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अपनी किस्मत पर हक है मेरा..

देश स्वतंत्र हुआ तो लोगों को आजादी का स्वाद मिला, लेकिन जब 26 जनवरी 1

By Edited By: Published: Mon, 27 Jan 2014 11:27 AM (IST)Updated: Mon, 27 Jan 2014 11:27 AM (IST)
अपनी किस्मत पर हक है मेरा..

देश स्वतंत्र हुआ तो लोगों को आजादी का स्वाद मिला, लेकिन जब 26 जनवरी 1950 को भारत गणतंत्र राष्ट्र घोषित हुआ तो लोगों को अपने मौलिक अधिकारों का ज्ञान हुआ और बराबरी का एहसास भी हुआ। 64 साल बीत जाने के बावजूद देश की राजकीय व्यवस्था हर आदमी के लिए मददगार साबित नहीं हो पाई है। ऐसे कई लोग हैं, जिन्हें आज भी अपने अधिकारों के लिए लड़ना पड़ता है। अपनी बात कहने के लिए सिस्टम के प्रति उन्हें विरोध जताना पड़ता है। इनमें से कुछ लोगों का विरोध काफी प्रखर होता है, पर कुछ लोग मौन प्रतिरोध भी जताते हैं। हां, सबका लक्ष्य एकसमान होता है-अपनी-अपनी लड़ाई लड़कर अपने मन-मुताबिक मंजिल हासिल करना।

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मैं स्वयं तय करूं अपने मूल्य ऊषा किरण 'किरण', कवियित्री

दुर्दिनों से ऊर्जा ग्रहण कर साहित्य के लिए नई स्याही एकत्रित करने वाली डोगरी लेखिका ऊषा किरण उन दिनों को याद करती हैं जब वह आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होने के बावजूद अपने जीवन को मन मुताबिक दिशा नहीं दे पा रहीं थीं। वह कहती हैं कि हर दुख से मुक्ति के लिए मायके का मुंह ताकते-ताकते जब मैं थक गई तो अपने लिए भावनात्मक संबल तैयार किया। हालांकि इसमें मेरे पिता मेरी प्रेरणा बने। किरण कहती हैं कि सिर्फ पैसा कमा लेना काफी नहीं है। उसे खर्च करने का विवेक और अधिकार भी स्त्री के पास होना जरूरी है। स्त्री के उत्थान और पतन दोनों के कारण समाज से पहले उसके अपने घर में ही मौजूद हैं। हम गणतंत्र की भावना को तभी सार्थक कर सकते हैं जब औरतों को अपने वर्तमान और अपने भविष्य के लिए मूल्य स्वयं निर्धारित करने का अधिकार मिले। हालांकि इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि हम अपने नैतिक मूल्य ही गवां बैठें। घर हो या ऑफिस उसे अपने कर्तव्यों और जिम्मेदारियों में सामंजस्य बैठाकर चलना होगा। तभी वह दूसरों के लिए आदर्श बन पाएगी। कभी कलम पकड़ने से घबराने वाली ऊषा किरण आज डोगरी की प्रख्यात लेखिका हैं।

बेहतर जीवन के लिए संघर्षरत अनिता पीटर, समाजसेवी

अपने अधिकारों के लिए लड़ना और अन्य महिलाओं को भी उनके प्रति जागरूक करना स्त्री जागृति मंच का मकसद है। इस संस्था की जालंधर इकाई की अधयक्ष अनिता पीटर के अनुसार पंजाब में लड़कियों से छेड़छाड़ के पीछे पंजाबी गीतों में पनप रही अश्लीलता मुख्य कारण है। यह बात एक सर्वेक्षण से पता चली। मंच की प्रेस सचिव जसवीर जस्सी के अनुसार इसके विरोध में हमने कुछ गायकों के घरों के आगे धरना-प्रदर्शन किये और उनके पुतले फूकें। सरकार से मांग की है कि ऐसे गीतों पर नजर रखने के लिए कोई बोर्ड होना चाहिए और बसों में ऐसे गीत बजाने पर प्रतिबंध होना चाहिए।

मैंने तोड़े मुगालते डॉ. वाहिदा किचलू, वेटरनरी डॉक्टर

जम्मू-कश्मीर की पशु चिकित्सक डॉ. वाहिदा किचलू कहती हैं कि मैं जब गर्भवती थी तब भी मैं हर रोज छह किलोमीटर का पैदल पहाड़ी सफर तयकर हॉस्पिटल तक पहुंचती थी। ताकि ऊपर वाले ने मुझे मातृत्व की जो नेमत बख्शी है उसे कोई मेरी कमजोरी न समझ ले। मैंने बिना किसी झिझक के वह सब किया जिसे अब तक पशु चिकित्सा जगत में सिर्फ पुरुषों का ही अधिकार समझा जाता था। खास बात यह कि यह अधिकार उन्हें दुनिया की किसी किताब ने नहीं दिया, बस उन्होंने स्वयं लिया। मैंने जब कृत्रिम गर्भाधान की शुरुआत की तो मस्जिदों से मेरे खिलाफ ऐलान हुए कि यह औरत होकर यह काम कैसे कर सकती है। खुशकिस्मती से परिवार ने मेरा साथ दिया। मैं मानती हूं कि गणतंत्र के मायने यही हैं कि समाज के प्रत्येक व्यक्ति में अपनी जिम्मेदारियों को निभाने का हौसला और अधिकारों के प्रयोग के लिए जागरूकता हो। इसके अलावा दुनिया का कोई भी संविधान आपको आत्मनिर्भर और जवाबदेह नहीं बना सकता।

अनोखी समाज सेवा सिल्की कौर, समाजसेविका

जीवनपथ पर चलते हुए कई बार कंटीली राहों से भी गुजरना पड़ता है। इन संघर्ष रूपी कांटों को फूलों के रूप में जीवन में अपना लेने वाले विरले ही होते हैं। जालंधर की सिल्की कौर की कहानी भी कुछ ऐसी है जिसने जिंदगी के थपेड़ों को झेलने के बावजूद उनसे उभर कर स्वयं को समाजसेवा के लिए समर्पित कर दिया। वह ऐसी महिलाओं की मददगार हैं जिनके परिवार में नशे की समस्या के कारण हमेशा कलेश रहता है। वह नशा छुड़ाने वाली एक संस्था से जुड़ी हैं और लोगों को काउंसलिंग के जरिए समझाती हैं। वह कहती हैं कि खराब लतों से निजात पाने के लिए सबसे पहले घर की महिला को संयम से काम लेते हुए यह समझना होगा कि शराब की लत एक बीमारी है। व्यक्ति को कोसने के बजाय धैर्य व प्यार से समझाएं। धीरे-धीरे उसे अध्यात्म की ओर मोड़कर जीवन में सकारात्मकता बढ़ाई जा सकती है।

काम बोलता है सुमन संथालिया, आर्टिस्ट

दिल्ली की आर्टिस्ट सुमन संथालिया का कहना है कि शुरुआत से लेकर अब तक कभी भी मुझे सिस्टम का साथ नहीं मिला है। मैं ट्राइबल आर्ट पर काम करती हूं। मुझे आज भी याद है कि शुरुआत में जब दिल्ली सरकार की ट्राइसाइड संस्था (ट्राइबल आर्ट को प्रमोट करने वाली) के पास अपना काम लेकर गई तो उन्होंने मेरा विरोध किया। वहां लोग मुझसे बोले कि आप ट्राइबल कोटे से नहीं आती हैं। फिर आप इस कला को कैसे रिप्रजेंट कर सकती हैं? उन्होंने मेरे काम को किसी तरह की मान्यता देने से भी इंकार कर दिया। फिर भी मैंने अपना प्रयास जारी रखा। मैंने अपने लिए बाजार क्रिएट किया। न सिर्फ अपनी कला को जन-जन तक पहुंचाया, बल्कि अपनी कंपनी 'आकृति आर्ट क्रिएशन' के माध्यम से मैंने 200 से अधिक लोगों को रोजगार भी दिया। अगर आप अपने काम के प्रति ईमानदार हैं तो सिस्टम कभी-भी अधिक दिनों तक आपकी राह में अवरोध पैदा नहीं कर सकता। यह सच है कि लोगों में अब सिस्टम को लेकर अवेयरनेस बढ़ गई है। देश और समाज बदल रहा है। इसलिए गणतंत्र की मूल भावना को समझते हुए सिस्टम और सरकार को भी बदलना चाहिए।

न टूटे हौसला कभी बिगन सॉय, हॉकी प्लेयर

झारखंड की रहने वाली हॉकी खिलाड़ी बिगन सॉय कहती हैं कि पिछले साल जूनियर वुमंस हॉकी व‌र्ल्ड कप में ब्रॉन्ज मेडल जीतने वाली भारतीय टीम में मैं गोलकीपर थी। बचपन से मेरी रनिंग कैपेसिटी बेहद अच्छी थी। जब मैं वनगांव (झारखंड) के कन्या आश्रम स्कूल में पढ़ाई कर रही थी तो वहां एक मैम ने मुझे हॉकी खेलने की सलाह दी। तब से मुझे हॉकी खेलने की धुन सवार हो गई। गांव की ओर से जब भी कोई हॉकी टूर्नामेंट होता, मैं उसमें जरूर भाग लेती। मैं साधारण परिवार से थी, लेकिन बेहतर ट्रेनिंग लेना चाहती थी। झारखंड में बढि़या हॉकी खेलने वालों की कोई कमी नहीं है, लेकिन सरकार की तरफ से कभी कोई मदद नहीं मिलती है। फिर भी मैंने हिम्मत नहीं हारी। मेरे कोच एस के मोहंती ने हमेशा मेरी हौसलाअफजाई की। उनकी बदौलत ही मैं न सिर्फ स्टेट लेवल, बल्कि नेशनल लेवल पर खेल पाई। मेरा मानना है कि तंत्र की तरफ ताके बिना, अपने लक्ष्य पर नजर रखें तो कामयाबी जरूर मिलेगी।

अभी बहुत मेहनत करनी है शाहिदा परवीन, डीएसपी

जम्मू-कश्मीर की एनकाउंटर स्पेशलिस्ट शाहिदा परवीन का कहना है कि जिम्मेदारियां निभाने में महिलाएं कहीं भी पीछे नहीं हैं। आज भी उनकी परवरिश इस तरह से की जाती है कि उन्हें अधिकारों से भी पहले उनकी जिम्मेदारियां बता दी जाती हैं, जिन्हें वह बखूबी अपना लेती हैं। आज महिलाएं जॅाब भी कर रही हैं और परिवार भी संभाल रहीं हैं। पूरी लगन के साथ परिवार का पालन-पोषण कर रहीं हैं। बच्चों का भविष्य संवारने में पूरा सहयोग दे रही हैं। रही बात अधिकारों की तो इसके लिए अभी हमें बहुत मेहनत करनी है। हम अपने गणतंत्र की बात कर रहे शायद यह सोचकर हमारे देश से बाहर औरतें बहुत अच्छी स्थिति में हैं, लेकिन हिंदुस्तान से बाहर भी महिलाओं की हालत यही है। भारत ही नहीं दुनिया के अधिकांश समाज में पुरुषों का आधिपत्य है। असल में हमें थोड़ी सी मेहनत खुद करनी पड़ेगी। यह साबित करने के लिए कि हम जिम्मेदारी संभालने के काबिल हैं। उदाहरण बहुत हैं जिन्होंने अपनी क्षमता को साबित किया है। निश्चित रूप से धीरे-धीरे बदलाव आएगा।

दर्ज करो विरोध बेबी हलधर, लेखिका

मूलरूप से कोलकाता निवासी प्रसिद्ध लेखिका बेबी हलधर कहती हैं कि हर कदम पर सिस्टम और सिस्टम के लोगों से मेरी मूक लड़ाइयां होती रहीं। यह सिस्टम ही है, जो लोगों को गलत काम करने का बढ़ावा देता है। अगर आप उनका खुलकर प्रतिरोध करते हैं तो आपका अस्तित्व भी संकट में आ सकता है। इसलिए मैंने मौन रहकर अपना विरोध जताया। मैं कोलकाता से दिल्ली चली आई और अपने बच्चों के पालन-पोषण के लिए दूसरे के घरों में काम भी किया। मैंने अपने जीवन के संघर्षो को अपनी आत्मकथा 'आलो आंधारी' में व्यक्त किया, जो अब तक कई भाषाओं में अनुदित हो चुकी है। मेरी कहानी एक मिशन बन गई। मेरे जीवन की कहानी उन लाखों स्त्रियों की तरह ही है, जो घुट-घुटकर जीने के लिए विवश हैं। मुझे लगता है कि जीने का मतलब ही है विरोध करो। हर मुसीबत से लड़ो, तभी जीने का मकसद हासिल हो सकता है। मैं गणतंत्र दिवस पर खासकर महिलाओं से अपील करती हूं कि वे चुपचाप विरोध न सहें, घर से निकलें और आत्मनिर्भर बनने की कोशिश करें। तभी आपका जीवन सार्थक हो पाएगा।

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