देवी प्रतिमा की जांघ पर बनी है लक्ष्मी की आकृति
सन्हौली के दुर्गा स्थान में स्थापित मूर्ति के बारे में अवधारणा है कि यह शनै: शनै: बढ़ रही है। इसके अलावा मनोवांछित परिणाम मिलने पर यहां श्रद्धालुओं द्वारा सोना-चांदी चढ़ाने की परंपरा भी है। यही कारण है कि यहां वर्ष पर्यंत भक्तों की भीड़ लगी रहती है।
खगडि़या। सन्हौली के दुर्गा स्थान में स्थापित मूर्ति के बारे में अवधारणा है कि यह शनै: शनै: बढ़ रही है। इसके अलावा मनोवांछित परिणाम मिलने पर यहां श्रद्धालुओं द्वारा सोना-चांदी चढ़ाने की परंपरा भी है। यही कारण है कि यहां वर्ष पर्यंत भक्तों की भीड़ लगी रहती है।
मंदिर रेलवे स्टेशन से सटे उत्तर क्षेत्र में अवस्थित है। यहां की मूर्ति दो फीट से कुछ कम ऊंची है। खास बात यह कि मूर्ति की दाहिनी जांघ पर लक्ष्मी की आकृति बनी है। जो बिरले ही किसी प्रतिमा में देखने को मिलती है। शारदीय नवरात्र में प्रतिमा अलग से स्थापित की जाती है। नवमी को पाठे की बलि चढ़ाने को भीड़ लग जाती है।
यद्यपि मूर्ति की स्थापना कब हुई कोई भी ठीक-ठीक नहीं बता सका। पुजारी पं. देवीकांत ठाकुर कहते हैं कि पावर हाउस के निर्माण के दौरान हुई खुदाई के दौरान यह प्रतिमा मिली थी। इसे लोगों ने गांव के गोपीकांत ठाकुर के दरवाजे पर रख दिया। मगर एक रात मूर्ति अचानक गायब हो गई। अगले दिन ठाकुर ने स्वप्न देखामूर्ति कुएं में पड़ी है। ग्रामीणों ने मूर्ति कुएं से निकाल कर हरि प्रसाद सिंह के पीपल पेड़ के नीचे रख दी। रात में ठाकुर ने फिर स्वप्न देखा, मूर्ति गांव के दक्षिण में रहना चाहती है। इस पर गांव के लोगों ने आपसी सहयोग से मंदिर का निर्माण कराया।
मंदिर में पूजा का विधान अलग है। नवरात्र में भोग प्रतिदिन बदलता है। पांच पंडित सुबह-शाम संपूर्ण दुर्गा सप्तसती का पाठ करते हैं। सुबह-शाम सामूहिक आरती होती है। कलश स्थापना से ही अष्टमी तक प्रत्येक रात जागरण का आयोजन होता है। नवमी को नाटक या आर्केष्ट्रा का आयोजन होता है। पूजा को लेकर प्रत्येक वर्ष कमेटी का गठन होता है। नवमी को सुबह छह बजे ही शुरू हो जाता है, बलि प्रदान करने का सिलसिला। इसमें बाहर से आए लोगों को पहले प्राथमिकता दी जाती है। गांव के लोग बाद में बलि प्रदान करते हैं। [विनोद कर्ण]
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