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बोझ नहीं है 'बुजुर्ग'

वृद्ध मां के प्रति अपने दायित्वों को बोझ समझने वाला एक युवक जब अपने मित्र के घर गया, तब उसे समझ में आया कि वह कितना गलत था.. यह उस समय की बात है, जब मैं आर्थिक रूप से थोड़ा परेशान चल रहा था। मामूली-सी नौकरी थी और बच्चे छोटे थे। आर्थिक परेशानी के चलते प

By Edited By: Published: Tue, 05 Aug 2014 01:31 PM (IST)Updated: Tue, 05 Aug 2014 01:31 PM (IST)

वृद्ध मां के प्रति अपने दायित्वों को बोझ समझने वाला एक युवक जब अपने मित्र के घर गया, तब उसे समझ में आया कि वह कितना गलत था..

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यह उस समय की बात है, जब मैं आर्थिक रूप से थोड़ा परेशान चल रहा था। मामूली-सी नौकरी थी और बच्चे छोटे थे। आर्थिक परेशानी के चलते पत्नी को भी मामूली-सी नौकरी करनी पड़ रही थी। बच्चे जब-तब बीमार हो जाते और डॉक्टरों को दिखाने में अच्छा-खासा खर्च हो जाता। बहुत संभल कर चलते, लेकिन हाथ तंग ही रहता।

पिताजी मेरे बचपन में ही गुजर गए थे। हम चारों भाई-बहनों को मां ने बड़ी हिम्मत से पाला था। उन्होंने घर और खेती, दोनों जिम्मेदारियों का निर्वाह करके हम लोगों को पाला था। उन्होंने ही सबकी शादियां कीं। एक बार वह गांव से हमारे घर आई हुई थीं कि अचानक बीमार पड़ गई। हम लोगों ने उन्हें डॉक्टर को दिखाया। कई तरह के परीक्षण इत्यादि करने के बाद पता चला कि उनका लंबा इलाज चलेगा और नियमित अंतराल पर टेस्ट आदि करवाने पड़ेंगे और डॉक्टर से परामर्श करते रहना पड़ेगा। सभी लोग उन्हें देखने आते रहते थे और अपनी तरफ से परामर्श देते रहते थे। मैं अपनी नौकरी और घर की जिम्मेदारी के बीच पिस रहा था। मैं चाहता था कि बड़े भाई साहब मां को अपने साथ ले जाएं, क्योंकि उनकी आर्थिक स्थिति अच्छी थी और उनका घर भी महानगर में था, जहां सारी सुविधाएं थीं। मां भी बहुत चिड़चिड़ी हो गई थीं। उनको लेकर रोज ही पत्नी कुछ न कुछ रोना लेकर बैठ जाती थी।

एक दिन सुबह-सुबह घर में काफी कहा-सुनी हो गई। मैंने क्रोध में मां को भी दो-चार बातें सुना दीं, फिर गुस्से में घर से निकल गया। छुट्टी का दिन था। घर में रुकने का मन नहीं हुआ तो अपने एक दोस्त के यहां चला गया। उसके घर पहुंच कर दरवाजा खटखटाया, तो काफी देर में उसकी छोटी बेटी निकल कर आई। उसने मुझे कमरे में बिठाया और पापा को बताने चली गई। अंदर से मेरे दोस्त ज्ञानेंद्र ने आवाज लगाकर कहा, 'यार बैठो, अभी आ रहा हूं।' मैं वहीं पड़ी एक पत्रिका लेकर बैठ गया। इतने में उसकी छोटी बेटी पानी लेकर आई और फिर वहीं बैठ गई। मैं उससे बातें करने लगा। जब काफी देर हो गई, तो बातों-बातों में मैंने उससे पूछ लिया, 'पापा कुछ काम कर रहे हैं, तो मैं फिर आ जाऊंगा।' उसने जो बताया, उसे सुनकर मैं दंग रह गया। उसने कहा, 'बाबा ने बेड पर पॉटी कर दी है। पापा बाबा को और बेड को साफ कर रहे हैं।' इतने में ज्ञानेंद्र आ गया और बेटी को समझाते हुए बोला, 'नहीं बेटा, ऐसे नहीं बोलते। बाबा की तबीयत ठीक नहीं है न। वे बीमार हैं, इसलिए ऐसा हो गया। जाओ, जाकर खेलो।'

मेरी ओर मुखातिब होकर वह बोला, 'मेरे पिताजी काफी सालों से बीमार चल रहे हैं। हाथ-पैर चला नहीं पाते हैं। उनका ध्यान रखना पड़ता है। अगर हम उनके काम नहीं करेंगे तो कोई दूसरा थोड़े ही करेगा।' चाय पीते-पीते वह बताने लगा कि पिताजी बहुत जिद्दी हैं। अपने आगे किसी को नहीं सुनते। जब बीमारी शुरू हुई थी, तभी उनसे कहा था कि शहर आकर दिखा लो, मगर वे माने नहीं। अब भी वे किसी की बात नहीं मानते, उल्टा-सीधा सुनाते हैं।' मेरे मुंह से निकल गया, 'तब तो बड़ी खिसियाहट होती होगी?'

'नहीं,' ज्ञानेंद्र गंभीरतापूर्वक बोला, 'खिसियाहट कैसी? उनकी उम्र ही ऐसी है, ऊपर से वे बीमार हैं। सारा जीवन उन्होंने हमारे पालन-पोषण में लगा दिया। अब हमारी बारी है। अगर हम उनकी सेवा नहीं करेंगे तो अपने बच्चों को क्या सिखाएंगे, उन्हें भी तो हमें ही अच्छे संस्कार देने हैं।'

ज्ञानेंद्र की सीधी-सादी बातें सुनकर मेरी तो जैसे आंखें ही खुल गईं। एक तरफ मैं अपनी जिम्मेदारी को बोझ समझकर ढो रहा था और ज्ञानेंद्र का अंतर्मन कितना साफ और दुविधा रहित था। उस दिन से मेरी जिंदगी में बहुत बड़ा बदलाव आया और मैंने अपने कर्तव्यों को बोझ समझना छोड़ दिया। मां आज भी हमारे साथ हैं और चिड़चिड़ाती भी हैं पर मैंने दिल पर लेना छोड़ दिया। अब मैं न सिर्फ मां की भरपूर सेवा करता हूं, बल्कि यथासंभव हर बुजुर्ग के काम आने का प्रयत्न भी करता हूं।

ए.के. दीक्षित, बरेली (उत्तर प्रदेश)


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