जो जमीन से जुड़ेगा, ऊंचा वही उड़ेगा
विभिन्न विधाओं में लेखन व कविता क रने वाले डॉ. नरेश कुमार विकल कई राष्ट्रीय, अंतरराष्ट्रीय सम्मानों से अलंकृत होने के साथ ही साहित्य अकादमी के सलाहकार मंडल में भी रह चुके हैं। प्रस्तुत है राजीव कुमार झा से हुई बातचीत के अंश...
विभिन्न विधाओं में लेखन व कविता क रने वाले डॉ. नरेश कुमार विकल कई राष्ट्रीय, अंतरराष्ट्रीय सम्मानों से अलंकृत होने के साथ ही साहित्य अकादमी के सलाहकार मंडल में भी रह चुके हैं। प्रस्तुत है राजीव कुमार झा से हुई बातचीत के अंश...
आप हर विधा में रचनाएं गढ़ते हैं। सबसे प्रिय विधा कौन सी लगती है?
लेखन में मुझे हर विधा रास आती है लेकिन गीत को मैं अपने हृदय और जीवन के अत्यंत निकट पाता हूं । जब भी अधिक तनाव महसूस करता हूं गीतों का आश्रय लेकर तनाव से मुक्ति पा लेता हूं। कहानियां भी मुझे सुकून देती हैं।
आपके गीत, कविताएं, कहानियां बहुधा ग्रामीण परिवेश को ही चित्रित क्यों करती हैं?
वास्तविकता में ग्रामीण परिवेश ही जमीन से जुड़ा होता है। जमीन से जुड़ी हुई रचनाएं ही स्थायित्व और महत्व पाती हैं। विद्यापति, तुलसी, सूर, कबीर की रचनाएं इतने समय बाद भी एक अनपढ़ की जुबान से सुनी जा सकती हैं। आज के शीर्ष कवियों की चंद पक्तियां आप ही सुना दीजिए अथवा किसी साहित्यिक बंधु से सुनवा दीजिए। आजकल लोग कृत्रिमता की ओर अधिक आकर्षित हो रहे हैं, जो स्थायित्व प्रदान नहीं कर सकता।
विदेह डॉट कॉम द्वारा आयोजित ऑन लाइन वोटिंग में सर्वाधिक वोट साहित्य अकादमी, नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित आपके अनूदित उपन्यास 'ययाति' को मिले, कैसा महसूस कर रहे हैं?
इसमें 119 देशों के 25 हजार 4 सौ लोगों ने मेरे लिए ऑन लाइन वोटिंग की थी यह मेरे लिए अच्छी अनुभूति है।
आप साहित्य अकादमी, नई दिल्ली के सलाहकार मंडल में सदस्य रहे, कोई विशेष अनुभव?
जब मैं सदस्य हुआ, उससे पूर्व अकादमी द्वारा पत्राचार अंग्रेजी में हुआ करता था। मैंने पहली ही बैठक में प्रस्ताव रखा कि कम से कम हिन्दी प्रदेशों के लोगों के साथ हिन्दी में पत्राचार किया जाए। आज डेढ़ दशक होने जा रहे हैं और मेरे साथ हिन्दी में ही पत्राचार हो रहा है।
आपने फिल्मों और एलबमों के लिए भी गीत लिखे। उस संबंध में कुछ कहना चाहेंगे?
मेरे गीतों को पद्मश्री शारदा सिन्हा, सुरेश पंकज, महादेव झा, शंभू सिंह आदि ने अपने-अपने सुरों से पिरोया है। एलबम बहुत लोकप्रिय भी हुए लेकिन फिल्मों का काम मुझे रास नहीं आया। मैं समस्तीपुर का क्षेत्र छोड़ना नहीं चाहता हूं।
आपकी कहानियां स्त्री प्रधान होती हैं तो क्या स्त्री विमर्श को केंद्र बिंदु बनाना चाहते हैं?
समाज में व्याप्त असंतोष, भ्रष्टाचार व शोषण पर भी खूब लिखता हूं लेकिन यह सच है कि अधिकतर कहानियां स्त्री प्रधान होती हैं। इसकी कोई खास वजह तो नहीं है पर महिलाओं की उपेक्षा पर मेरी चिंता गहरी है। स्त्री की अस्मिता और उसकी रचनात्मकता को नकारा तो नहीं जा सकता।
आपकी कितनी किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। इनमें साहित्य अकादमी, नई दिल्ली से कितनी किताबें प्रकाशित हुई हैं?
लगभ डेढ़ दर्जन किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। साहित्य अकादमी से मेरी चार पुस्तकें जिनमें, 'ययाति, ' त्वमसि,' 'भुवनेश्वर सिंह भुवन' व 'मैथिली निबंध संकलन' प्रकाशित हो चुकीं हैं। पांचवी पुस्तक 'चित्रप्रिया'प्रकाशित होने की प्रतीक्षा में है।
आपके 'पूरबी' कहानी संग्रह की एक कहानी काफी लोकप्रिय और विवादित थी। कुछ उसके बारे में बताएं?
लोकप्रियता तो पाठक संख्या से तय होती है लेकिन यह सही है कि मुझे सर्वाधिक पत्र उसी कहानी पर प्रशंसा के साथ मिले थे। एक पाठक ने तो यहां तक लिखा कि इसकी कथावस्तु इस धरती पर संभव नहीं है। हां, जहां तक विवादित होने का प्रश्न है तो जिस साप्ताहिक में यह प्रकाशित हुई थी उसके संपादक ने कहानी प्रकाशित करने के पहले मुझसे लिखवा लिया था कि यदि इसके प्रकाशनोपरांत कोई विवाद होता है तो उसकी जिम्मेदारी लेखक की होगी। मैंने सशर्त प्रकाशन का अनुबंध किया था। इसके बाद कई पत्र-पत्रिकाओं के संपादकों ने मुझसे इसे प्रकाशित करने की अनुमति का आग्रह भी किया था।
आजकल आप कवि सम्मेलनों में शिरकत नहीं कर रहे हैं?
हां, ठीक सुना है। अब कवि सम्मेलन होते ही कहां हैं? अब तो कवि सम्मेलन के नाम पर चुटकुले बाजी होती है। जोक्स सम्मेलन हैं जहां कवि के नाम पर पढ़ने वाले दूसरों के चुटकुलों को भी अपनी रचना कहकर बेशरमी के साथ सुनाते हैं। वह भी ज्यादा नहीं, दो या चार पंक्तियां। ऐसे में प्रतिष्ठा और मर्यादा का ध्यान तो रखना ही पड़ेगा।
युवा लेखकों से क्या कहना चाहेंगे?
इतना बड़ा उपदेशक तो मैं नहीं हूं। बस इतना ही कहूंगा कि लेखन साधना है, इसलिए शीघ्र छपने के रोग से बचें। महान लोगों की रचनाओं को खूब पढ़ें और फिर लिखने का अभ्यास करें। नया लिखने की ललक होनी चाहिए, सीखने के लिए तो पूरी उम्र ही पड़ी है!