Move to Jagran APP

जीवन का उद्देश्य

पहले ईश्वरलाभ करो, फिर धन कमाना। यदि तुम भगवत्प्राप्ति कर लेने के बाद संसार में प्रवेश करोगे, तो तुम्हारे मन की शांति कभी नष्ट नहीं होगी। श्रीरामकृष्ण परमहंस जयंती [फाल्गुन शुक्ल द्वितीया, जो इस वर्ष 23 फरवरी को है] पर उनके विचार..

By Edited By: Published: Tue, 21 Feb 2012 07:20 PM (IST)Updated: Tue, 21 Feb 2012 07:20 PM (IST)
जीवन का उद्देश्य

पहले ईश्वरलाभ करो, फिर धन कमाना। यदि तुम भगवत्प्राप्ति कर लेने के बाद संसार में प्रवेश करोगे, तो तुम्हारे मन की शांति कभी नष्ट नहीं होगी। श्रीरामकृष्ण परमहंस जयंती [फाल्गुन शुक्ल द्वितीया, जो इस वर्ष 23 फरवरी को है] पर उनके विचार..

loksabha election banner

नाव पानी में रहे तो कोई हर्ज नहीं, पर नाव के अंदर पानी न रहे, वरना नाव डूब जाएगी। इसी प्रकार साधक संसार में रहे, तो कोई बात नहीं है, परंतु ध्यान रहे कि साधक के भीतर संसार न हो..

तुम रात को आकाश में कितने तारे देखते हो, परंतु सूरज उगने के बाद उन्हें देख नहीं पाते। किंतु इस कारण क्या तुम यह कह सकोगे कि दिन में आकाश में तारे नहीं होते। अज्ञान की अवस्था में तुम्हें ईश्वर के दर्शन नहीं होते, इसलिए ऐसा न कहो कि ईश्वर है ही नहीं। यह दुर्लभ मनुष्य-जन्म पाकर जो ईश्वर लाभ के लिए चेष्टा नहीं करता, उसका जन्म लेना ही व्यर्थ है।

जैसी जिसकी भावना होगी, वैसा ही उसे लाभ होगा। भगवान मानो कल्पवृक्ष है। उनसे जो भी व्यक्ति जिस चीज की मांग करता है, उसे वही प्राप्त होता है। गरीब का लड़का पढ़-लिखकर तथा कड़ी मेहनत कर हाईकोर्ट का जज बन जाता है और मन ही मन सोचता है- अब मैं मजे में हूं। मैं उन्नति के सर्वोत्तम शिखर पर आ पहुंचा हूं। अब मुझे आनंद है। भगवान भी तब कहते हैं- तुम मजे में ही रहो। किंतु जब वह हाईकोर्ट का जज सेवानिवृत्त होकर पेंशन लेते हुए अपने विगत जीवन की ओर देखता है, तो उसे लगता है कि उसने अपना सारा जीवन व्यर्थ ही गुजार दिया। तब वह कहता है- हाय, इस जीवन में मैंने कौन-सा उल्लेखनीय काम किया? भगवान भी तब कहते हैं- ठीक ही तो है, तुमने किया ही क्या?

संसार में मनुष्य दो तरह की प्रवृत्तियां लेकर जन्म लेता है- विद्या और अविद्या। विद्या मुक्तिपथ पर ले जाने वाली प्रवृत्ति है और अविद्या सांसारिक बंधन में डालने वाली। मनुष्य के जन्म के समय ये दोनों प्रवृत्तियां मानो खाली तराजू के पल्लों की तरह समतोल स्थिति में रहती हैं। परंतु शीघ्र ही मानो मनरूपी तराजू के एक पल्ले में संसार के भोग-सुखों का आकर्षण तथा दूसरे में भगवान का आकर्षण स्थापित हो जाता है। यदि मन में संसार का आकर्षण अधिक हो, तो अविद्या का पल्ला भारी होकर झुक जाता है और मनुष्य संसार में डूब जाता है। परंतु यदि मन में भगवान के प्रति अधिक आकर्षण हो, तो विद्या का पल्ला भारी हो जाता है और मनुष्य भगवान की ओर खिंचता चला जाता है।

उस एक ईश्वर को जानो, उसे जानने से तुम सभी कुछ जान जाओगे। एक के बाद शून्य लगाते हुए सैकड़ों और हजारों की संख्या प्राप्त होती है, परंतु एक को मिटा डालने पर शून्यों का कोई मूल्य नहीं होता। एक ही के कारण शून्यों का मूल्य है। पहले एक, बाद में बहु। पहले ईश्वर, फिर जीव। पहले ईश्वरलाभ करो, फिर धन कमाना। पहले धनलाभ करने की कोशिश मत करो। यदि तुम भगवत्प्राप्ति कर लेने के बाद संसार में प्रवेश करोगे, तो तुम्हारे मन की शांति कभी नष्ट नहीं होगी।

तुम समाज सुधार करना चाहते हो, तो ठीक है। यह तुम भगवत्प्राप्ति करने के बाद भी कर सकोगे। भगवत्प्राप्ति ही सबसे अधिक आवश्यक है। यदि तुम चाहो, तो तुम्हें अन्य सभी वस्तुएं मिल जाएंगी।

मुसाफिर को नए शहर में पहुंचकर पहले रात बिताने के लिए किसी सुरक्षित डेरे का बंदोबस्त कर लेना चाहिए। डेरे में अपना सामान रखकर वह निश्चिंत होकर शहर देखते हुए घूम सकता है। परंतु यदि रहने का बंदोबस्त न हो, तो रात के समय अंधेरे में विश्राम के लिए जगह खोजने में उसे बहुत तकलीफ उठानी पड़ती है। उसी प्रकार, इस संसाररूपी विदेश में आकर मनुष्य को पहले ईश्वररूपी चिर-विश्रामधाम प्राप्त कर लेना चाहिए, फिर वह निर्भय होकर अपने नित्य कर्तव्यों को करते हुए संसार में भ्रमण कर सकता है।

बड़े-बड़े गोदामों में चूहों को पकड़ने के लिए दरवाजे के पास चूहेदानी रखकर उसमें लाही-मुरमुरे रख दिए जाते हैं। उसकी सोंधी-सोंधी महक से आकृष्ट होकर चूहे गोदाम में रखे हुए कीमती चावल का स्वाद चखने की बात भूल जाते हैं और चूहेदानी में फंस जाते हैं। जीव का भी ठीक यही हाल है। करोड़ों विषयसुखों के घनीभूत समष्टिस्वरूप ब्रšानंद के द्वार पर होते हुए भी जीव उस आनंद को प्राप्त करने के लिए प्रयत्न न कर, संसार के क्षुद्र विषयसुखों में रत होकर माया के फंदे में फंस जाते हैं।

भक्ति ही एक मात्र सारवस्तु है- ईश्वर के प्रति भक्ति। याद रखो कि सूर्यलोक, चंद्रलोक, नक्षत्रलोक आदि तुच्छ विषयों में डूबे रहना ईश्वर की खोज का सही रास्ता नहीं है। भक्ति के लिए साधना करनी पड़ती है। अत्यंत व्याकुल हृदय से रोते हुए उन्हें पुकारना पड़ता है। विभिन्न वस्तुओं में बिखरे हुए मन को खींचकर पूरी तरह से ईश्वर में ही लगाना पड़ता है। वेद-वेदांत हों या कोई शास्त्र- ईश्वर किसी में नहीं है। उनके लिए प्राणों के व्याकुल बिना कहीं कुछ नहीं होगा। खूब भक्ति के साथ व्याकुल होकर उनकी प्रार्थना करनी चाहिए, साधना करनी चाहिए।

छोटा बच्चा घर में अकेले ही बैठे-बैठे खिलौने लेकर मनमाने खेल खेलता रहता है। उसके मन में कोई भय या चिंता नहीं होती। किंतु जैसे ही उसकी मां वहां आ जाती है, वैसे ही वह सारे खिलौने छोड़कर उसकी ओर दौड़ पड़ता है। तुम लोग भी इस समय धन-मान-यश के खिलौने लेकर संसार में निश्चिंत होकर सुख से खेल रहे हो, कोई भय या चिंता नहीं है। पर यदि तुम एक बार भी उस आनंदमयी मां को देख पाओ, तो फिर तुम्हें धन-मान-यश नहीं भाएंगे, तब तुम सब फेंककर उन्हीं की ओर दौड़ जाओगे।

धनी के घर के हर एक कमरे में दीया जलता है, लेकिन गरीब आदमी इतना तेल नहीं खर्च कर पाता। देह-मंदिर को भी अंधेरे में नहीं रखना चाहिए, उसमें ज्ञान का दीप जलाना चाहिए। हर जीवात्मा का परमात्मा से संयोग है, इसलिए हर कोई ज्ञानलाभ कर सकता है। हर घर में गैस की नली होती है, जिससे गैस कंपनी से गैस आती है। बस, योग्य अधिकारी को अर्जी भेजो, गैस भिजवाने का प्रबंध हो जाएगा और तुम्हारे गैसबत्ती जलने लगेगी।

[रामकृष्ण मठ की पुस्तक अमृतवाणी से]

मोबाइल पर ताजा खबरें, फोटो, वीडियो व लाइव स्कोर देखने के लिए जाएं m.jagran.com पर


Jagran.com अब whatsapp चैनल पर भी उपलब्ध है। आज ही फॉलो करें और पाएं महत्वपूर्ण खबरेंWhatsApp चैनल से जुड़ें
This website uses cookies or similar technologies to enhance your browsing experience and provide personalized recommendations. By continuing to use our website, you agree to our Privacy Policy and Cookie Policy.