धर्मसम्राट और वो कुंभ पर्व
तब यही कोई बारह बरस की उम्र थी मेरी। विद्यार्थी जीवन था। उन्हीं दिनों मेरी जन्मभूमि बक्सर में विशाल यज्ञ हुआ। कई धर्माचार्य संत-महंत उसमें शामिल होने पहुंचे। उन्हीं में से एक थे धर्म सम्राट स्वामी करपात्री जी। यज्ञ में धर्म-अध्यात्म की ऐसी गंगा बही कि मेरा मन मस्तिष्क झंकृत हो गया।
तब यही कोई बारह बरस की उम्र थी मेरी। विद्यार्थी जीवन था। उन्हीं दिनों मेरी जन्मभूमि बक्सर में विशाल यज्ञ हुआ। कई धर्माचार्य संत-महंत उसमें शामिल होने पहुंचे। उन्हीं में से एक थे धर्म सम्राट स्वामी करपात्री जी। यज्ञ में धर्म-अध्यात्म की ऐसी गंगा बही कि मेरा मन मस्तिष्क झंकृत हो गया। स्वामी जी के दर्शन और शास्त्र पर उनके विशद ज्ञान ने ऐसा प्रभाव छोड़ा कि मेरा मन धर्म ध्वजा फहराने में ही रम गया। मेरे माता पिता से हमारे गुरु जी डॉ लक्ष्मी चैतन्य महराज ने हमें मांग लिया। मैं उनके साथ हो लिया। वर्ष 1977 के महाकुंभ पर्व में कल-कल करती निर्मल अविरल गंगा और डुबकी लगाते भावविभोर श्रद्धालु। उस कुंभ की ऐसी तस्वीर मन में बसी कि वह अमिट होकर रह गई।
तब कुंभ पर्व का क्षेत्रफल इतना बड़ा नहीं हुआ करता था। शास्त्री ब्रिज बनकर तैयार भी नहीं हुआ था। श्रद्धालुओं का यह नगर तब शास्त्री ब्रिज तक नहीं होता था, लेकिन जो लोग कुंभ पर्व में आते थे वे विशुद्ध कल्पवासी होते थे। कल्पवास के नियमों का न सिर्फ पालन करते थे, बल्कि जीते थे। आज भीड़ तो करोड़ का आंकड़ा पार कर रही है, लेकिन उस भीड़ में उन श्रद्धालुओं की संख्या कम हो गई है, जो शास्त्र के नियमों के अनुसार महीने भर कल्पवास करते थे। वे भाव विभोर होकर आते थे। पूजा-पाठ, दान-पुण्य करते थे। तब अधिकारियों की व्यवस्था भी बहुत दुरुस्त हुआ करती थी। वे आस्था से खुद को जोड़ लेते थे, जिसके कारण श्रद्धालुओं को परेशानी होती थी। गंगा मां के आंचल का फैलाव भी बड़ा था। अब तो बहुत फर्क आ गया है। तमाम दिक्कतें तो प्रशासनिक स्तर से ही खड़ी कर दी गई हैं।
प्रयाग के कुंभ मेले में मेरा पहली बार आना 1974 में हुआ था। यहां अपने गुरु जी डा. लक्ष्मी चैतन्य ब्रंाचारी महराज के साथ आते थे। तब यहीं पर बसंत पंचमी के दिन मेरा यज्ञोपवीत संस्कार हुआ था, साथ ही मंत्र भी लिया था। वह दिन था और आज का दिन, सब गुरुजी की परंपरा के अनुसार ही चल रहा है। कुंभ पर्व में पहले संतों के अखाड़े आते थे। श्रद्धालु उन्हीं अखाड़ों में ही आते थे। उन दिनों जो शास्त्रार्थ हुआ करते थे, उनके कहने ही क्या थे। कई दिन तक चलते थे। हार-जीत का कोई मतलब नहीं होता था। उसमें सनातन धर्म की रक्षा और प्रचार प्रसार पर ही मंथन होता था। चिंतन होता था कि धर्म ध्वजा कैसे फहरती रहे। कुंभ में तय होता था कि अगले 12 साल क्या किया जाना है। हफ्तों चलने वाले शास्त्रार्थ में उस समय गूंज ऐसी होती थी कि उसका आलोक देश देशांतर में चतुर्दिक फैलता था।
तब धर्म सम्राट को सुनने के लिए मेला उमड़ता था। बात 1977 की है। जब धर्म सम्राट बोलते थे तो श्रद्धालुओं की भीड़ से रास्ते जाम हो जाया करते थे। परेशान प्रशासनिक मशीनरी को नई व्यवस्था बनानी पड़ती थी ताकि आवागमन चलता रहे। अब तो सब कुछ बदल गया है। अब 1977 वाले कुंभ जैसी बात कहां। तब न वाटरप्रूफ पंडाल हुआ करते थे, न पंडालों में अन्य सुविधाएं। श्रद्धालु तप किया करते थे। श्रद्धा भाव मानो उनकी रगों में बहता था। संयम नियम के साथ स्नान, ध्यान करना, कथा प्रवचन करना। एक वक्त भोजन करना उनकी दिनचर्या हुआ करती थी। सुविधाएं तजकर गंगा मां, अपने गुरु की आराधना में ही पूरा वक्त बिताते थे। कल्पवासियों के शिविरों को देखने से ही परिलक्षित हो जाता था कि यहां साधना होती होगी। कल्पवासियों के शिविर के बाहर तुलसी के पौधे, केले के पौधे हुआ करते थे। कल्पवासी गंगा स्नान के बाद इन पौधों को जल देकर आराधना किया करते थे। मां गंगा की गोद में धर्म अध्यात्म का संगम होता था। सत्संग और कथाएं सुनकर कल्पवासियों के विचारों में भी परिवर्तन आता था। जब बिछुड़ने का समय आता था तो कल्पवासियों के मन भर आते थे।
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