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बांके बिहारी के रूप न्यारी

मान्यता है कि वृंदावन के निधिवन में स्वामी हरिदास ने विहार पंचमी (17 दिसंबर) के दिन राधा-कृष्ण को अपने मधुर संगीत से प्रकट किया था। इस अवसर पर बांके बिहारी के विग्रह पर विशेष.

By Edited By: Published: Mon, 17 Dec 2012 12:56 PM (IST)Updated: Mon, 17 Dec 2012 12:56 PM (IST)
बांके बिहारी के रूप न्यारी

हरिदास वृंदावन के निधिवन में लता-कुंजों से लाड़ लड़ाया करते थे। वह अपना दिव्य संगीत यहां के लता-पादपों, उन पर कलरव करते पक्षियों, शावकों व उनके साथ क्त्रीड़ा करने वाले प्रिया (राधा) और प्रियतम (कृष्ण) को सुनाया करते थे। कहा जाता है कि जब स्वामी हरिदास सखी भाव से विभोर होकर अपने आराध्य राधा-कृष्ण की महिमा का गुणगान करते थे तो वे इनकी गोद में आकर बैठ जाते थे। कथा है कि एक दिन स्वामी जी के शिष्य बीठल विपुल ने स्वामी हरिदास से कहा कि आप प्रिया-प्रियतम का स्वयं दर्शन करके स्वर्गिक आनंद प्राप्त करते हैं, उनके साक्षात दर्शन हम लोगों को भी कराइए। अतएव स्वामी हरिदास ने प्रिया-प्रियतम का केलि-गान गाया: माई री सहज जोरी प्रगट भई, जुरंग की गौर-स्याम घन दामिनि जैसे। मान्यता है कि इस पद का गान पूरा होते ही निधि वन में एक लता के नीचे से अकस्मात एक प्रकाश पुंज प्रकट हुआ और उसमें से एक-दूसरे का हाथ थामे प्रिया-प्रियतम प्रकट हुए, जिनके दर्शन सभी ने किए। कथा के अनुसार, इस घटना के बाद स्वामी हरिदास अत्यंत सुस्त हो गए। भगवान श्रीकृष्ण ने जब उनसे इस उदासी का कारण पूछा तो स्वामी जी ने कहा कि मैं संत हूं। मैं आपको तो लंगोटी पहना दूंगा, किंतु राधा रानी को नित्य नए श्रृंगार कहां से करवाऊंगा। हरिदास जी के यह कहने पर भगवान श्रीकृष्ण ने कहा कि तो चलो, हम दोनों एक प्राण और एक देह हुए जाते हैं और वे दोनों उसी समय एक विग्रह (मूर्ति) में परिवर्तित हो गए। स्वामी जी ने इस विग्रह का नाम ठाकुर बांके बिहारी रखा और प्रकट हुए स्थान को विशाखा कुंड नाम दिया।

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मान्यता है कि यह घटना संवत 1567 में मार्गशीर्ष माह के शुक्ल पक्ष पंचमी में हुई थी। कालांतर में यह दिन विहार पंचमी के नाम से प्रसिद्ध हुआ। स्वामी हरिदास निधिवन में बिहारी जी के विग्रह की नित्य-प्रति बड़े ही विधि-विधान से सेवा-पूजा किया करते थे। मान्यता है कि ठाकुर बांके बिहारी की गद्दी पर स्वामी जी को प्रतिदिन बारह स्वर्ण मोहरें रखी हुई मिलती थीं, जिन्हें वह उसी दिन बिहारी जी का विभिन्न प्रकार के व्यंजनों से भोग लगाने में व्यय कर देते थे। वह भोग लगे व्यंजनों को बंदरों, मोरों, मछलियों और कछुओं आदि जीव-जंतुओं को खिला देते थे। जबकि वह स्वयं ब्रजवासियों से मांगी गई भिक्षा से ही संतुष्ट हो लेते थे। बाद में उन्होंने ठाकुर बांके बिहारी की सेवा का कार्य अपने अनुज जगन्नाथ को सौंप दिया। बिहारी जी के विग्रह को लगभग दो सौ वर्षो तक निधिवन में पूजा जाता रहा। कालांतर में भरतपुर की महारानी लक्ष्मीबाई ने उनका अलग से मंदिर बनवाया। किंतु यह मंदिर बिहारी जी के सेवाधिकारियों को नहीं भाया। अत: उन्होंने भरतपुर के राजा रतन सिंह द्वारा प्रदत्त भूमि पर बिहारी जी के भक्तों से सहयोग लेकर संवत् 1921 में दूसरा मंदिर बनवाया, जहां आज बांके बिहारी विराजित हैं। उत्तर प्रदेश के मथुरा जिले के वृंदावन नगर में स्थित ठाकुर बांके बिहारी मंदिर की अत्यधिक मान्यता है। इस मंदिर के दर्शन करने देश भर से विभिन्न जाति-संप्रदाय के हजारों लोग यहां आते हैं।

बांके शब्द का अर्थ होता है टेढ़ा। बांके बिहारी का विग्रह (मूर्ति) कंधा, कमर और घुटने के स्थान पर मुड़े होने के कारण बांके नाम से जाना जाता है। यही कारण है कि तीन जगह से मुड़े होने के कारण इन्हें त्रिभंगीलाल भी कहा जाता है।

इस विग्रह में प्रिया (राधा) तथा प्रियतम (कृष्ण) दोनों के समान दर्शन होते हैं। मंदिर में एक-एक दिन के अंतराल पर बिहारी जी का कभी राधा के रूप में, तो कभी श्रीकृष्ण के रूप में श्रृंगार होता है। उनकी सेवा अत्यंत अनूठी व भावमय है। ठाकुर बांके बिहारी मंदिर के सेवाधिकारी आचार्य अशोक कुमार गोस्वामी बताते हैं कि बिहारी जी की सेवा एक शिशु की तरह की जाती है। एक बालक की तरह ही बिहारी जी का जागरण देर से तथा शयन जल्दी हो जाता है। इस संबंध में उनका तर्क यह भी है कि उनके ठाकुर नित्य रात्रि में रास कर प्रात:काल शयन करते हैं। अतएव उन्हें सुबह जल्दी जगाना उचित नहीं है। इसी कारण उनकी मंगला आरती वर्ष भर में केवल एक बार जन्माष्टमी की अगली सुबह को होती है। बिहारी जी को थोड़े-थोड़े समय के अंतर पर विभिन्न भोग अर्पित किए जाते हैं। इन भोग पदार्थो में एक बच्चे की रुचि का पूर्णत: ध्यान रखा जाता है। अधिकांश शिशुओं को रात्रि में भूख लगती है, इसलिए उन्हें रात्रि को शयन कराते समय उनके सम्मुख भोग में बूंदी के लड्डू, पूडि़यां तथा दूध आदि रख दिया जाता है।

बांके बिहारी के संबंध में अनेक किंवदंतियां प्रचलित हैं। कहा जाता है कि एक बार भक्तिमती मीराबाई ने जब बिहारी जी के दर्शन के समय उन्हें एकटक देखा तो वह उनके प्रेमपाश में बंधकर उनके साथ चले गए थे। सेवाधिकारियों के अत्यंत आग्रह पर मीराबाई ने बिहारी जी को वापस किया। कहा जाता है कि तभी से उनके दर्शन झरोखे से कराए जाते हैं। थोड़े-थोड़े अंतर पर बिहारी जी के सम्मुख पर्दा लगाया व हटाया जाता है, ताकि भक्तगण उन्हें एकटक न देख सकें।

एक कथा है कि संत प्रवर स्वामी रामकृष्ण परमहंस जब एक बार बिहारी जी के दर्शन कर रहे थे, तब उन्हें उनके साक्षात दर्शन हुए थे। उन्हें यह लगा कि वह उनको अपने पास बुला रहे हैं। अतएव वह भावावेश में आकर उनका आलिंगन करने के लिए दौड़ पड़े। एक अन्य किंवदंती के अनुसार, बिहारी जी एक बार करौली स्टेट जयपुर की रानी के प्रेम से वशीभूत होकर स्वयं वृंदावन से करौली जाकर उनके महल में जा विराजे थे। बाद में उन्हें उनके सेवाधिकारियों के अथक प्रयासों से किसी प्रकार भरतपुर और फिर वृंदावन वापस लाया गया। करौली व भरतपुर में भी ठाकुर बांके बिहारी के मंदिर विद्यमान हैं।

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