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सूफी संतों के लिए धर्म का कोई बंधन नहीं होता

सूफी संतों के लिए धर्म का कोई बंधन नहीं होता। वे ईश्वर के प्रति प्रेम को ही अपना मजहब मानते हैं। प्रेम ही उनका साध्य है..

By Edited By: Published: Thu, 03 May 2012 04:25 PM (IST)Updated: Thu, 03 May 2012 04:25 PM (IST)
सूफी संतों के लिए धर्म का कोई बंधन नहीं होता

सिद्ध सूफी संत रूमी लिखते हैं- अक्ल आमद दीन ओ दुनिया शुद खराब.. इश्क आमद दर ओ आलम कामयाब। अर्थात यदि अक्ल आई तो धर्म और दुनिया दोनों का ही नुकसान है, परंतु यदि प्रेम आ गया तो इहलोक और परलोक दोनों ही सफल हो जाते हैं।

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सूफी इसी दिव्य-प्रेम के भिक्षुक हैं। सूफी संसार की विविधता में एकता देखता है। जहां भी प्रियतम (ईश्वर) का आभास हुआ, वहीं अपना सिर झुका देता है। अपने मजहब के विषय में किसी सूफी ने लिखा है- मर्द आशिक रा न बाशद इल्लते.. आशिकां रा न देहे मिल्लते.. मजहबे इश्क अज हमा दीन्हा जुदा अस्त.. आशिक रा मजहब ब मिल्लत खुदा अस्त..। अर्थात प्रेमी का लगाव सांसारिक चीजों से नहीं होता। उसका कोई मजहब नहीं। सब धर्मो से अलग वह केवल ईश्वर प्रेम से सरोकार रखता है। वह अपनी जिंदगी से भी यही बतलाना चाहता है कि उसके निकट प्रेम ही साधक है और प्रेम ही साध्य। वह उस पर्दे को हटाना चाहता है, जो ईश्वर को ढके है। अपने अहं को मिटाकर ईश्वर में फना (विलीन) होना ही सूफी का उद्देश्य होता है।

रूमी ने इसे एक कहानी के द्वारा समझाया है।

किसी ने अपने गुरु का द्वार खटखटाया। अंदर से आवाज आई-बाहर कौन है? उसने कहा-मैं।

इस घर में मैं और तू एकसाथ नहीं रह सकते। उधर से आवाज आई। दुखी होकर शिष्य जंगल में तप करने चला गया। साल भर बाद वह फिर लौटा। द्वार पर दस्तक दी। फिर वही प्रश्न- कौन है? इस बार शिष्य ने जवाब दिया- आप ही हैं। और द्वार खुल गया। संत रूमी कहते हैं- प्रेम के मकान में सब एक-सी आत्माएं रहती हैं। बस प्रवेश करने से पहले मैं का चोला उतारना पड़ता है।

सूफीवाद भारत की गंगा-जमुनी संस्कृति को एक सूत्र में बांधने की दिशा में महत्वपूर्ण प्रयास था। यह वह काल था, जब कबीर हिंदू और मुसलमानों के क˜रपन को फटकार चुके थे। अल्लाह और ईश्वर एक हैं, यह भारतीय जनता जान चुकी थी। नल-दमयंती की कथा से जहां मुसलमान वाकिफ थे, वहीं हीर-रांझा व लैला-मजनू हिंदुओं की जुबान पर चढ़ चुके थे। अमीर खुसरो ने सर्वप्रथम इसकी शुरुआत की। अपने मुर्शिद (गुरु) हजरत निजामुद्दीन औलिया की प्रेरणा से उन्होंने हिंदवी और फारसी को मिलाकर एक नई भाषा उर्दू का निर्माण किया और खड़ी बोली में गीत और काव्य लिखे। बच्चों के लिए उन्होंने खड़ी बोली में एक पुस्तक खालिक बाड़ी भी लिखी।

हिंदी साहित्य में सूफी प्रेमाख्यानक काव्य की शुरुआत मुल्ला दाउद ने चंदायन (1380 ई.) लिखकर की। दाउद उत्तर प्रदेश में रायबरेली के डलमऊ के निवासी थे। कुछ विद्वानों का मत है कि यह काव्य वहां की प्रचलित लोककथा चनैनी पर आधारित है। इसके उपरांत कुतबन ने मृगावती (1501 ई.) की रचना की। तदंतर मलिक मुहम्मद जायसी ने पद्मावत लिखी। उन्होंने अखरावट नामक ग्रंथ भी लिखा। उसके बाद तो सूफी प्रेम काव्यों की झड़ी-सी लग गई।

जायसी अपनी रचना अखरावट में लिखते हैं-दरपा बालक हाथ मुख देखे दूसर गनै..। अर्थात जिस प्रकार बालक दर्पण में अपने हाथ और चेहरे को देखकर उसे किसी अन्य का समझता है, वैसे ही परमात्मा हर वस्तु में है, परंतु माया और अहं के आवरण के कारण हम उसे समझ नही पाते। जायसी जगत को ईश्वर की प्रतिच्छाया मानते हैं।

सूफी संतों के पास अलगाववाद की कैंची नहीं, बल्कि सद्भाव और प्रेम का सूई-धागा रहता है। उनके लिए प्रेम से बढ़कर कुछ नहीं होता।

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