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कृषि करो, ऋषि बनो

जैन धर्म के प्रथम तीर्र्थकर ऋषभदेव जी ने जहां समाज को विकास का मार्ग सुझाया, वहीं अहिंसा, संयम तथा तप के उपदेश से लोगों की आंतरिक चेतना को भी जगाया। उनकी जयंती [15 मार्च] पर विशेष..

By Edited By: Published: Wed, 14 Mar 2012 03:29 PM (IST)Updated: Wed, 14 Mar 2012 03:29 PM (IST)
कृषि करो, ऋषि बनो

मनुष्य के अस्तित्व के लिए रोटी, कपड़ा और मकान जैसी चीजें आवश्यक हैं, किंतु यह अधूरी संपन्नता है। उसमें अहिंसा, सत्य, संयम, समता, साधना और तप के आध्यात्मिक मूल्यों की आंतरिक संपन्नता भी जुड़नी चाहिए। प्रथम तीर्र्थकर ऋषभदेव ने भारतीय संस्कृति को बहुत कुछ दिया है। [असि शस्त्र विद्या], मसि [लेखन], कृषि, विद्या, वाणिज्य और शिल्प इन छह कर्मों के द्वारा उन्होंने जहां समाज को विकास का मार्ग सुझाया, वहीं अहिंसा, संयम तथा तप के उपदेश द्वारा समाज की आंतरिक चेतना को भी जगाया। यही कारण है कि उनका एक प्रसिद्ध कथन है -कृषि करो और ऋषि बनो। अर्थात जीविका के साथ-साथ आध्यात्मिक मूल्य भी आवश्यक हैं।

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तीर्थंकर ऋषभदेव का जन्म चैत्र शुक्ल नवमी को अयोध्या में हुआ था, वहीं माघ कृष्ण चतुर्दशी को इनका निर्वाण कैलाश पर्वत पर हुआ। इन्हें आदिनाथ के नाम से भी जाना जाता है। इनके पिता का नाम नाभिराय तथा माता का नाम मरुदेवी था। ऋषभदेव प्रागैतिहासिक काल के महापुरुष हैं, जिन्हें इतिहास काल की सीमाओं में नहीं बांध पाता। किंतु वे आज भी संपूर्ण भारतीयता की स्मृति में पूर्णत: सुरक्षित हैं।

चौबीस तीर्थकरों में ऋषभदेव ही ऐसे तीर्थंकर हैं, जिनकी पुण्य-स्मृति भारतीय परंपराओं में भी विस्तार से सुरक्षित है। मान्यता है कि इनकी दो पुत्रियां ब्राह्मी तथा सुंदरी तथा भरत, बाहुबली आदि सौ पुत्र भी थे। इन्होंने अपनी पुत्री ब्राह्मी को लिपि-विद्या तथा सुंदरी को अंक-विद्या का ज्ञान सर्वप्रथम देकर स्त्री शिक्षा के क्षेत्र में क्रांति का सूत्रपात भी किया। माना जाता है कि इसी कारण प्राचीनकाल में सम्राट अशोक ने जिस लिपि में अपने शिलालेख लिखवाए, उसका नाम ब्राह्मी लिपि है। यही लिपि विकसित होकर आज देवनागरी के रूप में हमारे सामने है। ऋषभदेव के एक पुत्र बाहुबली की एक हजार वर्ष पुरानी 57 फुट शिला पर उत्कीर्ण विशाल प्रतिमा कर्नाटक के श्रवणबेलगोला स्थान पर स्थित है।

ऋषभदेव का सबसे बड़ा योगदान है कि एक राजा के रूप में उन्होंने मनुष्यों को कर्म करना सिखाया। उन्हें कई कलाएं सिखाईं तथा एक तपस्वी के रूप में उन्हें मुक्ति का मार्ग भी बताया। आत्मा ही परमात्मा है, यह घोषणा भारतीय संस्कृति को उन धर्मो से अलग करती है, जिनमें माना जाता है कि जीव कभी परमात्मा नहीं हो सकता। किंतु जैन चिंतन में जो आत्मा है, वही परमात्मा है- अप्पा सो परमप्पा। ऋषभदेव का यही स्वर पूरे भारतीय चिंतन में व्याप्त है। उपनिषदों ने भी घोषणा की- अयम् आत्मा ब्रह्म। वेदांत ने कहा है कि सब शास्त्रों का सार यही है कि जीव ही ब्रह्म है।

नवीं शती के आचार्य जिनसेन के आदिपुराण में तीर्थकर ऋषभदेव के जीवन चरित का विस्तार से वर्णन है। भारतीय संस्कृति के इतिहास में ऋषभदेव ही एक ऐसे अकेले आराध्य तीर्र्थकर हैं, जिन्हें वैदिक संस्कृति तथा श्रमण [जैन भिक्षु] संस्कृति में समान महत्व प्राप्त है। महावीर जयंती की तरह ऋषभदेव जयंती भी भारत में प्रतिवर्ष धूमधाम से मनाई जाती है।

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