Move to Jagran APP

श्रेष्ठ साहित्य का लोकप्रिय न होना खतरनाक

<p>[इष्ट देव सांकृत्यायन] कवि-आलोचक विश्वनाथ तिवारी हिंदी के पहले रचनाकार हैं जिन्होंने साहित्य अकादेमी के अध्यक्ष का पदभार संभाला है। स्वभाव से विनम्र और मृदभाषी प्रो. तिवारी विवादों से दूर रहते हुए सतत साहित्य साधना करने वाले व्यक्ति हैे। हालांकि साहित्य-संस्कृति से लेकर समाज और राजनीति तक के मसलों पर अपनी स्वतंत्र और स्पष्ट राय रखने में वे कभी संकोच भी नहीं करते। यह स्पष्टवादिता और शिष्टता उनकी कविताओं और समालोचना में साफ तौर पर देखी जा सकती है। उनके संपादन में 1978 से निकल रही साहित्य त्रैमासिक दस्तावेज भी उनके व्यक्तित्व का आईना है। पिछले दिनों एक अनौपचरिक भेंट के दौरान हुई बातचीत :- </p>

By Edited By: Published: Mon, 18 Mar 2013 04:29 PM (IST)Updated: Mon, 18 Mar 2013 04:29 PM (IST)
श्रेष्ठ साहित्य का लोकप्रिय न होना खतरनाक

[इष्ट देव सांकृत्यायन] कवि-आलोचक विश्वनाथ तिवारी हिंदी के पहले रचनाकार हैं जिन्होंने साहित्य अकादेमी के अध्यक्ष का पदभार संभाला है। स्वभाव से विनम्र और मृदभाषी प्रो. तिवारी विवादों से दूर रहते हुए सतत साहित्य साधना करने वाले व्यक्ति हैे। हालांकि साहित्य-संस्कृति से लेकर समाज और राजनीति तक के मसलों पर अपनी स्वतंत्र और स्पष्ट राय रखने में वे कभी संकोच भी नहीं करते। यह स्पष्टवादिता और शिष्टता उनकी कविताओं और समालोचना में साफ तौर पर देखी जा सकती है। उनके संपादन में 1978 से निकल रही साहित्य त्रैमासिक दस्तावेज भी उनके व्यक्तित्व का आईना है। पिछले दिनों एक अनौपचरिक भेंट के दौरान हुई बातचीत :-

loksabha election banner

साहित्य अकादमी का यह पद संभलने के बाद आपको कैसा लग रहा है?

साहित्य अकादमी का यह पद साहित्य का लगभग सर्वाधिक जिम्मेदारी वाला पद है। यहां पहुंचकर किसी भी लेखक को प्रसन्नता ही नहीं संतोष भी होता है। उस प्रसन्नता और संतोष का अनुभव मैं भी कर रहा हूं।

आम तौर पर यह धारणा रही है कि दूसरी भारतीय भाषाओं के रचनाकार साहित्य अकादमी के लिए अध्यक्ष पद के चुनाव में हिंदी वालों का साथ नहीं देते आपका अपना अनुभव कैसा रहा है?

नहीं, ऐसा नहीं है। अगर दूसरी भारतीय भाषाओं के लोग साथ न देते तो मैं यहां तक पहुंचता ही कैसे? हिंदी को लेकर कुछ गलतफहमियां पिछले वर्र्षो में राजनीतिक कारणों से पैदा हुई और लेखकों ने भी इस दिशा में शायद कम प्रयास किये।

लेखकों को इसके लिए क्या प्रयास करने चाहिए थे जो उन्होंने नहीं किए?

हिंदी के लेखकों के दूसरी भाषाओं के लेखकों की रचनाओं को महत्व देकर उनके अनुवाद, उनकी समीक्षाएं आदि करनी चाहिए। अगर वह लेखक संपादक है तो उसे हिंदी के अलावा अन्य भारतीय भाषाओं की सामग्री भी प्रकाशित करनी चाहिए। इससे हमारी भाषाएं एक-दूसरे के करीब आती हैं। अगर कोई लेखक अकादमिक स्तर पर किसी व्यवस्था का अंग है तो उसे दूसरी भाषाओं के लेखकों को भी पुरस्कार सम्मान आदि देने चाहिए। ये सब चीजें हैं जिनसे भाषाएं एक-दूसरे के करीब आती हैं।

हिंदी की बहुत बडी समस्या है कि लेखक को न तो अपने लेखन का उचित पारिश्रमिक मिल पाता है और न अनुवाद का। क्या ऐसी स्थिति में यह उम्मीद की जानी चाहिए कि इस दिशा में कुछ खास हो सकेगा?

प्रकाशन की समस्या तो सभी भाषाओं में है। मैने दूसरी भाषाओं के लेखकों से भी इस संबंध में बहुत बात की है और लगभग सबकी यह मुश्किल है। सभी भाषाओं में प्रकाशन की गति मंद है तथा प्रकाशकों द्वारा रॉयल्टी भी नाममात्र की मिलती है। हिंदी में चूंकि लेखकों की संख्या ज्यादा है, इसलिए प्रकाशकों के विरुद्ध प्रतिक्रिया भी अधिक है। लेकिन आपने जो समस्या उठाई है, यह बहुत महत्वपूर्ण समस्या है।

क्या इसके समाधान की दिशा में कुछ किया जा सकता है?

निजी क्षेत्र के प्रकाशकों के मामले में तो अकादमी कुछ नहीं कर सकती। क्योंकि यह आधिकारिक रूप से अकादमी का कार्य नहीं है, लेकिन प्रकाशकों को जरूर इस पर विचार करनी चाहिए।

यह समस्या केवल भारतीय भाषाओं के साथ ही है। भारतीय भाषाओं में भी बांग्ला और मराठी जैसी भाषाओं के साथ यह समस्या नहीं है। अंग्रेजी में तो बिल्कुल नहीं।

हां नहीं है। अंग्रेजी में तो यह समस्या है ही नहीं।

तो हमारे ही साथ यह समस्या क्यों है? क्या कानून इस दिशा में कुछ कर सकता है?

देखिए, कानून के संबंध में तो मुझे कोई खास जानकारी नहीं है लेकिन रॉयल्टी को लेकर कानून तो है। हमको लगता है कि प्रकाशकों के साथ-साथ लेखकों की भी एक कमजोरी है। लेखक अपनी कृतियों को प्रकाशित करने को लेकर बहुत ज्यादा लालायित रहते हैं और हिंदी में नए-नए लेखकों की बडी भीड भी है। इससे प्रकाशकों को यह सुविधा हो जाती है कि वे लेखक का उचित मानदेय न देने के लिए स्वतत्र हो जाते हैं। यह शिकायत लगभग सभी लेखकों द्वारा की जाती है।

एक बात बार-बार कही जाती है कि हिंदी समाज में श्रेष्ठ साहित्य लोकप्रिय नहीं हो पाता। लगभग यह धारणा सी बन गई है कि जो लोकप्रिय है वह साहित्य नहीं है और जो साहित्य है वह लोकप्रिय नहीं है। क्या आपको नहीं लगता कि यह धारणा लेखकों के नुकसान का बडा कारण बन रही है?

जो श्रेष्ठ साहित्य है वह थोडा कम तो होगा बिकने के लिए, थोडा कम बिकाऊ होगा। क्योंकि उसमें उस तरह से रहस्य-रोमांच और चालू मानसिकता को तृप्त करने का साधन नहींहोगा। लेकिन, श्रेष्ठ साहित्य का लोकप्रिय न होना किसी समाज के लिए बहुत खतरनाक है। कुछ बहुत सारी परिस्थितियों के चलते और खास तौर से हिंदी प्रदेश की राजनीतिक परिस्थितियों के चलते पुस्तकों की दुनिया से हिंदी समाज कुछ अलग है। बहुत कुछ जो रोल मॉडल्स हैं युवकों के, हिंदी प्रदेश में लेखक, संस्कृतिकर्मी नहीं रह गए हैे।

क्या आप इस दिशा में कुछ करेंगे?

इस दिशा में हिंदी प्रदेश या पूरे भारत में अधिक से अधिक साहित्यिक-सांस्कृतिक कार्यक्रम किये जाने चाहिए। यह कोशिश की जानी चाहिए कि दूर-दराज के इलाकों में पाठकों तक पुस्तकें पहुंचें। हालांकि यह काम नेशनल बुक ट्रस्ट कर रही है, लेकिन साहित्य अकादमी को भी इस दिशा में सोचना होगा। हम लोग इस पर विचार करेंगे कि हम इस पर क्या और कितना कर सकते हैं।


Jagran.com अब whatsapp चैनल पर भी उपलब्ध है। आज ही फॉलो करें और पाएं महत्वपूर्ण खबरेंWhatsApp चैनल से जुड़ें
This website uses cookies or similar technologies to enhance your browsing experience and provide personalized recommendations. By continuing to use our website, you agree to our Privacy Policy and Cookie Policy.