संथाल विद्रोह का भी साक्षी है सिंहवाहिनी दुर्गा मंदिर
शहर के राजापाड़ा स्थित मां सिंहवाहिनी मंदिर जन आस्था का केंद्र है। 200 वषरें से अधिक के इतिहास वाले इस सिद्ध मंदिर की कहानी पाकुड़ राजशाही से भी जुड़ी है।
पाकुड़ [झारखंड]। शहर के राजापाड़ा स्थित मां सिंहवाहिनी मंदिर जन आस्था का केंद्र है। 200 वषरें से अधिक के इतिहास वाले इस सिद्ध मंदिर की कहानी पाकुड़ राजशाही से भी जुड़ी है। संथाल विद्रोह का भी यह मंदिर साक्षी है। तब मंदिर में लगी मां की सोने की प्रतिमा गुम हो गई थी। इसके बाद मां जगदंबा ने रानी ज्योर्तिमयी को प्रतिमा स्थापित कराने के लिए स्वप्न दिखाया। 1941-42 में रानी ने अष्टधातु की प्रतिमा स्थापित कराई, जो आज भी मौजूद है।
बंगला सन 1222 में जब राजा पृथ्वी चंद्र शाही ने मोहनपुर से अपने राज्य की राजधानी पाकुड़ स्थांतरित की तो राज भवनों के साथ उन्होंने 108 शिवलिंगों महाकाल भैरव, नित्य काली मंदिर एवं मां सिंहवाहिनी के रूप में दुर्गा की भी स्थापना की। तब एक सोने की छोटी प्रतिमा के रूप में महिषाशुर मर्दिनी इस स्थान पर विराजती थीं। कहते हैं उस समय मां की पूजा तंत्रोक्त विधि से होती थी। तत्कालीन राजा स्वयं सिद्ध तंत्र साधक थे, इसलिए यहां बली भी दी जाती थी। कालक्रम में मंदिर प्रांगण में शिवलिंग एवं महाकाल भैरव की पत्थर प्रतिमाएं तो रह गई, लेकिन हर युग में अपनी उपस्थिति कायम रखने वाले चोरों ने मां दुर्गा की सोने की मूर्ति चुरा ली। यह चोरी कब हुई किसी को पता नहीं। इसी बीच नवमी के दिन वहां बली चल रही थी, तभी संथाल विद्रोहियों ने ब्रिटिश सरकार के पेरोकार स्थानीय राजवाड़ों पर हमला बोल दिया था। तत्कालीन राजा वहां स्थापित कलश को लेकर चलते बने थे, इसलिए अपने लिए अर्पित अंतिम बली मां नहीं देख पाई थी। आज भी अंतिम बली के समय मंदिर का पट बंद कर दिया जाता है। उस समय आंगन में प्रतीक दुर्गा की स्थापना की गई थी, जो एक लिंगाकार रूप में आज भी विद्यमान है। कहते हैं कि उसी हमले के समय सोने की मूर्ति कहीं गुम हो गई।
रानी ज्योर्तिमयी ने मंदिर बना कर अष्टधातु की बड़ी प्रतिमा की स्थापना कराई। चूंकि रानी मात्र 16 वर्ष की उम्र में बैधब्यता को प्राप्त कर वैष्णव जीवन जी रही थी, इसलिए उन्होंने यहां मां दुर्गा की राजरानी के रूप में वैदिक पद्धति से पूजा प्रारंभ कराई। यहां भी नवमी को बली होती है, लेकिन सफेद कोहड़े की, जिसे बंगला में चाल कुम्हड़ा कहते हैं। यहां स्थापित होने वाले कलश में महालया की निशा [अमावस्या] रात्रि काल में भरी जाती है।
मंदिर के पुजारी पंडित तरुण पांडेय बताते हैं कि आज भी कलश चौधरी तालाब से भर कर जाते समय रास्ते में मनुष्य तो छोड़ दे गली के कुत्ते भी वाकस्तंभन के शिकार हो आवाज नहीं निकालते। इस ऐतिहासिक मंदिर में नवरात्र के दिनों में दूर-दूर से श्रद्धालु मन्नते लेकर पहुंचते हैं और मां की ममतामयी स्वरूप श्रद्धा समर्पण के एवज में भक्तों की झोली भर कर लौटाती हैं। पाकुड़ स्टेशन से मंदिर की दूरी मात्र एक किलोमीटर है।
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