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बाघेश्वरी धाम में गूंजे शिव का नाम

शिव भोल इतने भोले हैं कि अपने भक्तों की थोड़ी सी भक्ति से ही प्रसन्न हो जाते हैं। ऐसे में उनके भक्त कांवड़ व जल लेने के लिए नीलकंठ व हरिद्वार तक पहुंच जाते हैं और जब वे वापस आकर शिवालय पर कांवड़ चढ़ाते हैं तो उन्हें अपार सुख की अनुभूति होती है।

By Edited By: Published: Wed, 18 Jul 2012 11:48 AM (IST)Updated: Wed, 18 Jul 2012 11:48 AM (IST)
बाघेश्वरी धाम में गूंजे शिव का नाम

शिव भोल इतने भोले हैं कि अपने भक्तों की थोड़ी सी भक्ति से ही प्रसन्न हो जाते हैं। ऐसे में उनके भक्त कांवड़ व जल लेने के लिए नीलकंठ व हरिद्वार तक पहुंच जाते हैं और जब वे वापस आकर शिवालय पर कांवड़ चढ़ाते हैं तो उन्हें अपार सुख की अनुभूति होती है।

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वैसे तो हरियाणा में कई जगह शिवाले बने हैं जहां पर शिवरात्रि को कांवड़ व गंगाजल चढ़ाया जाता है। ऐसे में महेंद्रगढ़ जिले के कनीना कस्बे से महज 20 किलोमीटर दूर स्थित गांव बाघोत के प्रसिद्ध शिवालय में भी शिवरात्रि के दिन शिव के नाम की गूंज सुनाई देती है। यहां अनगिनत शिव भक्त बम-भोले के जयकारे लगाते हुए मंदिर में पहुंचते हैं और गंगाजल व कांवड़ चढ़ाते हैं। इस दिन मंदिर का वातावरण पूरी तरह से शिवमय हो जाता है। गांव बाघोत में वर्ष में दो बार मेला लगता है जिसे कांवड़ मेला के नाम से जाना जाता है। बताया जाता है कि यह मंदिर दशकों पुराना है जो अपने आप में इतिहास समेटे हुए है। धार्मिक स्थान होने के कारण इस गांव में करीब 45 धर्मशालाएं बनी हुई हैं, जहां दूर-दराज से आने वाले श्रद्धालु विश्राम करते हैं व रात्रि को ठहरते भी हैं।

वैसे तो यहां हर दिन गांव व आसपास के लोग पूजा-अर्चना के लिए आते हैं और छोटे-छोटे मेलों का आयोजन भी किया जाता है लेकिन श्रावण के सोमवार को भारी भीड़ जुटती है। देसी घी का भंडारा चलता है। शिवालय के पास खड़े कदंब के पेड़, तालाब एवं स्वयंभू शिवलिंग ऋषि-मुनियों की तप स्थली होने का आभास करवाते हैं। इस बार मंदिर में 17 जुलाई को कांवड़ मेला लगेगा। यूं तो महेंद्रगढ़ के कई स्थानों पर कांवड़ चढ़ाई जाती है लेकिन गांव बाघोत के शिवालय पर चार दिनों तक मेला लगता है। महाशिवरात्रि से 10-12 दिन पूर्व ही शिवालय में हलचल शुरु हो जाती है। ऐसे में बोघेश्वरी धाम आस्था का केंद्र बन जाता है।

हरिद्वार और नीलकंठ से बम-बम के स्वरघोष में श्रद्धालु कांवड़ उठाकर लाते हैं तथा प्रांतभर में ही नहीं अपितु देशभर में विख्यात बाघोत शिवालय पर अर्पित करते हैं। मंदिर पर गंगाजल चढ़ाने के लिए पुजारी एवं महंत भक्तों को कतारबद्ध बुलाते हैं। पुजारी की भूमिका निभाने की प्रथा पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही है। श्रद्धालुओं के ठहरने के लिए धर्मशालाओं के अतिरिक्त अबोहर कांवड़ संघ, कनीना सेवा समिति तथा महाबीर सत्संग मंडल सुविधाएं जुटाते हैं।

श्रद्धालु भगवान शिव की आराधना करने से पहले यहां स्थित जोहड़ में स्नान करते हैं। इसके बाद शिवलिंग के दर्शन करने पर अपने को धन्य समझते हैं। मंदिर में आने वाले भक्तजनों की भगवान शिव के प्रति अथाह भक्ति भावना जुड़ी है। भक्तजनों का मानना है कि यहां सच्चे मन से मांगी गई हर मुराद पूरी होती है।

बाघोत स्थित शिवालय उन भक्तों के लिए भी प्रसिद्ध माना जाता है जिनकी कोई संतान नहीं होती है। मेले में आकर दंपति अपने हाथों से एक विशाल वटवृक्ष को कच्चा धागा बांधकर सुंदर संतान होने की कामना करते हैं। जब उन्हें संतान की प्राप्ति हो जाती है तो वे यहां आकर ही धागा खोलते हैं। यही कारण है कि शिवलिंग के पास खड़ा एक वट वृक्ष कच्चे धागों से लदा मिलता है।

भगवान शिव के प्रति आस्था रखने वाले श्रद्धालु गंगाजल हरिद्वार या नीलकंठ से कांवड़ के रूप में अपने कंधे पर रखकर बाघोत स्थित शिवालय पहुंचते हैं और श्रावण में शिवरात्रि के दिन चढ़ाते हैं। शिवरात्रि का पर्व शिवभक्तों के लिए विशेष महत्व रखता है। माना जाता है कि बाघोत का पुराना नाम हरयेक वन था। यहां दधि ऋषि के पुत्र पीपलाद ने भी तप किया। उनका आश्रम भी यहीं था। उनके कुल में राजा दलीप की कोई संतान नहीं थी। इसलिए वह बहुत दुखी थे और दुखी मन से वह अपने कुलगुरु वशिष्ट के पास गए। उन्होंने मुनिवर को अपना सारा दुख का वृत्तांत सुनाया।

वशिष्ट ने उन्हें पीपलाद ऋषि के आश्रम में नंदिनी नामक गाय एवं कपिला नाम की बछिया निराहार रहकर चराने का आदेश दे दिया। राजा ने गाय व बछिया को निराहार रहकर चराते हुए जब लंबा अर्सा बीत गया तो एक दिन भगवान शिव बाघ का रुप बनाकर राजा की परीक्षा लेने पहुंच गए। बाघ ने बछिया पर धावा बोल दिया। जब राजा की नजर बाघ पर पड़ी तो उन्होंने बाघ से हाथ जोड़कर प्रार्थना की कि वह उन्हें अपना आहार बना ले क्योंकि यदि उन्होंने बछिया को खाने दिया तो गाय का श्राप लगेगा और गाय को खाने दिया तो उनका तप पूरा नहीं हो पाएगा। ऐसे में उन्होंने अपने आपको बाघ के सामने पटक दिया। कुछ समय बाद जब उन्होंने सिर उठाकर देखा तो बाघ के स्थान पर शिवभोले खड़े थे। बाघ के कारण ही गांव का नाम बाघोत पड़ा जो आज बाघेश्वरीधाम नाम से जाना जाता है।

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