मरा नहीं करते 'मंजूनाथ'
वह आइआइएम लखनऊ से ग्रेजुएट करने के बाद देश की एक नामी-गिरामी तेल कंपनी में बड़े पद पर पहुंचा। तमाम पेशेवर गुणों के साथ वह अपने साथ 'ईमानदारी' नामक आदत भी ले गया। उसे नहीं मालूम था कि वह अपनी इसी आदत का शिकार हो जाएगा। उसकी हत्या की खबर ने सबको दह
वह आइआइएम लखनऊ से ग्रेजुएट करने के बाद देश की एक नामी-गिरामी तेल कंपनी में बड़े पद पर पहुंचा। तमाम पेशेवर गुणों के साथ वह अपने साथ 'ईमानदारी' नामक आदत भी ले गया। उसे नहीं मालूम था कि वह अपनी इसी आदत का शिकार हो जाएगा। उसकी हत्या की खबर ने सबको दहला दिया था। अब बड़े पर्दे पर लोग इस मर्माहत करने वाली कहानी 'मंजूनाथ: इडियट था साला' को देखेंगे और एक बार फिर वह सुर्खियों में आएगा.. पर क्या सच में उसकी मौत हो गई है, क्या मर गया मंजूनाथ? वास्तव में मंजूनाथ मरा नहीं करते। वह तब तक जिंदा रहेगा, जब तक उसे बचाने, उसका साथ देने वाले लोग हमारे बीच रहेंगे..। सुप्रीम कोर्ट की वरिष्ठ अधिवक्ता कामिनी जायसवाल ऐसे ही विरलों में से हैं, जिन्होंने बता दिया कि जो जमीर की सुनने की जहमत उठाते हैं, वे अन्याय को अंजाम तक पहुंचाने का भी हुनर भी खूब रखते हैं। कामिनी जायसवाल से सीमा झा की खास बातचीत के अंश..
मंजूनाथ की कहानी साफ कहती है कि हम हर तरफ अपराध और अन्याय से घिरे हुए हैं, जो भी इनके खिलाफ आवाज उठाएगा, वह अकेला पड़ जाएगा और हत्यारों का शिकार बनेगा। हालात ऐसे हैं कि ये बातें आम हो चुकी हैं। आप क्या कहेंगी?
ये बातें यूं ही नहीं होती। हमारे समाज का यह सच है, जिसका चेहरा सचमुच भयावह है। कोई नहीं चाहेगा कि हम इतने बुरे दौर में आ पहुंचें, जहां जिंदगी इतनी कठिन और दुर्लभ होती जाए। अपने आसपास ईमानदारी के प्रतीक बन चुके मंजूनाथ जैसे ऑफिसर या आम आदमी को बेमौत मरता देखकर न केवल डर होता है, बल्कि यह सवाल भी खड़ा होता है कि क्या सचमुच हम इंसानियत भूल हो गए हैं! बेशक, जब-जब हम सत्येन्द्र दुबे और मंजूनाथ जैसे नौजवानों के बारे में सोचेंगे तो ये सवाल हमें जरूर घेरेंगे, पर क्या बेहतरी की कोई उम्मीद बाकी है? शायद मंजूनाथ जैसे लोगों में ही, जो ईमानदारी नाम के उस दुर्लभ होते गुण के साथ पैदा हो ही जाते हैं और हमारी तमाम कोशिशों के बावजूद एक 'पवित्र' जिद को बचाए रखते हैं। उनकी तादाद जरूर घट रही है, लेकिन इससे पहले कि वे पैदा होना ही बंद कर दें, उन्हें बचाना सीख लीजिए, क्योंकि तभी हम भी बचेंगे।
इस केस को लड़ने का फैसला आपने कैसे लिया?
अखबारों के जरिए मैंने इस मामले के बारे में जाना। यह मुझे झकझोर गया, पर एक गुस्सा भी था, जो मेरे अंदर बचपन से है। मैं अन्याय को बर्दाश्त नहीं कर सकती। जब तक उसे अंजाम तक न पहुंचाऊं, मेरा खून खौलता रहता है। रात को नींद नहीं आती, बेचैन हो जाती हूं..। मंजूनाथ के नाम पर एक ट्रस्ट है 'द मंजूनाथ षणमुगम'। उसके ट्रस्टी मंजूनाथ को न्याय दिलाना चाहते थे, उनके हत्यारों को सजा दिलाने की आस लिए आइआइएम के दो छात्र मेरे पास आए। मैं पहले ही इस खबर से अवगत थी। उनकी बात सुनकर न नहीं कर पाई।
इस केस के लिए आपको दिल्ली से उत्तर प्रदेश के लखीमपुर अक्सर जाना पड़ता होगा?
हां, पर मैं व्यस्तता की वजह से ज्यादा नहीं जा पाई। हालांकि मैंने यह व्यवस्था जरूर कर दी कि यह मामला दूसरे मामलों की तरह 'आया-गया' न बन जाए। इसको लेकर न केवल पुलिस, वकील, बल्कि आम लोगों में भी यह संदेश जाए कि जो कुछ हुआ, उसको लेकर आम लोग भी सामने आएं, वे भी जागें! सुखद यह है कि ऐसा हुआ भी। लखीमपुर में मंजूनाथ की मौत के बाद जब उनका मर्डर केस वहां के लखीमपुर सेशन कोर्ट में चल रहा था तो स्थानीय लोग भी मंजूनाथ की इस निर्मम कहानी को सुनकर गुस्से में थे। वकीलों ने भी इसे उसी रूप में सुर्खियों में बनाए रखा, जैसा मैं चाहती थी। उस दौरान मीडिया ने भी खूब सपोर्ट किया। वे खबर दिखाते थे और लोगों के मन में यह सवाल भी छोड़ जाते थे कि मंजूनाथ का असली दोषी कौन है, हम या वे चंद माफिया लोग जो मुट्ठी भर की ताकत के बावजूद हमें यूं ही मारकर चले जाते हैं और हम चुप बैठ बस तमाशा देखते रह जाते हैं?
इस पेशे से कब जुड़ीं, क्या शुरुआती दौर से वकालत आपकी चाहत थी?
अस्सी के दशक से मैं इस पेशे में हूं। कह सकती हूं, बस यूं ही इस पेशे में आ गई। मेरा कोई मकसद नहीं था, इस प्रोफेशन में आना। मैं मेडिसिन में जाना चाहती थी। यही सपना था, पर मेडिकल परीक्षा देने के लिए उम्र कम पड़ गई और मैं यह परीक्षा नहीं दे पाई। इसलिए वकालत का पेशा चुनना पड़ा।
आप बेबाक हैं। हर फैसला ठोंक बजाकर लेती हैं। अन्याय के खिलाफ उठ खड़े होने की यह आदत इतनी आसानी से पैदा नहीं होती। क्या है इस साहस का सच?
मैं इलाहाबाद की हूं। एक निम्न मध्यमवर्गीय परिवार में पैदा हुई। पिताजी को बचपन से ईमानदारी की राह पर चलते देखा और उन्हें देखते बड़ी हुई। घर से लेकर दफ्तर तक उनकी ईमानदारी की चर्चा सब करते थे। एक बार मेरी बहन इंटरव्यू देने गई तो पिताजी के बारे में जानने भर से उसकी नियुक्ति हो गई। जाहिर है मैंने अपने जमीर को बचपन से जिंदा रखा है। बस इसी की सुनती हूं। कोई भय नहीं, कोई लालच नहीं। पैसे बनाने, बिल्डिंगें खड़ी करने का शौक नहीं पालती। इससे ज्यादा और क्या कहूं!
ईमानदारी अब खत्म होती जा रही है। मंजूनाथ अब कम पैदा होते हैं। क्या सच है?
नहीं। खत्म के बजाय कहिए कम होती जा रही है। ईमानदारी अभी है और ईमानदार लोग आगे भी रहेंगे। अंतर बस इतना है कि जहां कुछ साल पहले तक ईमानदारों में भ्रष्टाचारियों को ढूंढ़ना पड़ता था, अब भ्रष्टाचारियों की भीड़ में चंद ईमानदारों की तलाश करनी होती है!
क्या आप केस के दौरान के मंजूनाथ के परिवार से भी मिलीं थीं?
नहीं। केस के लिए मंजूनाथ के साथियों ने ही वह सब उपलब्ध कराया, जिसकी जरूरत थी। उनके युवा साथियों को सलाम, जिन्होंने इस मामले को लोगों तक पहुंचाया और लोगों ने मंजूनाथ के बारे में जाना। उन्होंने अपना आत्मविश्लेषण किया कि क्या हम अपने अंदर बैठे मंजूनाथ को जगा सकते हैं..? परिवार वाले केस के दौरान दक्षिण भारत में ही थे, वे मिलने नहीं आ पाए।
उन लोगों से क्या कहेंगी, जो बस भ्रष्टाचार को मिटाने की बातें घर बैठकर खूब करते हैं। दफ्तरों में होने वाली बहस में खूब बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते हैं, लेकिन जब कुछ गलत घटता है तो चुप बैठ जाते हैं?
बस यही कि जिनके बारे में वे बातें कर रहे हैं, कहीं यह न हो कि ठीक वही हादसा या फिर से वही वारदात उनके साथ भी दोहराई जाए! हो सकता है अबकी बार उसका वार तेज हो, उसका घाव कहीं ज्यादा गहरा हो! उन्हें यह समझना चाहिए कि वे भी इसी समाज का हिस्सा हैं। इस समाज को बनाने, उसे और बेहतरी की ओर ले जाना उनका दायित्व है। इसके लिए यदि मौत से भी जूझना पड़े तो उन्हें पीछे नहीं हटना चाहिए। मौत तो एक दिन आनी ही है, क्यों न हम अपने लिए, अपने समाज के लिए कुछ ऐसा कर जाएं कि हमारी मौत मंजूनाथ की मौत की तरह मिसाल बन जाए! पर यह उन लोगों से न होगा, जो खुद में सिमटे हैं और क्षण भर के सुख, चंद सिक्कों के खातिर ईमान बेचने से भी गुरेज नहीं करते।