शिव को जाने बिना कैसी भक्ति
त्योहारों की भारतीय परंपरा में महाशिवरात्रि का पर्व ऐसा महत्वपूर्ण अनुष्ठान है, जिसमें हर कोई अपनी आहुति डालना चाहता है, लेकिन शिव को जाने बिना उनकी भक्ति के कोई मायने नहीं हैं। शिव को जानने के लिए उनकी प्रकृति को समझना आवश्यक है।
देहरादून, जागरण संवाददाता। त्योहारों की भारतीय परंपरा में महाशिवरात्रि का पर्व ऐसा महत्वपूर्ण अनुष्ठान है, जिसमें हर कोई अपनी आहुति डालना चाहता है, लेकिन शिव को जाने बिना उनकी भक्ति के कोई मायने नहीं हैं। शिव को जानने के लिए उनकी प्रकृति को समझना आवश्यक है। शिव प्रलय के देवता कहे गए हैं। इस दृष्टि से वे तमोगुण के अधिष्ठाता हुए, लेकिन पुराणों में विष्णु और शिव को अभिन्न माना गया है। इसीलिए विष्णु का वर्ण शिव में दृष्टिगोचर होता है, जबकि शिव की नीलिमा विष्णु में। आचार्य डॉ. संतोष खंडूड़ी कहते हैं कि शिव शांत हैं और रुद्र भी। वे श्रीराम के आराध्य हैं तो रावण ने भी अजेय शक्तिव गुह्य विद्याएं उन्हीं से प्राप्त कीं। उनकी जटाओं में गंगा पावनता की ओर संकेत करती है। योग की शब्दावली में जटाएं सहस्त्रार की ओर संकेत करती हैं, जहां अमृत का निवास है। डॉ. खंडूड़ी कहते हैं कि शिव के सिर पर विराजित द्वितीया का चंद्रमा सौभाग्य का प्रतीक है। चंद्र का संबंध मन से भी है। शिव के नेत्रों में ओज है तो हाथ में त्रिशूल, जो कि कला की दृष्टि से अस्त्र है और रक्षा के लिए शस्त्र। इसी तरह डमरू प्रकृति में लयात्मक रूप से आने वाले परिवर्तनों का द्योतक है। स्वामी दिव्येश्वरानंद कहते हैं कि डमरू की ध्वनि नाद साधना का आधार है। महर्षि पाणिनी को इसी से उन चौदह सूत्रों का ज्ञान हुआ, जो व्याकरण में परिलक्षित होते हैं। वे कहते हैं महादेव व्याघ्र चर्म पर विराजते हैं और उसी को धारण करते हैं। इसका तात्पर्य है कि शिव पशुबल की पराकाष्ठा पर भी शासन करने में सक्षम हैं। बैल धर्म का प्रतीक है, जिस पर महादेव विराजित हैं। पशु योनि में गोवंश में ही सत्व गुणों का पूर्ण विकास देखने को मिलता है। स्वामी दिव्येश्वरानंद कहते हैं कि जीवन की इतिश्री का नाम ही श्मशान है। यहां न जन्म है और न मृत्यु। भस्म का अर्थ जीवन के सत्य को समझ लेना है। इसीलिए शिव अपने शरीर पर भस्मीभूत लगाते हैं।
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