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पृथ्वी का मानदंड नगाधिराज

विदेश में रहने वाले मनुष्य-मात्र में अपनी जन्मभूमि का स्मरण, जन्मभूमि का विरह और वापस जन्म-भूमि का स्मरण, जन्मभूमि का विरह और वापस जन्मभूमि में पहुंच जाने की इच्छा हमेशा जागृत ही रहती है।

By Edited By: Published: Mon, 03 Sep 2012 12:59 PM (IST)Updated: Mon, 03 Sep 2012 12:59 PM (IST)
पृथ्वी का मानदंड नगाधिराज

नई दिल्ली। विदेश में रहने वाले मनुष्य-मात्र में अपनी जन्मभूमि का स्मरण, जन्मभूमि का विरह और वापस जन्म-भूमि का स्मरण, जन्मभूमि का विरह और वापस जन्मभूमि में पहुंच जाने की इच्छा हमेशा जागृत ही रहती है। बाबर को हिंदुस्तान की जबर्दस्त शहंशाहत मिली और अमृत-सा मीठा आम खाने को मिला, फिर भी उसे मध्य-एशिया के अपने तरबूजों की याद बार-बार आया करती थी।

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उसकी यह इच्छा भी रही कि चाहे जीते-जी अपनी जन्मभूमि के दर्शन करना उसके भाग्य में न हो, फिर भी आखिर उसकी हड्डियां तो उस जन्मभूमि में ही गिरनी चाहिए। हिंदुस्तान में आकर नवाबी ठाठ से रहने वाले मामूली अंग्रेज को भी तब तक चैन नहीं पड़ता, अब तक छह महीने की छुट्टी लेकर वह स्वदेश नहीं हो आता। कुछ इसी तरह की उत्कंठा हिमालय के प्रति हिंदुओं के मन में भी रहती है।

इतिहास-लेखक आर्यो के मूलस्थान के रूप में उत्तर ध्रुव की कल्पना चाहे करें और भाषाशास्त्री उसका गौरव मध्य-एशिया को चाहे दें और देशाभिमानी लोग चाहे हिंदुस्तान को ही आर्यो की आद्यभूमि सिद्ध करें, तो भी अगर राष्ट्र के हृदय में विराजी हुई प्रेरणा का अपना कोई ऐतिहासिक महत्व है, तो हिमालय ही हम आर्यो का आद्यस्थान है।

राजा हो या रंक, बूढ़ा हो या जवान, पुरुष हो या स्त्री, हरेक यह अनुभव करता है कि जीवन में अधिक नहीं तो कम से कम एक बार तो हिमालय के दर्शन अवश्य ही किए जाएं, हिमालय का अमृत-सा जल पिया जाए और हिमलाय की किसी विशाल शिला पर बैठकर क्षणभर ईश्वर का ध्यान किया जाए। जब जीवन के सभी करने लायक काम किए जा चुकें, इंद्रियों की सब शक्तियां क्षीण हो चुकी हों, जीर्ण देह और शेष आयुष्य भार-रूप लगने लगे, तब इस दुनिया रूपी पराये घर में पड़े न रहकर अपने घर में पहुंचकर मरना ही ठीक है, इस उद्देश्य से कई लोग अन्न-जल का त्याग करके देहपात होने तक हिमालय में ईशान दिशा की ओर बराबर बढ़ते ही चले जाते हैं। हमारे शास्त्रकार यही मार्ग लिख गए हैं। किसी राजा का राजपाट गया तो वह चला हिमालय की ओर। भतृहरि जैसों को कितना ही वैराग्य क्यों न उत्पन्न हुआ हो, फिर भी हिमालय के विषय में उनका अनुराग अणुमात्र भी कम न होगा। उलटे, वह अधिकाधिक बढ़ता ही जाएगा।

किसी व्यापारी का दिवाला निकलने की घड़ी आ पहुंचे, किसी सौदागर का सब-कुछ समुद्र में डूब जाए, किसी की स्त्री कुलटा निकले, किसी की संतान या प्रजा गुमराह हो जाए, बागी हो जाए, किसी के सिर कोई सामाजिक या राजनैतिक संकट आ पड़े, किसी को अपने अध:पतन के कारण समाज में मुंह दिखाना भारी हो जाए, हालत कैसी भी क्यों न हो, आस्तिक व्यक्ति कभी आत्महत्या नहीं करेगा।

लोगों के मन में परम दयालु महादेव के प्रति जितनी श्रद्धा है, उतनी ही श्रद्धा हिमालय के प्रति भी है। पशुपतिनाथ की तरह हिमालय भी अशरण-शरण है। चंद्रगुप्त ने राष्ट्रोद्धार का चिंतन हिमालय में जाकर ही किया था। समर्थ रामदास स्वामी को भी राष्ट्रोद्धार की शक्ति हिमालय में ही बजरंगबली रामदूत से प्राप्त हुई थी। यदि पृथ्वी की सतह पर ऐसी कोई जगह है, जहां धर्म का रहस्य अनायास प्रकट होता तो वह हिमालय ही है।

वेदव्यास ने अपने ग्रंथसागर हिमालय की ही गोद में बैठकर रचा था। श्रीमत् शंकराचार्य ने अपनी विश्व विख्यात प्रस्थानत्रयी हिमालय मे ही इस बात का विचार किया था कि सनातन धर्म के तत्व आधुनिक युग पर किस तरह घाटाएं जाएं। हिमालय-आर्यो का यह आद्यस्थान, तपस्वियों की यह तपोभूमि-पुरुषार्थी लोगों के लिए चिंतन का एकांत स्थान, थके-मांदों का विश्राम-स्थल, निराश व्यक्तियों का सान्त्वनाधाम, धर्म का पीहर, मुमूर्षओं की अंतिम दिशा, साधकों की ननिहाल, महादेव का धाम और अवधूत की शय्या है।

मनुष्यों को तो ठीक, पशु-पक्षियों को भी हिमालय का अपूर्व आधार है। सागर से मिलनेवाली अनेक नदियों का वह पिता हैं। उसी सागर से उत्पन्न बादलों का वह तीर्थस्थान हैं। कविकुल-गुरु ने नगाधिराज को पृथ्वी का मानदंड जो कहा है, सो अनेक अर्थो में यथार्थ है। हिमालय भूलोग का स्वर्ग और यक्ष किन्नरों की निवास-भूमि है।

वह इतना विशाल है कि उसमें संसार के सभी दु:ख समा सकते हैं; इतना शीतल है कि सब प्रकार चिंतारूपी अग्नि को वह शांत कर सकता है; इतना धनाढ्य है कि कुबेर को भी आश्रय दे सकता है और इतना ऊंचा है कि मोक्ष की सीढ़ी बन सकता है। हम अपने बचपन से हिमालय का नाम सुनते रहते हैं। बालकथा, बालगीत, प्रवास या यात्रा-वर्णन, इतिहास का पुराण, कहीं भी क्यों न देखें, सर्वत्र अंतिम आश्रय तो हिमालय का ही मिलेगा। बचपन से जो आदर्श रमणीय स्थान कल्पना-सृष्टि में प्रत्यक्ष हुआ होगा, उसकी कल्पना हिमालय से ही आई होगी।

कठिन तपस्याओं का साक्षी :

अरे, इस हिमालय ने क्या-क्या नहीं देखा! पृथ्वी के असंख्य भूकम्पों और आकाश के हजारों धूमकेतुओं को उसने अपलक भाव से देखा है। महादेव के विवाह उसी ने करवाए हैं। सती के विहास का और कुमारसंभव का कौतक उसी ने अपत्य-वात्सल्य से किया है। भागीरथ तक की रघुकल की अनेक पीढि़यों की कठिन तपस्याओं का वह साक्षी रहा है। पांडवों की मायात्रा उसी ने सफल की है लेकिन ये पुरानी बातें क्यों दोहराई जाएं?

सन् सत्तावन के पराक्रम में पराजित होने के कारण जो वीर और मुत्सद्दी हताश और निराश हो गए थे, उन्हें आश्रय देनेवाला हिमालय ही है। यदि भूस्तरशास्त्र की दृष्टि से देखना हो, प्राणिशास्त्र की दृष्टि से विचार करना हों, ऐतिहासिक दृष्टि से शोध करनी हो, भव्यता के दर्शन करने हों, धर्म-तत्वों की गांठ सुलझाने का प्रयत्न करना हो, तो हिमालय ही वह जगह है जहां सब प्रकार से आपका समाधान हो सकता है, क्योंकि हिमालय आर्यावर्त के एक-एक युग के पुरुषार्थ का साक्षी रहा है - वह यह सब जानता है। जब यात्रा का विचार करते हैं, तो मन में यह ख्याल पैदा होता है कि हम अपना घर छोड़कर परदेश जा रहे हैं। पर जब-जब भी मैंने हिमालय जाने का विचार किया है, तब-तब मेरे मन में यही भावना प्रबल रूप से उठी है कि मैं स्वदेश जानेवाला हूं, नहीं-नहीं, स्वगृह जानवाला हूं और इस विचार ने मेरे मन को हमेशा गुदगुदाया है।

बिसूरने का नतीजा यह होता है कि मायके का प्रत्यक्ष चित्र एक ओर रह जाता है और वह अपने मन में एक प्रेमचित्र का निर्माण कर लेती है। उसके अपने लिए यह प्रेमचित्र ही एक यथार्थ वस्तु बन जाता है। बिसरने का, चिंतन का, गुण ही यह है कि दिल जिस चीज को जैसी देखना चाहता है, दिल की भावना कुछ ऐसी बन जाती है कि वह चीज वैसी ही मालूम होने लगती है।

दुनिया में किसी को यथार्थ-यथातथ-ज्ञान होता हो तो भले हो, पर जिसे हम अनुभव का प्रत्यक्ष ज्ञान कहते हैं, उस पर भी हमारी इंद्रियों का रंग चढ़ा ही रहता है, वह निरा ज्ञान नहीं होता। प्रेमचित्र में रंग इंद्रियों का नहीं, हृदय का होता है, आदर्श भावनाओं का होता है और इसी कारण वह चित्र हमारे जी को विशेष निकट का और विशेष रूप से सच्चा प्रतीत होता है।

तर्कवादी चाहे जिस चित्र को खोटा मानें, पर संसार का अनुभव और संसार का रहस्य सभी कुछ तर्क की छलनी में चाला नहीं जा सकता। तर्क सोचता है कि मैंने जो व्यवस्था बांध दी है, जो क्रम तय कर दिया है, दुनिया को वह मानना ही चाहिए; जो मेरे गले नहीं उतरता, वह सत्य हो ही नहीं सकता। हिमालय के जो भी शब्दचित्र मैं दूं, वे प्रेमचित्र ही होंगे। जिस वस्तु से प्रेम हो जाता है, उस वस्तु का प्रेम-रहित विचार हो ही नहीं सकता। इसलिए मुझसे प्रेमचित्र छोड़कर दूसरी किसी चीज की अपेक्षा कोई रखे ही क्यों!

(गांधीवादी चिंतक कालेलकर ने यह आलेख 1924 में लिखा था। सस्ता साहित्य मंडल, नई दिल्ली से प्रकाशित उनकी पुस्तक सप्त सरिता से साभार)

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