पकड़ते हैं अपराधी, कटती है जेब
-थानों से कचहरी तक खुद की किराये से अपराधियों को ले जाते हैं आईओ -गवाही देने में मु
-थानों से कचहरी तक खुद की किराये से अपराधियों को ले जाते हैं आईओ
-गवाही देने में मुलाजिमों का निकल जाता है कचूमर
कामन इंट्रो :-
विभिन्न मामलों में वांछित अपराधियों के पकड़े जाने के बाद वाहवाही लूटने वाले आला अधिकारी निचले स्तर के पुलिस मुलाजिमों का दर्द नहीं समझते। चूंकि अपराधी को पकड़ने के बाद थानों से कचहरी तक के चक्कर लगाने में मुलाजिमों की जेब ढीली हो जाती है और इसका अधिकारियों को कोई गम ही नहीं है। थाने से कोर्ट चाहे एक किलोमीटर दूर हो या फिर दस, अपराधी को अदालत तक पहुंचाने की जिम्मेदारी इंवेस्टीगेशन आफिसर की ही होती है। थानों को तो एक ही गाड़ियां मिलती हैं। उस पर एसएचओ साहिब विराजमान होते हैं। थाने से कचहरी का चक्कर लगाने के लिए विभाग मुलाजिमों को कोई खर्च नहीं देता। अपराधियों का किराया मुलाजिमों को अपनी जेब से देना पड़ता है। अपराधियों को कचहरी तक पहुंचाने में आईओ को होने वाली दर्द को बता रहे हैं चीफ रिपोर्टर हजारी लाल:-
सभी थानों को एक ही गाड़ी मिली हुई है। उस पर एसएचओ का कब्जा होता है। थाने के बाकी मुलाजिम खुद के वाहन पर निर्भर होते हैं। उन्हें अपनी ड्यूटी बजाने का जुगाड़ खुद ही करना होता है। आपराधिक ग्राफ भले ही बहुत तेजी से बढ़ा है, मगर थानों की सुविधाएं पुराने जमाने की मिल रही हैं। किसी मामले में अपराधी को गिरफ्तार करने की सूरत में तफ्तीशी अफसर को उसे थाने तक लाने का किराया स्वयं देना पड़ता है। इसके बाद उसका रिमांड हासिल करने के लिए थाने से कचहरी तक लगने वाला किराया स्वयं आईओ देता है। फिर कचहरी से थाने तक देना होता है। चाहे जितना ही चक्कर लगे अपराधी के न्यायिक हिरासत में न जाने तक लगने वाला किराया आईओ ही भरता है। मुलाजिम बताते हैं कि कई बार तो पकड़े गए व्यक्ति के पास कोई पैसा नहीं होता है। कचहरी में लगने वाली फोटो तक के पैसे भी उन्हें ही अदा करने पड़ते हैं। मुलाजिम दबी जुबान में बताते हैं कि तबादला हो जाने की सूरत में गवाही देने के लिए उन्हें दूसरे शहरों का मुंह देखना पड़ता है। इन परिस्थितियों में रोटी से लेकर किराया तक सभी अपने जेब से ही भरने होते हैं। एक माह में हाईकोर्ट में विभिन्न केसों में कई बार तो चार-चार बार गवाही पड़ जाती है। विभाग द्वारा उन्हें इसके लिए फूटी कौड़ी नहीं दी जाती है। आने-जाने में लगने वाला खर्च स्वयं वहन करना पड़ता है। औसतन हर माह आईओ का ढाई से तीन हजार रुपए खर्च हो जाते हैं। विभाग को चाहिए कि वह आईओ को सारा का सारा खर्च दे। कुछ मुलाजिम तो यह भी बताते हैं कि इन्हीं कारणों के चलते कई बार तो मुलाजिम अपराधियों पर हाथ डालने से कन्नी काटते हैं।