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पर्यावरण संरक्षण के लिए हो जनभागीदारी : प्रिंसिपल सुरेश

संवाद सहयोगी, दातारपुर राज्य विज्ञान, प्राद्योगिकी एवं पर्यावरण परिषद् के सौजन्य से यूथ डेवलपमेंट

By Edited By: Published: Sat, 25 Jun 2016 06:57 PM (IST)Updated: Sat, 25 Jun 2016 06:57 PM (IST)

संवाद सहयोगी, दातारपुर

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राज्य विज्ञान, प्राद्योगिकी एवं पर्यावरण परिषद् के सौजन्य से यूथ डेवलपमेंट सेंटर की ओर से राष्ट्रीय पर्यावरण जागरूकता अभियान के अधीन विभिन्न जागरूकता कार्यक्रम करवाया गया। आइटीआइ जंडोर में आयोजित मुख्य कार्यक्रम में मुख्यातिथि ¨प्रसिपल सुरेश कुमार ने कहा कि सामुदायिक स्तर पर सक्रिय होकर पर्यावरण सुधार के लिए यदि जनभागीदारी से कार्य किए जाए तो वे समाज के लिए उपयोगी बन जाते हैं। सामूहिक रूप से उठाए गए ऐसे कदम से क्षेत्र के भूजल स्तर में वृद्धि हो सकती है।

ड्रिप सिंचाई पर दिया जोर

कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए सामाजिक एवं पर्यावरण विशेषज्ञ प्रेम ¨सह राणा ने कहा कि ड्रिप ¨सचाई आज की जरूरत है, क्योंकि प्रकृति की ओर से मानव जाति को उपहार के रूप में मिली जल असीमित एवं मुफ्त रूप से उपलब्ध नहीं है। विश्व जल संसाधनो में तेजी से ह्रास हो रहा है।

रिसोर्सपर्सन शिक्षाविद रोहित कौंडल ने कहा कि पौधरोपण करने से ही हमारा जीवन सुरक्षित होगा , इस लिए सभी- यूँ तो वृक्षारोपण, वृक्ष लगाने जैसे शब्दों का समर्थन करते है, किन्तु एक कदम आगे आकर वृक्षारोपण करने की नहीं सोचते। इतना भी सोचते की यदि प्रति व्यक्ति 5-5 पौधे लगाये व उसको पेड़ के बनते तक देखभाल करे तो, ग्लोबल वार्मिंग का दंश झेल रहा भारतवर्ष और पूरा विश्व एक पूर्ण सुव्यस्थित पर्यावरणीय शुद्ध वातावरण व्याप्त हो जाएगा। इस अवसर पर रिसोर्स पर्सन शिक्षाविद तुषार शर्मा ने उपस्थित लोगों से पर्यावरण सरंक्षण का आहवान किया।

ड्रिप ¨सचाई प्रणाली के आनेक लाभ हैं: इस से पैदावार में 150 प्रतिशत तक वृद्धि होती है , बाढ़ ¨सचाई की तुलना में 70 प्रतिशत तक पानी की बचत होती है। अधिक भूमि को इस तरह बचाए गये पानी के साथ ¨सचित किया जा सकता है। फसल लगातार व स्वस्थ रूप से बढ़ती है और जल्दी परिपक्व होती है। शीघ्र परिपक्वता से उच्च और तेजी से निवेश की वापसी प्राप्त् होती है। उर्वरक उपयोग की क्षमता 30 प्रतिशत बढ़ जाती है। उर्वरक, अंतर संवर्धन और श्रम का मूल्य कम हो जाता है। उर्वरक लघु ¨सचाई प्रणाली के माध्यम से और रसायन उपचार दिया जा सकता है। बंजर क्षेत्र,नमकीन, रेतीली एवं पहाड़ी भूमि भी उपजाऊ खेती के अधीन लाया जा सकता है।


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