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वर्चस्व की लड़ाई कलम से

[प्रज्ञा पाण्डेय]। वरिष्ठ लेखिका शीला रोहेकर का जन्म पूना में हुआ लेकिन उनका बचपन गुजरात में गुजरा एवं शिक्षा भी वहीं हुई। पढ़ाई का माध्यम गुजराती और मातृभाषा मराठी। शीला जी कहती हैं कि इस तरह उनको दो संस्कृतियों के संस्कार मिले। पिता सरकारी मुलाजिम थे इसलिए अक्

By Edited By: Published: Mon, 03 Jun 2013 04:15 PM (IST)Updated: Mon, 03 Jun 2013 04:15 PM (IST)
वर्चस्व की लड़ाई कलम से

[प्रज्ञा पाण्डेय]। वरिष्ठ लेखिका शीला रोहेकर का जन्म पूना में हुआ लेकिन उनका बचपन गुजरात में गुजरा एवं शिक्षा भी वहीं हुई। पढ़ाई का माध्यम गुजराती और मातृभाषा मराठी। शीला जी कहती हैं कि इस तरह उनको दो संस्कृतियों के संस्कार मिले। पिता सरकारी मुलाजिम थे इसलिए अक्सर बड़े शहरों में ट्रांसफर होता रहा। मां उच्च शिक्षा प्राप्त थीं और विदुषी थीं। बचपन में परिवार का वातावरण बहुत मुक्त था। माइक्रोबायोलोजी में बी.एस.सी. शिक्षा प्राप्त शीला रोहेकर को कालेज की लाइब्रेरी से हिन्दी की पत्रिकाएं पढ़ने के शौक को बढ़ावा मिला। ज्ञानोदय, कहानी, नई कहानी, सारिका आदि पत्रिकाएं खूब पढ़ीं। गुजराती साहित्य भी बहुत पढ़ा। पहले गुजराती में कहानियां लिखीं। 1968 में पहली कहानी धर्मयुग में छपी जिसका शीर्षक था 'डूबने से पहले।' सारिका, कहानी, नई कहानी, हंस आदि पत्रिकाओं में कहानियां छपीं। 'चौथी दीवार' कहानी सारिका में छपी जिसकी बहुत चर्चा हुई। विवाह, नौकरी और बच्चे की परवरिश की व्यस्तताओं के बीच लेखन में व्यवधान आया। एक लम्बे अंतराल के बाद उनका उपन्यास आया 'दिनान्त' जिसपर उन्हें यशपाल पुरस्कार मिला। उनका उपन्यास 'ताबी•ा' 2005 में आया जिसका विषय बाबरी मस्जिद विध्वंस था, जिसमें उन्होंने इतिहास में जाकर उस समय के समाज की गहरी पड़ताल की है। शीला जी कहती हैं कि यदि उपन्यास समय से आया होता तो निश्चित रूप से इसकी चर्चा होती लेकिन प्रकाशक की लापरवाही के कारण उपन्यास देर से आया। शीला रोहेकर उपन्यास की विधा को अपने अनुकूल पाती हैं। वे कहती हैं ''उस विधा में मैं अपना सर्वोत्तम दे सकती हूं।''

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शीला रोहेकर का मानना है कि किसी भी कहानी या उपन्यास को अपने भीतर तपाकर ही रचनाकार परिपक्व एवं सुन्दर सृजन को जन्म देता है। बेहद सहज और संवेदनशील, चुप-चुप सी दिखाई देने वाली किन्तु अपने विचारों में स्पष्ट शीला जी का हाल ही में एक उपन्यास आया है 'मिस सम्युएल- एक यहूदी गाथा'। अपने दीर्घ लेखकीय जीवन में कम लिखकर भी अपने पदचिथ् छोड़ती शीला रोहेकर अपनी पीढ़ी की तुलना में आज की पीढ़ी को थोड़ा जल्दी में पाती हैं।

प्रश्न- मिस सम्युएल- एक यहूदी गाथा उपन्यास में यहूदी लोगों के दीर्घकालीन अवसादपूर्ण अतीत को इतनी सहज अभिव्यक्ति देकर क्या आप स्वयं मुक्ति का अनुभव करतीं हैं?

शीला रोहेकर- जेम्स जायस का पहला उपन्यास है 'पोट्र्रेट ऑफ द आर्टिस्ट ऐज अ यंग मैन' उस उपन्यास में उन्होंने कहीं लिखा है 'मैंने अपनी अंतस की भट्ठी में अपनी जाति की आत्मा को ढालने की कोशिश की है। मैं भी इस उपन्यास के लेखन के दौरान बहुत तनाव-ग्रस्त रही हूं क्योंकि अपनी जाति के इतने बड़े संघर्ष को किसी औपन्यासिक परिवेश में ढालना काफी कठिन चुनौती थी, एक दीर्घकालीन अवसाद मेरे भीतर हमेशा पनपता रहा है और मुझे गाहे-बगाहे कठघरे में खड़ाकर प्रश्न पूछता रहा है कि मैंने अपने लेखन के दौरान किसी यहूदी पात्र को क्यों नहीं रचा? और मैं इसका एक ही उत्तर दे सकती हूं कि वे सारे पात्र मेरे जेहन में मौजूद थे। बस परिपक्व नहीं हुए थे इसलिए बेचैनी और तड़फड़ाहट रहती थी। इस उपन्यास को लिखते हुए मैंने अपने भीतर पनपते अवसाद, कसमसाहट और खलिश को बहुत करीब से देखा और फिर धीरे-धीरे उन्हें पार किया है। इसीलिये शायद यह कह सकती हूं कि इस उपन्यास को लिखने की अपनी कोशिशभर मुक्ति का एहसास कहीं सुकून देता है।

प्रश्न- इस उपन्यास की छह पीढि़यों की कथा में विभिन्न चरित्रों की गझिन संवेदनाओं और उनके गुम्फित मनोविज्ञान को आपने इस तरह बुना कि कथा में एक सुलझी हुई निरंतरता बनी हुई है। इस शिल्प को गढ़ने में आपको कितने वर्ष लगे?

शीला रोहेकर- संभवत: मेरी रचना प्रक्रिया काफी सहज है इसलिए इसके लिए प्रयत्न नहीं करना पड़ा है। फिर भी मिस सैम्युएल एक यहूदी गाथा की छह पीढि़यों और उसमें गुम्फित चरित्रों को उकेरने में मुझे करीब दो वर्ष लगे हैं। ये सारे चरित्र चाहे वह पहली पीढ़ी की इसाजी एलोजी (आईजक एलायाजा) या छठी पीढ़ी की मेरी और सारा का हो अपनी कौम के और आसपास के चरित्रों पर ही आधारित हैं। उनकी मानसिक उधेड़बुन, व्यथा और तकलीफों को मैंने बहुत करीब से देखा, सुना है। इसीलिये शायद उनकी संवेदनाओं को रच पायी हूं। ये सारे ही पात्र संवेदनाओं के स्तर पर एक दूसरे से जुड़े हुए तो हैं ही कहीं न कहीं निष्कासन, त्रासदी और अकेलेपन के स्तर पर भी एक दूसरे के बहुत करीब हैं। शायद इसीलिए निरंतरता की एक पतली डोर सबको समेटे हुए दिखायी देती है।

प्रश्न- आपके इस उपन्यास में बलात्कृत और शोषित स्त्री हाशिये पर होकर भी राख में चिंगारी की तरह मौजूद है आपकी दृष्टि में आज की स्त्री अपने संघर्षो में कितनी कामयाब है?

शीला रोहेकर- मानव सभ्यता का इतिहास मातृसत्तात्मक व्यवस्था से शुरू हुआ किन्तु कारणों में न जाते हुए केवल इतना ही कह रही हूं कि वह शीघ्र ही पितृसत्तात्मक खेमे में चला गया है। आज इसीलिए दुनियाभर में यह आधी आबादी अपनी, पहचान समानता और स्पेस फिर से पाने के लिए संघर्ष-रत है। मेरे ख्याल से इस उपन्यास के शिल्प में नारी पात्रों के द्वारा अल्पसंख्यक जातियों के दमन और शोषण के प्रश्न भी उठाये गए हैं। इन सवालों के साथ-साथ पुरुषसत्तात्मक समाज में स्त्री-दमन के सवाल भी जुड़े हुए हैं, हो सकता है कि पाठक को स्त्री हाशिये पर नजर आये लेकिन एक प्रक्रिया के तहत स्त्री और पुरुष दोनों ही धाराएं साथ-साथ चलती हैं। उपन्यास के कुछ स्त्री पात्रों के स्वर प्रतिरोध के भी हैं। जहां तक आज की संघर्षरत स्त्री का प्रश्न है तो मैं यह मानती हूं कि आज की सजग, सतर्क और संवेदनशील स्त्री ने अपनी दृष्टि साफकर आगे कदम बढ़ा दिए हैं उसको मंजिल तक पहुंचना भी है किन्तु अनेकानेक व्यवधान हैं। यह सजगता एक खास वर्ग में है। बहुसंख्यक स्त्री समाज अभी भी दमन, रूढि़वाद, कुंठाओं, धर्माधता और पुरुषसत्ता को सर्वोच्च मानने के अन्धकार में गोते खा रहा है इसलिए मुझे लगता है कि बहुत कुछ है जिसे बदलने की, परखने की और नकारने की जरूरत है। सच तो यह है कि स्त्री को अपनी जमीन खुद तलाशनी है उसे किसी आधार की अपेक्षा भी नहीं करनी चाहिए।

प्रश्न- मौजूदा दौर में जब तकनीकी और विज्ञान अपने चरम की ओर अग्रसर है आप दुनिया भर में चल रहे कौमी संघर्षो और वर्चस्व की लड़ाई को किस नजरिए से देखती हैं?

शीला रोहेकर- तकनीकी और विज्ञान के दौर में अग्रसर होती इस दुनिया में चलता यह कौमी संघर्ष और वर्चस्व की लड़ाई आज का संघर्ष नहीं है। इस दुनिया में यह लड़ाई आज से नहीं है, जब से मानव सभ्यता का विकास हुआ है, कबीले और गुट बने थे तब से यह लड़ाई जारी है। यह कल और आज की व्यथा नहीं है। यह मनुष्य के मूलभूत स्वभाव का अंधेरा है क्योंकि मनुष्य का अस्तित्व एक अति दीर्घकालीन प्रक्रिया के तहत हुआ है और उसमें मूल रूप से वह आदिम पशुता भी मौजूद है जहां से वह विकसित होता है। समय ने उसे और क्रूर, अवसरवादी और आततायी बना दिया, किन्तु इक्कीसवीं शताब्दी में आई संचार और तकनीकी क्रांति का एक बहुत सकारात्मक पक्ष भी उभर कर आ रहा है। जैसे 'अरब बसंत' से शुरू हुए जनांदोलन पश्चिम और पूर्व में भी फैले हैं। हमारे यहां सोलह दिसंबर-बलात्कार-कांड पर पूरा देश एक साथ खड़ा रहा। मैं मानती हूं कि यह एक बहुत बड़ी सकारात्मक प्रक्रिया की शुरुआत है।

प्रश्न- अपनी लंबी लेखकीय यात्रा में आपके पास गिनी हुई पर अपनी छाप बनाती किताबें हैं। आज के दौर में जब इतनी किताबें हैं और लिखना और छपना इतनी तेज गति से हो रहा है, इस पर आप कुछ कहें।

शीला रोहेकर- प्रज्ञा, यह दौर साहित्य में हमेशा रहा है। कुछ बहुत छपते हैं, बहुत लिखते हैं और चर्चित भी हो जाते हैं लेकिन मेरा यह मानना है कि कला ही नहीं कला का कोई भी क्षेत्र हो आप कितने समय तक सार्थक लेखन करते हैं यह महत्वपूर्ण है क्योंकि मैं मानती हूं कि वही आपको अपने तई भी और दूसरों की नजर में भी संतोष देता है और जीवित रखता है।

संपर्क: 89 लेखराज नगीना,

सी-ब्लाक, इंदिरा नगर, लखनऊ

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