नागरिकता संशोधन विधेयक 2016 को लेकर पूर्वोत्तर में मची हुई है उथल-पुथल
पूर्वोत्तर के स्थानीय लोगों को अप्रवासियों के धर्म की तुलना में अपनी भूमि, संस्कृति और पहचान की रक्षा की चिंता अधिक है। उन्हें लगता है कि बाहर से लोग यहां आकर उन्हें हर मामले में अल्पसंख्यक कर देंगे।
डॉ वाल्टर फर्नांडीस। नागरिकता संशोधन विधेयक, 2016 को लेकर पूर्वोत्तर में उथल-पुथल मची हुई है। सामाजिक संगठन और राजनीतिक पार्टियां सड़कों पर उतरकर इस विधेयक का विरोध कर रहे हैं। इसका असर असम और त्रिपुरा के कुछ बंगाली बहुमत वाले जिलों को छोड़कर पूरे पूर्वोत्तर पर है। विपक्ष के साथ यहां स्थानीय सत्ता पक्ष के लोग भी इसको लेकर बहुत उद्वेलित हैं। दरअसल मसला है ही कुछ ऐसा।
आमतौर पर अन्य मसलों पर पूर्वोत्तर के हर राज्य की अलग-अलग तरीके की प्रतिक्रिया होती थी, लेकिन ऐसा पहली बार हुआ है कि इस विधेयक का पूरा क्षेत्र एक साथ पुरजोर विरोध कर रहा है। सबके लिए इसे एक जैसा खतरा माना जा रहा है। नागरिकता संशोधन विधेयक के मुद्दे पर 1979-85 में असम आंदोलन का नेतृत्व करने वाली असम गण परिषद (एजीपी) ने भारतीय जनता पार्टी सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया है। विरोध के सुर असम के कुछ भाजपा विधायकों के भी सुने गए। मणिपुर के भाजपा मुख्यमंत्री ने विधेयक का विरोध किया और कहा कि मणिपुर को इससे दूर रखना चाहिए। भाजपा के सहयोग से मेघालय में सरकार बनाने वाले मुख्यमंत्री ने भी इसका विरोध किया और गठबंधन से बाहर निकलने की धमकी दी। त्रिपुरा में बंद का आह्वान मुख्य रूप से उन आदिवासियों द्वारा किया गया, जो बंगाली हिंदू आबादी से कम हो गए हैं। हालांकि विधेयक का विरोध कर रहीं विपक्षी पार्टियों का मुंह बंद करने की भाजपा ने पूरी कोशिश की है। इसी के तहत उसने आदिवासी अनुसूची से छूटे छह समुदायों को अनुसूची में शामिल करने की घोषणा की। साथ ही असम के स्वदेशी लोगों की सांस्कृतिक विविधता को अक्षुण्ण रखन को संविधान में संशोधन के लिए सुझाव देने के लिए एक समिति का गठन कर दिया है।
इस मसले का दूसरा असर पूरे इलाके में सांप्रदायिक विभाजन को गहरा कर रहा है। पूर्वोत्तर में अवैध रूप से भारत में घुसे बांग्लादेशियों को मुस्लिम अप्रवासी कहा जाता है। इसके खिलाफ वहां एक मजबूत भावना है। लेकिन त्रिपुरा में अप्रवासी मुख्यत: हिंदू हैं, जिन्होंने बहुत आदिवासी भूमि पर कब्जा कर लिया है। इसके अलावा असम की बराक घाटी में हिंदू प्रवासी हैं। स्थानीय लोगों को अप्रवासियों के धर्म की तुलना में अपनी भूमि, संस्कृति और पहचान की रक्षा करने की चिंता अधिक है। लेकिन विधेयक तीन पड़ोसी मुस्लिम बहुसंख्यक देशों के सताए हुए अल्पसंख्यकों के सभी सदस्यों को नागरिकता देने की बात करता है। हालांकि ,सिलचर में अपने भाषण में पीएम मोदी ने कहा था कि इस विधेयक से हिंदुओं को मजबूती मिलेगी। शेष अल्पसंख्यक इस उद्देश्य को छिपाने के लिए केवल एक मुखौटा थे। इसने असम में बंगाली-असमिया विभाजन के अलावा हिंदू-मुस्लिम विभाजन को गहरा किया है। त्रिपुरा में इसने आदिवासी-बंगाली विभाजन को मजबूत किया। इस प्रकार, पूर्वोत्तर में जातीय तनाव बढ़ गया।
इससे पूर्वोत्तर और प्रायद्वीपीय भारत के लोगों के बीच अलगाव की भावना बढ़ी है। इस क्षेत्र में एक भावना पैदा हो गई है कि यह कवायद सत्ताधारी पार्टी के हिंदुत्व एजेंडे का हिस्सा है और यही कारण है कि यह इस क्षेत्र की 22 सीटों को खोने के लिए तैयार है ताकि खुद को हिंदू बहुल राज्यों में अपने हिंदुत्व एजेंडे को सिरे चढ़ा सके। इस क्षेत्र को शेष भारत से अलग नहीं किया जा सकता है। शेष भारत को पूर्वोत्तर में फूट डालो और राज करो और अलगाव की नीति की सच्चाई के बारे जागरूक करने की जरूरत है। शेष भारत के लोगों को इस विधेयक का विरोध करके इस पतन को रोकने की चुनौती लेनी होगी।
(लेखक नार्थईस्टर्न सोशल रिसर्च सेंटर, गुवाहाटी में सीनियर फेलो हैं)