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लेख से प्रभावित होकर समाज सेवक बनने का लिया संकल्प...

मेरे पिता जी गांव में एक छोटे से किसान हैं। शिक्षा के क्षेत्र में मेरा गांव बहुत पिछड़ा है। सीमित संसाधनों से मैंने रसायन विज्ञान में परास्नातक की डिग्री हासिल की और प्रवक्ता के रूप में 2003 में मेरी नियुक्ति हो गई।

By deepali groverEdited By: Published: Mon, 08 Dec 2014 12:22 PM (IST)Updated: Mon, 08 Dec 2014 01:12 PM (IST)
लेख से प्रभावित होकर समाज सेवक बनने का लिया संकल्प...

मेरे पिता जी गांव में एक छोटे से किसान हैं। शिक्षा के क्षेत्र में मेरा गांव बहुत पिछड़ा है। सीमित संसाधनों से मैंने रसायन विज्ञान में परास्नातक की डिग्री हासिल की और प्रवक्ता के रूप में 2003 में मेरी नियुक्ति हो गई।

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दरअसल, पिताजी थे तो किसान, लेकिन उन्हें लेखन का बड़ा शौक था। अक्सर मैं उनकी लिखी गई कृतियां पढ़ा करता था। एक बार मैं उनकी एक रचना पढ़ रहा था, जिसमें उन्होंने लिखा था कि आखिर क्यों तीसरी-चौथी पीढ़ी तक आते-आते हमारे बच्चे अपने पूर्वजों को भूल जाते हैं, जबकि हमारे पास जमीन मकान आदि सब उनका ही दिया हुआ है? इसके उलट उन्हें महाराणा प्रताप, विवेकानंद, चाणक्य, महात्मा बुद्ध आदि के बारे में अच्छी तरह पता होता है। पिता जी ने उस लेख में इस सवाल का जवाब भी दिया कि हमारे अपने पूर्वज केवल हमारे लिए जीते थे, जबकि ये सारे महापुरुष पूर्वज समाज के लिए जिए थे।

यह लेख पढ़कर मेरे मन में यह बात घर कर गई कि समाज सेवा करने वाले लोगों को कई पीढि़यों तक याद किया जाता है। मैंने उसी समय तय कर लिया कि मैं भी समाज के लिए कार्य करूंगा।

जब मैंने एक सरकारी महाविद्यालय में अध्यापन का कार्य शुरू किया, तो मैंने देखा कि बच्चे पास तो हो जाते हैं, लेकिन उनमें शिक्षा की गुणवत्ता नहीं है। न तो उनमें स्पर्धा की भावना है और न ही स्किल्स। मैंने देखा कि बच्चे फरवरी-मार्च तक पढ़ाई करते हैं और प्रत्येक वर्ष चार-पांच महीने गरमी की छुत्र्यिों के नाम पर बर्बाद करते हैं। शिक्षा में निरंतरता न होने के कारण बच्चों का ध्यान पढ़ाई से हट जाता था। आखिरकार मैंने यह निर्णय लिया कि मुझे बच्चों की स्किल डेवलपमेंट तथा पढ़ाई की गुणवत्ता और शिक्षा की निरंतरता के लिए काम करना चाहिए। साथ ही मुझे बच्चों की आर्थिक मदद और उन्हें जागरूक करने का काम करना चाहिए।

मुझे लगा कि मैं सरकारी कॉलेज में प्रवक्ता रहते हुए इस काम को नहीं कर पाऊंगा, क्योंकि इसके लिए पूरे समय की दरकार थी। अत: सबसे पहले मैंने नौकरी से त्यागपत्र दिया और अपनी मां के नाम पर एक संस्था की स्थापना की। इसके माध्यम से मैंने स्कूल-कॉलेजों में जाकर जागरूकता अभियान चलाया। बच्चों को शिक्षा से जोड़ने का भरसक प्रयास किया और मेरी मेहनत रंग लाई। आज भी मैं अपने कार्य में लगा हुआ हूं। मेरा उद्देश्य उन बच्चों को आगे बढ़ाने का था, जो आर्थिक रूप से कमजोर थे और वे अच्छी शिक्षा नहीं प्राप्त कर पाते थे। आज जब यही बच्चे अच्छी शिक्षा प्राप्त कर सरकारी या गैर सरकारी क्षेत्र में नौकरी पाने में कामयाब हो जाते हैं, तो मुझे बेहद संतुष्टि मिलती है।

जब मैंने नौकरी छोड़कर निर्धन पृष्ठभूमि वाले बच्चों के लिए काम करने का फैसला लिया था, तब अपने ही लोगों द्वारा मुझे व्यंग्य सुनने को मिले थे। मेरे सामने खुद अपने निर्णय पर टिके रहने और अच्छा काम करने की चुनौती थी लेकिन समाज सेवा का जो रास्ता मैंने चुना और बच्चों के विकास में जो शैक्षिक और आर्थिक योगदान किया, उससे समाज में मुझे बहुत सम्मान मिला। इसी सम्मान ने मुझे आत्मिक शक्ति भी दी है, जो समाज में किसी भी तरह की कुरीति और शोषण के खिलाफ आवाज उठाने में मेरी मदद करती है। आखिरकार पिता जी की उस रचना ने मेरा ही नहीं, तमाम बच्चों का भी जीवन बदल दिया।

शक्ति सिंह, मुजफ्फरनगर (उत्तर प्रदेश)


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