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काव्यात्मक खामोशी के वाचाल कवि

वह बाहर से खामोश और भीतर से वाचाल किस्म के कवि हैं। उन्हें सुनने के लिए पास जाना जरूरी। व्यक्तित्व की दहलीज पर खामोशी की महीन झालरें लटकी हुईं दिखेंगी, पास जाएंगे तो झालरें चाइम की तरह बजने लगती हैं।

By Babita KashyapEdited By: Published: Mon, 27 Feb 2017 01:33 PM (IST)Updated: Mon, 27 Feb 2017 01:39 PM (IST)
काव्यात्मक खामोशी के वाचाल कवि

1. मैं इसलिए नहीं लिख रहा हूं कविता

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कि मेरे हाथ काट दिए जाएं

मैं इसलिए लिख रहा हूं

कि मेरे हाथ तुम्हारे हाथों से जुड़कर

उन हाथों को रोकें

जो इन्हें काटना चाहते हैं

2. अब इस जगह खबरें नहीं आतीं

यहां सब कुछ शांत है

बहन किताबें पढ़कर

जिंदगी को अखबार की तरह मोड़ लेती है

वह नहीं जानती सुर्खियां 

मोड़ने से नहीं छिपती

वह बाहर से खामोश और भीतर से वाचाल किस्म के कवि हैं। उन्हें सुनने के लिए पास जाना जरूरी। व्यक्तित्व की दहलीज पर खामोशी की महीन झालरें लटकी हुईं दिखेंगी, पास जाएंगे तो झालरें चाइम की तरह बजने लगती हैं। शोर से भरे दिनों में या तो कविता ने उन्हें ऐसा बना दिया है या अतीत की कोई स्मृति संग चली आ रही है। स्मृतियों के बोझ को कम न समझा जाए। वे जितनी सुहानी होती हैं उतनी ही कातिल भी जो स्वभाव और चेहरा दोनों बदल देती हैं।

एक कवि खुद से बात करने का जरिया ढूंढ़ने लगता है। यह खोज कई बार रचनात्मक भी होती है। दिल्ली में रहने वाले युवा कवि-हिंदी के प्राध्यापक अच्युतानंद मिश्र खुद से कविता में ही संवाद करते हैं। छोटे शहर बोकारो से बड़े नगर तक की यात्रा में कहीं तो कुछ दरक गया है, कुछ बदल गया है। कुछ तो है जिसकी अदृश्य छाया जीवन और कविता दोनों पर पड़ रही है।

शायद जड़ों से कट जाने की पीड़ा गहरे सताती होगी। जो खुद को जड़ों से उखड़ा हुआ पाता है, उसकी तड़प ऐसी ही होती है। जब उसे यह अहसास हो कि जड़ों तक वापसी की कोई गुंजाइश या जगह नहीं बची, तब अति संवेदनशील इंसान के लिए बेहद तकलीफदेह बात होती है। इसे ही द्वंद्वात्मक संवेग कहते हैं। एक तरफ कवियों को जड़ों की तरफ लौटने की बात हो, अपने अनुभवों की तरफ जाने की बात हो, दूसरी तरफ ये दोनों चीजें अनुपस्थित हो जाएं। बात करो तो अपने जीवन को कुछ यूं खोलते हैं-‘गांव मेरी स्मृतियों में बहुत खुशनुमा-सा नहीं है। मेरे पिता बीमार रहते थे और हर वक्त हमारी उपेक्षा होती थी। शायद वहीं से, मैंने खुद को बहुत आरंभ में ही वयस्क बना लिया। बचपन की लगभग कोई स्मृति मेरे पास नहीं है। मैं अपने समूचे अतीत से खौफ खाता हूं। कविता लिखने की शुरुआत शायद खुद से बातचीत की किसी कोशिश में हुई।’

सिर्फ स्मृतियों ने ही नहीं, कुछ काम तमाम कविताएं भी करती हैं। कई बार अवसाद की गंभीर परत चेहरे पर चढ़ जाती है और हंसी की हल्की चोट से खुलती है तो चेहरे का भूगोल ही बदल जाता है। कवि के चेहरे अक्सर बदलते हैं। कुछ पहचाने जाते हैं कुछ अपने ही भीतर छिप जाते हैं।

अच्युतानंद मिश्र अपनी कविता में जितने बूझ हैं, जीवन में उतने ही अबूझ। उन्हें इससे इंकार भी नहीं। वे कहते हैं-‘मुझे बहुत आरंभ से महसूस होता आ रहा है कि मैं एक दोहरा जीवन जी रहा हूं। एक वो जो मैं सबको नजर आता हूं और एक वो जो मैं खुद को महसूस करता हूं। मेरे लिए कविता दरअसल इन्हीं दो सेल्फ के बीच की कशमकश से जुड़ी है।’

अच्युतानंद को भले लगता हो कि दिल्ली में अपनी पहचान और मुकाम बनाना कठिन होता है, हालांकि कविता-जगत में उनकी पुख्ता पहचान बन चुकी है। उनका पहला काव्य संग्रह ‘आंख में तिनका’(2013) प्रकाशित हुआ था और उन्हें इससे पहले पाखी पत्रिका की तरफ से युवा कविता का शब्द साधक सम्मान मिल चुका है। कई मंचों से उन्हें सुना जाता है। कई पत्र-पत्रिकाओं में उनकी कविताएं छपती और प्रशंसित होती हैं। उनकी कविताओं का फलक वैश्विक है। अपने विस्मृत लोक को लेंस आई के पैनेपन से पकड़ते हुए कवि-दृष्टि फिलिस्तीन पहुंचती हुई विराट चिंता में बदल जाती है। उनकी छोटी-छोटी कविताएं इसी वजह से बड़ी कविता बन जाती है। बड़ी कविता बड़ा जीवन और बड़ा व्यक्तित्व मांगती है। उसका कोई विकल्प नहीं। जीवनदृष्टि की व्यापकता के बगैर अच्छी कविता संभव नहीं।

गीताश्री


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