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माघी मेला चल अकेला

है गंगे तुम्हारी महिमा अनंत है, तुम्हारी महिमा से मरणोपरान्त भक्तजन विष्णु और शिवपद प्राप्त कर लेते हैं लेकिन तुम मुझे विष्णु रूप न बनाना क्योंकि विष्णु रूप बनाने पर तुम चरणों से निकलने वाली नदी कहलाओगी जो उचित नहीं है। माघी मेला, चलो अकेला-

By Edited By: Published: Thu, 14 Feb 2013 04:25 PM (IST)Updated: Thu, 14 Feb 2013 04:25 PM (IST)
माघी मेला चल अकेला

इलाहाबाद। है गंगे तुम्हारी महिमा अनंत है, तुम्हारी महिमा से मरणोपरान्त भक्तजन विष्णु और शिवपद प्राप्त कर लेते हैं लेकिन तुम मुझे विष्णु रूप न बनाना क्योंकि विष्णु रूप बनाने पर तुम चरणों से निकलने वाली नदी कहलाओगी जो उचित नहीं है।

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माघी मेला, चलो अकेला-

अपाहिज आस्था, विश्वास खंडित। मन-वचन से, कर्म से पाखंड मंडित। देश के कल्याण में यह शुभ नहीं है। घोषणाओं के बिगुल बजने लगे हैं। आंकड़ों के आइने ठगने लगे हैं। राष्ट्रीय कवि दी मुहम्मद दीन का स्वदेश प्यार उनकी राष्ट्रीय एकता से कितना भावपूर्ण इन रेखांकित पंक्तियों में व्यक्त है- नदियों का पानी अमृत है, पवित्र गंगा जल है, पग-पग जिसका पूजनीय है वदनीय हर स्थल है।

माघी मेला, चलो अकेला, मां ने तुझे बुलाया है। निकला दिनकर। पथ में चलकर। अपना सीस झुकाया है- अंकित मुस्कान। करता गुणगान। गंगा तट पर आया है। मांगा मन से। बड़ी लगन से। गंगा दर्शन। करें अकिंचन। जब तक अपनी काया है। ओज के युवा कविवाहद अली वाहिद ने अपनी कलम व वाणी से हिंदी रचनाओं को नये स्वरों में गंगा की महत्ता तथा चेतावनी देते हुए जन जन को आगाह भी करते हैं-गंगा विषयक वर्तमान दुर्दशा यानी प्रदूषण के यथार्थ का चित्रण पंक्तियों में देखें- गंगा जल की बातें करते, स्वयं गटर में बैठे हैं, मरा आंख का पानी, जिनसे मत पानी की बात करें। सुप्रसिद्ध शायर नजीर बनारसी ने बनारस सम्बन्धित गंगा पर बहुत रचनाएं लिखी हैं जिनकी कुछ बानगी का अवलोकन करें जो प्रात: काल तथा रात्रि का वर्णन गंगा पर किया-

प्रात:काल काशी नगरी के मंदिरों के कलश सूर्य किरणों से चमक रहे हैं। अंधेरे करते हैं साफ रसतासवारी सूरज की निकल रही है। है रात बाकी हवा के झोंके अभी से कुछ गुनगुना रहे हैं। अगर कथा कह रहे हैं तुलसी, कबीर दोह सुना सुना रहे हैं। अमर हैं तो संत और साधू जो मर के भी याद आ रहे हैं। खां है मौजें कि मां के दिन की तरह से हैं बेकरार गंगा। यहां नहीं ऊंच-नीच कोई उतारे है सबको पार गंगा। नजीर अंतर नहीं किसी में सब अपनी माता के हैं दुलारे। यहां कोई अजनबी नहीं है न इस किनारे न उस किनारे।

भारत के स्वाधीनता संग्राम के समय भी महामना मदन मोहन मालवीय ने इलाहाबाद के इसी माघ मेले में अंग्रेजों की अनेक तानाशाही आदेश के विरुद्ध संगम तट पर आंदोलन किया था जिसमें बचपन में ही इंदिरा गांधी द्वारा स्थापित बच्चों की बानर सेना सहित उन्होंने भी सक्त्रिय भाग लिया था। इसी स्वतंत्रता संघर्षकाल में काकोरी कांड के प्रसिद्ध क्रांतिकारी अशफाक उल्ला खां वारसी हसरत की गंगा के प्रति असीम निष्ठा फैजाबाद जेल में फांसी का फंदा चूमने के पूर्व लिखा था, जिसमें गंगा मइया के साथ उसके मूल गंगोत्री को भी याद रखना।

हे मातृभूमि! तेरी सेवा किया करूंगा, फांसी मिले भले ही या जन्म कैद मुझको बेड़ी बजा-बजा कर तेरा भजन करूंगा। उन्होंने यह भी याद दिलाया कि गंगा स्थान गंगोत्री का पवित्र पिघौरा की लाट और उदयपुर का दफ्तर, हिमालय की वे चोटियां सिर उठाकर एक आवाज से कह रही हैं बराबर कि जब तक हैं हम, इनको मरने न देंगे। भारतीय जनता सदैव अपनी धार्मिक उदारता एवं राष्ट्रीय एकता को सदैव महत्व देती रही है। इसी पृष्ठभूमि में भारतवासी कहीं भी किसी भी नदी, सरोवर, कुवांया जल के पानी में भी बड़ी बड़ी नदियों का आ ान करने में भी सर्वप्रथम गंगा ही नाम लेते हैं।

गंगे यमुना चैवगोदावरी सरस्वती। नर्मदा सिंधु कावेरीजल स्मिनसन्निधिंकुरू।

वस्तुत: भारत का आस्थावान प्रत्येक आस्तिक कहीं भी स्नान कर रहा हो, वह गंगा नाम का अवश्य स्मरण करता है। उसका आंतरिक विश्वास है कि गंगा के स्मरण मात्र से भले ही हजारों किलोमीटर दूर हो, उसे सभी पापों से छुटकारा मिल सकेगा।

गंगा भारत के लिये जल संपदा की स्त्रोत ही नहीं है उसके किनारों पर भारत की संस्कृति विकसित हुई है। आश्रम तपोवन विद्या केंद्र और संस्कृति को शक्ति देने वाली गतिविधियां गंगा को सुषुम्ना नाड़ी कहा गया है। जिसमें संचारित प्राण चेतना पूरे अस्तित्व को तरंगित करती है। धार्मिक विश्वासों से हटकर उसके हिमालय क्षेत्र की औषधीय गुणों से परिपूर्ण अल्म्यजड़ी बूटियों और खनिज संपदाओं से स्पर्श करती गंगा की धारा बहती है इसीलिये उसे अमृत जल भी कहा गया है। भारतीय चिकित्सा के शिखर पुरुष चरक के शब्दों में सर्वधर्म परित्यज्यशरीर मनुपालयेत यानी सर्वस्य त्यागकर शरीर को पालन करने वाला भी अपने अंतिम गंगा को ही अर्पित करना चाहता है। आखिर क्यों? क्योंकि गंगा ने अपने जल से ही उसे जो स्वस्थ रख वह अन्यत्र दुर्लभ है। गंगा के इन्हीं औषधीय गुणों के कारण मुगल सम्राट को हरिद्वार से चांदी के बड़े बर्तनों में नित्य गंगा जल पीने के लिये आता था।

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