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गुरु देता है संबल

जीवन नैया को आगे बढ़ाने में गुरु सबसे बड़ा संबल होता है। वह व्यक्ति को खुद पर भरोसा करना सिखाता है कि तैरना शुरू करो.. घबराओ नहीं.. अगर डूबोगे तो मैं हूं न तुम्हें बचाने के लिए..। गुरु पूर्णिमा (3 जुलाई ) पर ओशो का चिंतन..

By Edited By: Published: Thu, 28 Jun 2012 05:24 PM (IST)Updated: Thu, 28 Jun 2012 05:24 PM (IST)
गुरु देता है संबल

जिसने भी जाना, सदा स्वयं ही जाना। कुछ साहसी लोग अकेले भी स्वयं में प्रविष्ट हो जाते हैं। कुछ को गुरु के सहारे की जरूरत पड़ती है। जिनको सहारे की जरूरत पड़ती है, वे भी प्रविष्ट तो अकेले ही होते हैं। सहारा निमित्तमात्र है। सहारा वस्तुत: सत्य के मिलने में सहयोगी नहीं है, सिर्फ हिम्मत बढ़ाने में सहयोगी है। जैसे, तुम डरते हो गहरे पानी में जाने से और गुरु कहता है- घबराओ मत, मैं किनारे पर खड़ा हूं। जरूरत होगी, तो मैं तुम्हें बचा लूंगा।

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यह जरूरत कभी नहींपड़ती। क्योंकि वह गहराई तुम्हारी ही गहराई है। गुरु इतना ही करता है कि तुम्हारे झूठे डर को दूर कर देता है। गुरु अगर यह कहे कि यह डर झूठा है, घबराओ मत, कोई कभी नहीं डूबा, तो शायद तुम भाग खड़े होगे। तुम सोचोगे मैं तो डूब ही जाऊंगा इस विराट सागर में। या अगर गुरु खरी और सच्ची बात कहे कि डूबना सौभाग्य है। तब भी तुम छोड़कर भाग जाओगे। क्योंकि गुरु के पास कोई मिटने नहीं, होने आता है। यह भी सच है कि होने की प्रक्रिया मिटना है।

लेकिन गुरु इन बातों को छिपाकर रखता है। गुरु के आश्वासन पर तुम उतर जाते हो। उतर गए तो लगता है कि बचाने की कोई जरूरत ही नहीं थी। डूबने में आनंद है। जब डूबने का स्वाद लग गया, तब तुम कहोगे- अरे, गुरु को तो कुछ भी नहीं करना पड़ा। लेकिन गुरु ने तुम्हें उस समय सहारा न देकर भी बहुत बड़ा सहारा दिया, जब तुम्हें सहारे की जरूरत थी।

तुम्हें बेसहारा छोड़ने में ही गुरु की कला है। अगर कोई गुरु तुम्हें सहारा सच में दे दे, तो तुम वंचित रह जाओगे। वही सहारा अटकाव हो जाएगा।

सिखाने की जरूरत ही नहीं। प्रत्येक व्यक्ति सत्य लेकर ही जन्मा है। सत्य तुम्हारा स्वभाव है। सिर्फ अपने स्वभाव को पहचानना है। यह पहचान की क्षमता भी तुममें है। तुम वीणा बजाना जानते हो। तुम्हारी अंगुलियां भी कुशल हैं। वीणा भी रखी है। तुम वीणा पर अपनी कुशलता बरसाओ, तो वीणा तुम पर संगीत बरसा देगी।

इसीलिए बुद्ध कहते हैं कि सत्य सिखाया ही नहीं जा सकता। जो सिखाया जाएगा, वह बाहर का है। अनसीखा भीतर पड़ा है, उसको सीखना नहीं है। उसके लिए तो सब सीखा हुआ भूलना है। असली गुरु वही है, जो तुम्हें सिखाता नहीं, बल्कि भुलाता है। जो कहता है- कचरे को भूलते जाओ। यह बाहर से आया है, इसे छोड़ते जाओ। जब बाहर से आया हुआ वापस बाहर फेंक दिया, तब जो शेष रह जाएगा- ज्योतिर्मय, वही तुम हो, वही सत्य है। बाहर से जो आया है, उसने तुम पर पर्र्ते जमा दी हैं। जैसे दर्पण पर धूल की पर्र्ते जम जाती हैं। गुरु कहता है- धूल को पोंछ दो। दर्पण भीतर मौजूद है।

एक तरफ बुद्ध ने कहा कि मेरा न कोई गुरु है, न ही मैं किसी को सिखाऊंगा, फिर भी चालीस वर्ष तक उन्होंने लाखों लोगों को सिखाया। उन्होंने सिखाया कि सिखाने को कुछ भी नहीं है। दीक्षित इस बात में किया कि अप्पदीपोभव यानी अपने दीपक खुद बनो। बुद्ध ने सिखाया कुछ भी नहीं, फिर भी सिखाया। बुद्ध अद्भुत गुरु हैं।

एक वह गुरु है, जो कहता है- गुरु के बिना नहीं होगा। साधारण बुद्धि के आदमी को यह बात जमती है। जो कहता है कि गुरु के बिना नहीं होगा, वह परोक्ष रूप से कहता है कि मुझे गुरु बनाओ। बाकी गुरु ठीक नहीं हैं। एक दूसरे तरह के गुरु होते हैं। जैसे कृष्णमूर्ति हैं। कहते हैं - गुरु से हो ही नहीं सकता। बौद्धिक लोगों को यह बात जंचती है। क्योंकि कोई उनसे ऊपर रहे, यह बात उन्हें कष्ट देती है। इससे उनके अहंकार को पोषण मिलता है।

गुरु को चांद को दिखाने वाली अंगुली समझो। चांद को देखो, अंगुली को भूल जाओ। इसका अर्थ यह नहीं कि तुमने गुरु को धोखा दे दिया।?यदि तुम्हें चांद ही दिखाई देता रहेगा, तो उस अंगुली के प्रति तुम्हारे जीवन में सदा अनुग्रह का भाव रहेगा। क्योंकि उसी ने चांद दिखाया और खुद को हटा लिया। ताकि अंगुली के कारण बाधा न आ जाए। बुद्ध की तरह मैं भी कहता हूं कि गुरु की जरूरत न होते हुए भी गुरु की जरूरत है।

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