घट-घट बसें राम अविनाशी
समय रात के दस बजे। स्थान कुंभ मेले का सेक्टर तेरह। संगम के दूसरी ओर बसे इस क्षेत्र में रात में हलचल कम ही रहती है। उस पर बादलों की चहलकदमी और फिर बूंदाबांदी ने मौसम का मिजाज एकदम बदल दिया था। दिन में गर्मी से परेशान रहे लोगों ने राहत की सांस ली थी।
कुंभनगर। समय रात के दस बजे। स्थान कुंभ मेले का सेक्टर तेरह। संगम के दूसरी ओर बसे इस क्षेत्र में रात में हलचल कम ही रहती है। उस पर बादलों की चहलकदमी और फिर बूंदाबांदी ने मौसम का मिजाज एकदम बदल दिया था। दिन में गर्मी से परेशान रहे लोगों ने राहत की सांस ली थी। खुली हवा में मेले की सड़क से होते हुए अरैल घाट की ओर बढ़ रहा था। इसी दौरान एक छोटे से पंडाल से कुछ लोगों के बोलने की आवाज सुनायी पड़ी। अमूमन इतने बड़े मेले में भजन-कीर्तन और धर्म पर चर्चा होना कोई बड़ी बात नहीं है। लेकिन कानों तक पड़ रही आवाज में एक अजीब सी कसक थी और विछोह की पीर भी। शायद यही कारण था कि मैं बरबस उस पंडाल की ओर खिंचा चला गया। पंडाल शायद किसी कल्पवासी का था, जिसमें दो या तीन लोग रामचरितमानस और रामायण को लेकर चर्चा में मशगूल थे। पास पहुुंचते ही एक स्पष्ट आवाज दी, घट-घट बसें राम अविनाशी.।
इसके बाद एक अधेड़ ने ईश्र्र्वर के अस्तित्व से जुड़े कई सवाल दाग दिए। शायद यह जिज्ञासु शिष्य था और उसने गुरु से यह सवाल किया था। तभी एक बुजुर्ग की आवाज सुनायी दी, ईश्र्र्वर की सत्ता को संदेह की नजर से देखना ठीक नहीं है। वह सर्वशक्तिमान है और उससे कुछ भी छिपा नहीं है। यदि ऐसा नहीं होता तो यह सृष्टि भी नहीं होती। इसी बीच मेरी नजर परिसर के मुख्य द्वार पर लगे एक बैनर पर गयी। जिसमें सागर जिले के एक आश्रम का नाम लाल रंग से लिखा था। गुरु-शिष्य की यह चर्चा लंबी खिंचते देख मैं आगे बढ़ गया। कुछ कदम आगे बढ़ते ही एक फटे-पुराने तंबू पर मेरी नजर टिक गयी जिसमें एक महिला खाना पका रही थी। उसके पास ही एक बच्चा सो रहा था। बच्चे के ऊपर एक चादर पड़ी थी और वह ठंड से बचने के लिए उसमें सिकुड़ता जा रहा था। मां बार-बार बच्चे को चादर से ढंकती, तंबू में इधर-उधर देखती और फिर खाना पकाने में जुट जाती। यह सिलसिला लगभग पंद्रह मिनट तक चलता रहा और मैं एक मां की बेबसी देखकर हुक्मरानों को मन ही मन उलाहने देता रहा। फिर एक आवाज ने जैसे मेरी तंद्रा को भंग किया। तंबू के बाहर से एक अधेड़ महिला को आवाज देकर खाना तैयार होने के बारे में पूछ रहा था। महिला ने उसे जवाब देने के साथ ही एक बार फिर बच्चे पर नजर डाली और उसकी चादर ठीक करने के बाद अपने काम में जुट गयी। तब तक मेरे कदम आगे बढ़ चुके थे। अरैल घाट से गुजरते हुए कुछ लोग वहां बैठे दिखे। उत्सुकता वश मैं उस ओर बढ़ गया। निकट पहुंचने पर दो युवा जोड़े आपस में बात करते दिखे। उनकी बातचीत धर्म को लेकर नहीं बल्कि संगम की सुंदरता को लेकर थी। दोनों अपने सुनहरे भविष्य के सपने बुन रहे थे। यही है त्रिवेणी और उसके रंग, जहां के कण-कण में ईश्र्र्वर की अनुभूति होती तो है लेकिन अलग-अलग रूप में।
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