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शब्दों के तीर

आगे पढने की इच्छा जताने पर रूढि़वादी पति के कसे गए ताने से एक महिला का जागरण हुआ और उसने अपनी जिंदगी को दे दी एक खूबसूरत शक्ल.. बात 1976 की है। मेरी शादी के कुछ माह ही गुजरे थे। मेरे पति रूढि़वादी विचारधारा के पोषक थे। उनके विचार थे कि लड़कियों की शिक्षा हाईस्कूल या इंटर तक ही होनी चाहिए। मैं इंटरमीडियट तक ह

By Edited By: Published: Sat, 16 Aug 2014 03:49 PM (IST)Updated: Sat, 16 Aug 2014 03:49 PM (IST)

आगे पढने की इच्छा जताने पर रूढि़वादी पति के कसे गए ताने से एक महिला का जागरण हुआ और उसने अपनी जिंदगी को दे दी एक खूबसूरत शक्ल..

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बात 1976 की है। मेरी शादी के कुछ माह ही गुजरे थे। मेरे पति रूढि़वादी विचारधारा के पोषक थे। उनके विचार थे कि लड़कियों की शिक्षा हाईस्कूल या इंटर तक ही होनी चाहिए। मैं इंटरमीडियट तक ही पढ़ाई कर पाई थी। मुझे पढ़ाई बीच में छूट जाने का मलाल था। मेरे भीतर पढ़-लिखकर कुछ कर गुजरने की अभिलाषा हिलोरें मार रही थी लेकिन पति के विचार जानकर मैं दंग थी। फिर भी मैंने एक दिन पति से आगे पढने की इच्छा जाहिर की। इस बात पर उन्होंने मेरा मजाक उड़ाते हुए कहा कि घर व बच्चे संभालना ही औरतों का असली काम है। घर से बाहर जाकर नौकरी करना और पढना नहीं। तुम जो सपना देख रही हो वह कभी पूरा नहीं होगा।

उनकी बातें सुनकर मैं सोचने लगी कि जीवनसाथी होने के नाते इन्हें मेरी अच्छी सोच को बढ़ावा देना चाहिए था, पर ये तो उल्टा बोल रहे हैं। मुझे इनकी पढऩे के लिए मना करने वाली बात तीर की तरह चुभ गई। पढने की ललक थी, इसलिए मैंने किताबें मंगा ली थीं और घर पर समय निकालकर पढने लगी। मैंने ठान लिया था कि कुछ करके दिखाऊंगी और इनकी विचारधारा बदल दूंगी।

आखिरकार मैंने मायके के सहयोग से अंग्रेजी साहित्य, समाजशास्त्र और राजनीतिशास्त्र से बी.ए. का फॉर्म भर दिया। प्रथम वर्ष का परीक्षा परिणाम आया और मैं द्वितीय श्रेणी में उत्तीर्ण हुई। मेरे पति को जब ये पता चला तो वे बहुत नाराज हुए और तंज कसने लगे कि अब पढने चली हो, पढ़कर क्या डीएम बनोगी? मैं उनकी बात को अनसुना करती रही। इस बीच मेरे बेटे का जन्म हुआ। उसे पालते हुए मैंने एम.ए. में प्रवेश लिया। साथ ही पति को बिना बताए नौकरी के लिए भी आवेदन करती रही। जब पति को ये पता चला तो वे कहने लगे कि महिलाओं का स्थान घर में होता है, मैं तुम्हें नौकरी नहीं करने दूंगा।

वह जितनी बाधा उत्पन्न करते, मैं उतना ही संकल्पित होती जाती। 1983 में मैं बाल विकास विभाग में सुपरवाइजर के पद पर चयनित हुई। आज मैं इस विभाग में सी.डी.पी.ओ. के पद पर बलिया जनपद में कार्यरत हूं। मैं डबल एम.ए. कर चुकी हूं। मैंने बेटे के साथ ही बेटी को भी उच्च शिक्षा दिलाई है। मेरी बेटी एम.ए. व बी.एड. है। नौकरी के चलते समयाभाव में भी मैं पढ़ती-लिखती रहती हूं। अब मेरे पति भी मेरे कई विचारों के कायल हो चुके हैं। यह सच है कि पति के विरोध और तंज से मेरा जागरण हुआ। अगर आप उच्च विचारों से पूर्ण होकर संकल्पित हैं तो लक्ष्य हर बाधा को पार कर जाता है। सफलता का यही मूल मंत्र है।

तारा सिंह अंशुक, बलिया (उत्तर प्रदेश)


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