुछ पूरियां डाल दीं। कटोरे में खाना देखकर उस भिखारिन की आंखें चमक उठीं। वह भिखारी बोला, ‘बहन, आज एक सेठ के घर में शादी थी। मैंने वहां भरपेट खाना खा लिया है। इतना खाना कल के लिए ले आया था लेकिन तुम तो सुबह से यहीं बैठी हो। आखिर इंसान ही तो इंसान के काम आता है।’ वह दिव्यांग भिखारिन और उसका बच्चा खाने में इस तरह टूट पड़े, मानों हफ्तों से खाना न मिला हो। यह देखकर मेरा नशा उतरने लगा। मेरे मन में जमी अहंकार की बर्फ पिघलने लगी। मुझे लगा कि मैं चाहता तो गाड़ी में रखा खाने का सामान इसे दे सकता था लेकिन नशे की गिरफ्त ने इंसानियत भुला दी।
एक भिखारी के मन में दूसरे के लिए इतना प्रेमभाव है और मैं तो सक्षम हूं फिर भी इन गरीब भूखों की पीड़ा को नजरअंदाज कर गया। उस दिन से मैंने शराब से तौबा कर ली और जीवन का ध्येय बना लिया कि हमेशा जरूरतमंदों की मदद करूंगा। अब जब भी कोई भिखारी मुझसे कुछ मांगता है तो उसे पैसे नहीं देता, बल्कि भरपेट खाना खिलाता हूं। वास्तव में किसी भूखे को भोजन कराने से बड़ा शायद ही कोई दूसरा पुण्य हो।
नरेन्द्र किशोर सिन्हा, समस्तीपुर (बिहार)